नई दिल्ली: जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ किसी पहलू से सहमत हों या फिर असहमति जताएं, दोनों ही सूरतों में उनके फैसले गहरी दिलचस्पी जगाते हैं. उनके फैसले संवैधानिक मूल्यों पर केंद्रित होते हैं, विविधता और समावेशिता को अपनाने पर जोर देने वाले होते हैं. और सही मायने में उन्हें एक ऐसे उदारवादी के तौर पर पेश करते हैं, जो समाज में हाशिये पर रह रहे वर्गों के प्रति बेहद संवेदनशील और दयालु है.
हालांकि, वह न्यायिक मर्यादा बनाए रखने को लेकर भी समान रूप से सचेत हैं और जब नीतिगत मामलों या विकास परियोजनाओं पर निर्णय लेने की बात आती है तो जस्टिस चंद्रचूड़ ‘लक्ष्मण रेखा’ पार करने से बचते हैं. वह कार्यपालिका के साथ विचार-विमर्श की प्रक्रिया में शामिल होना बेहतर समझते हैं, न कि उसे न्यायिक आदेशों का पालन करने का निर्देश देना.
देश के 50वें प्रधान न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ को उनके सहपाठी, विधि शिक्षक, बार सदस्य और पीठ के सहयोगी कुछ इसी तरह परिभाषित करते हैं.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जस्टिस चंद्रचूड़ को बुधवार को प्रधान न्यायाधीश पद की शपथ दिलाई. वह 11 नवंबर को 64 वर्ष की उम्र पूरी कर लेंगे. चीफ जस्टिस कार्यालय में उनका कार्यकाल दो साल का होगा. जस्टिस चंद्रचूड़ पिछले कुछ वर्षों में न सिर्फ इस पद पर सबसे लंबे समय तक सेवाएं देने वाले न्यायाधीश होंगे, बल्कि वह बीते दस वर्षों में प्रधान न्यायाधीश नियुक्त होने वाले सबसे कम उम्र के जज भी हैं.
थोड़ी चुनौतीपूर्ण होगी राह
जस्टिस चंद्रचूड़ अयोध्या भूमि विवाद और निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानने सहित कई अहम मामलों में ऐतिहासिक फैसले देने वाली पीठ का हिस्सा रह चुके हैं. भारतीय न्यायपालिका के प्रमुख के तौर पर उनके कार्यकाल को लेकर उत्सुकता भरी नजरें टिकी हैं. न्यायिक पक्ष पर जस्टिस चंद्रचूड़ के समक्ष सुनवाई के लिए कुछ हाई-प्रोफाइल मामले हैं, जबकि प्रशासनिक स्तर पर उनके सामने अपने कार्यकाल के दौरान उत्पन्न होने वाली 18 रिक्तियों को भरने और हाई कोर्टों में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों और जजों की मौजूदा संख्या के बीच व्यापक अंतर को पाटने की चुनौती होगी.
केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा पिछले हफ्ते कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता के अभाव को लेकर नाराजगी जाहिर किए जाने के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि नए चीफ जस्टिस क्या कदम उठाते हैं, वह न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा प्रणाली की आलोचना से निपटने के उपाय करते हैं या नहीं.
जस्टिस चंद्रचूड़ का चीफ जस्टिस के तौर पर शपथ लेना भी एक ऐतिहासिक पल है. यह पहला मौका है, जब भारतीय न्यायपालिका एक बेटे के अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए सर्वोच्च पद पर काबिज होने की गवाह बनी. जस्टिस चंद्रचूड़ के पिता, जस्टिस वाई.वी. चंद्रचूड़ 1978 से 1985 के बीच सात वर्षों के लिए देश के चीफ जस्टिस पद पर सबसे लंबे समय तक सेवाएं देने वाले जज थे.
पिता के फैसले पलटे
हालांकि, नए चीफ जस्टिस की ओर से लिए गए फैसले पिता-पुत्र के नजरिये में मौजूद ‘पीढ़ीगत अंतर’ को साफ दिखाते हैं.
2017 में गोपनीयता के अधिकार मामले (के.एस. पुट्टास्वामी मामला) में जस्टिस चंद्रचूड़ ने 1976 के एडीएम जबलपुर मामले में अपने पिता की तरफ से सुनाए गए उस फैसले को खारिज कर दिया था, जिसे ‘आपातकाल के दौरान लिए गए गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण फैसले’ के रूप में याद किया जाता है.
1976 का फैसले, जिसमें जस्टिस चंद्रचूड़ के पिता ने सहमति जताई थी, में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार की तरफ से संविधान के तहत प्रदत्त भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों को दरकिनार करते हुए आपातकाल लगाए जाने को बरकरार रखा गया था.
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने 2017 के पुट्टास्वामी मामले में बहुमत की राय लिखी थी और एडीएम जबलपुर के फैसले पर बेहद मार्मिक टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था, ‘…जब देशों का इतिहास लिखा जाता है और उसकी आलोचना की जाती है, तब न्यायिक फैसलों पर सबसे मुखर तरीके से टिप्पणी की जाती है. बावजूद इसके, उन चीजों को अतीत में दफन करना होता है, जिन्हें कभी होना नहीं चाहिए था.’
एक साल बाद 2018 में, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने एक बार फिर अपने पिता के एक फैसले से असहमति जताई. भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा-497 की संवैधानिक वैधता पर 33 साल पहले लिए गए इस फैसले में व्यभिचार के प्रावधान को असंवैधानिक घोषित किया गया था.
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शास्त्रीय संगीत से गहरा नाता
भले ही उन्होंने सीनियर चंद्रचूड़ के विचारों की छाया से परे एक स्वतंत्र न्यायिक राय रखने की वजह से भी ज्यादा ख्याति हासिल की हो लेकिन शास्त्रीय संगीत की विरासत उन्हें अपने माता-पिता से ही मिली है.
11 नवंबर 1959 को पुणे में जन्मे चंद्रचूड़ का बचपन एक संगीतमय माहौल में ही बीता. उनके पिता एक प्रशिक्षित क्लासिकल सिंगर थे, जबकि उनकी मां अखिल भारतीय रेडियो कलाकार और जानी-मानी हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायिका किशोरी अमोनकर की शिष्या थीं.
जस्टिस चंद्रचूड़ 12 साल की उम्र में ही दिल्ली आ गए थे जब उनके पिता ने सीजेआई का पद संभाला और ‘13, तुगलक रोड’ उनका घर बन गया. हालांकि, वरिष्ठता क्रम के लिहाज से इससे बड़े आवास के लिए पात्र होने के बावजूद वह आज भी अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ उस बंगले में ही रहते है. दोनों बेटियों को दंपति ने उस समय गोद लिया था जब वह इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज थे.
एक शानदार करियर
उन्होंने 1979 में सेंट स्टीफंस कॉलेज, नई दिल्ली से इकोनॉमिस्ट और मैथ्स में स्नातक की डिग्री हासिल की, फिर 1982 में दिल्ली यूनिवर्सिटी की लॉ फैकल्टी के छात्र रहे. इसके बाद 1983 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से लॉ में मास्टर्स डिग्री हासिल की और 1986 में उन्होंने जूडिशयल साइंस में अपनी डॉक्टरेट पूरी की.
अकादमिक अध्ययन पूरा करने के बाद चंद्रचूड़ अपना कानूनी करियर आगे बढ़ाने के लिए मुंबई चले गए. वहां मार्च 2000 में बतौर न्यायाधीश नियुक्त मिलने तक वह भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के तौर पर काम करते रहे. फिर उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बनाकर भेजा गया और अंतत: मार्च 2016 में प्रोन्नत होकर सुप्रीम कोर्ट आ गए.
टेक्नोलॉजी के पक्षधर
सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर उन्होंने व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले कानूनी मुद्दों पर अपने उल्लेखनीय न्यायिक कौशल को दर्शाया.
उनके न्यायिक फैसले भारत के न्यायिक इतिहास में बदलाव के दौर के गवाह बने. ई-कमेटी के प्रमुख के तौर पर उनके प्रयास बताते हैं कि वह जो कहते हैं, उस पर अमल भी करते हैं. 2018 में उन्होंने स्वप्निल त्रिपाठी मामले में बहुमत का फैसला सुनाते हुए लिखा था, ‘पारदर्शिता लाने से बेहतर कोई उपाय नहीं है.’ और आगे चलकर इसी ने अदालती सुनवाई की लाइव-स्ट्रीमिंग का रास्ता खोला.
कोविड महामारी मार्च 2020 में जब अदालतों के लिए ऑनलाइन सुनवाई का सहारा लेने की बाध्यता बन गई तो जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसे अदालती सुनवाई में पारदर्शिता के एक बड़े अवसर के रूप में देखा. हालांकि, शीर्ष अदालत अपनी कार्यवाही को सार्वजनिक करने की अनिच्छुक थी, लेकिन इसके मार्गदर्शन वाली ई-समिति ने लाइव-स्ट्रीमिंग से जुड़े नियम-कायदे बनाए और इन्हें लागू करने की सलाह के साथ सभी हाई कोर्टों के पास भेज दिया.
कुछ ही महीनों में छह हाई कोर्टों ने उन्हें अपना लिया और अपने-अपने यू-ट्यूब चैनलों पर लाइव स्ट्रीमिंग शुरू कर दी. आखिरकार, पिछले माह शीर्ष अदालत ने भी अपनी संविधान पीठों की कार्यवाही को लाइव स्ट्रीम किया.
ई-कमेटी सभी अदालतों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए एक विशेष नेशनल प्लेटफॉर्म विकसित करने पर भी काम कर रही है.
उन्होंने जहां प्रशासनिक पक्ष में एक बदलाव की शुरुआत की, वहीं न्यायिक पहलू में भी न्यायाधीश के बीच प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को बखूबी प्रोत्साहित किया. वह फिजिकल हियरिंग शुरू होने के बाद भी शायद ही कभी वकीलों को ऑनलाइन मोड के इस्तेमाल से रोकते हैं. उनका मानना हि ऑनलाइन सुनवाई लैंगिक आधार पर महिलाओं की जरूरतें पूरी करने में मददगार तो है ही, नई माताओं के पेशेवर जीवन छोड़ने का विकल्प अपनाने के बजाये ही घर से बहस आदि करने की इजाजत भी देती है. वह अपने न्यायिक फैसलों में हमेशा से ही इस तरह की बातों पर जोर देते रहे हैं.
चंद्रचूड़ ने आम आदमी पार्टी बनाम दिल्ली उपराज्यपाल मामले में वकीलों को पेपरलेस सुनवाई के लिए राजी किया और वकीलों के तकनीकी रूप से पिछड़े होने की स्थिति उन्हें प्रशिक्षित करने की पेशकश भी की.
जज ने खुद तकनीक को अपनाकर एक मिसाल कायम की है. जैसे ही कोविड ने जजों को अपने आवासीय कार्यालयों से ऑनलाइन सुनवाई शुरू करने के लिए बाध्य किया, जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसे एक मौका मानकर इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के इस्तेमाल में महारत हासिल करने की कोशिश शुरू कर दी. वह विभिन्न गैजेट्स का इस्तेमाल कर अपने छोटे-मोटे फैसले खुद ही टाइप भी करने लगे.
हालांकि, शुरू में तो यह व्यवस्था महामारी के दौरान कर्मचारियों की कमी की समस्या दूर करने का साधन बनी, लेकिन जस्टिस चंद्रचूड़ के लिए यह अब एक आदर्श व्यवस्था बन चुकी है. उनकी पीठ ऐसी कुछ पीठों में शुमार है जो पेपरलेस काम करती हैं और न्यायाधीश, अब भी छोटे-मोटे फैसले खुद ही टाइप करते हैं. वह फिजिकल उपस्थिति की बहुत ज्यादा जरूरत न होने पर ऑनलाइन सम्मेलनों और सेमिनारों का हिस्सा बनना ही पसंद करते हैं.
जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के उनके पूर्व सहयोगी जस्टिस दीपक गुप्ता कहते हैं, मौजूदा सीजेआई से बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं. और उनकी तरह, कानूनी बिरादरी को भी पूरी दृढ़ता से भरोसा है कि उनके कुछ सपने सच हो सकते हैं.
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