नई दिल्ली: ऑस्ट्रेलिया में रह रहे सोशियोलॉजिस्ट डॉ. सल्वाटोर बाबोन्स उत्तर प्रदेश स्थित एक भारतीय मीडिया कंपनी के साथ काम करने की वजह से अमेरिकी न्याय विभाग और ऑस्ट्रेलियाई सरकार की ‘विदेशी एजेंट’ की सूची में शामिल हैं. दिप्रिंट को मिली जानकारी में यह बात सामने आई है. गौरतलब है कि डॉ. बाबोन्स वही हैं जिन्होंने गत शनिवार को मुंबई में इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में हिस्सा लेने के दौरान कहा था, ‘भारत का बुद्धिजीवी वर्ग भारत विरोधी है.’
बाबोन्स ने दिप्रिंट के साथ बातचीत में इसकी पुष्टि की कि उन्होंने 2020 में नोएडा में डेमोक्रेसी न्यूज लाइव नामक एक कंपनी के साथ करार के तहत ‘कुछ समय उसके साथ काम किया’ था. उन्होंने बताया कि इसके लिए उन्हें 4,000 अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया गया था.
बाबोन्स ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैंने कंपनी के साथ बस 6 महीने के लिए एक कंसल्टेंसी असाइनमेंट साइन किया था. उन्होंने पश्चिमी देशों के दर्शकों तक पहुंचने के लिए मेरी मदद मांगी थी. वे जानना चाहते थे कि पश्चिमी मीडिया के लिए लेख कैसे तैयार किए जाएं ताकि उनका संदेश व्यापक दर्शक वर्ग तक पहुंच सके, और मैंने इसी पर उन्हें सलाह दी थी.
यह पूछे जाने पर कि क्या उन्होंने इंडिया टुडे को इस बारे में बताया था, उन्होंने कहा, ‘नहीं, मुझे ऐसा करने की जरूरत ही नहीं थी. मैं अब उस कंपनी से नहीं जुड़ा हूं, मैंने बस थोड़े समय के लिए ही उन्हें कंसल्टेंसी दी थी.’
अमेरिका में किसी भी व्यक्ति को किसी दूसरे देश के हित में काम करने या किसी विदेशी सरकार, संगठन या व्यक्ति की वकालत करने के लिए विदेशी एजेंट पंजीकरण अधिनियम (एफएआरए) 1938 के तहत एक विदेशी एजेंट के तौर पर रजिस्ट्रेशन कराना होता है.
विदेशी एजेंट पंजीकरण अधिनियम पर अमल की जिम्मेदारी नेशनल सिक्योरिटी डिवीजन (एनएसडी) के काउंटर इंटेलिजेंस एंड एक्सपोर्ट कंट्रोल सेक्शन (सीईएस) की एफएआरए यूनिट की है और इसका उल्लंघन करने वालों पर भारी जुर्माना लगता है.
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वहीं, ऑस्ट्रेलिया में फॉरेन इन्फ्लुएंस ट्रांसपेरेंसी स्कीम (एफआईटीएस) के तहत ऐसी किसी गतिविधि का खुलासा करना आवश्यक होता है. योजना का उद्देश्य यह है कि जनता ऑस्ट्रेलियाई सरकार और राजनीति पर विदेशी प्रभाव की प्रकृति, स्तर और सीमा के बारे में जान सके.
यह पूछे जाने पर कि क्या डेमोक्रेसी न्यूज लाइव भारत सरकार से जुड़ी कोई संस्था है, जिसके कारण उन्होंने यह पंजीकरण कराया, बाबोन्स ने कहा कि उन्हें उसके स्टेटस के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
डेमोक्रेसी न्यूज लाइव वेबसाइट के मुताबिक, कंपनी पत्रकारिता को एक साधन के तौर पर इस्तेमाल करके विभिन्न मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने और नीति निर्माताओं को प्रभावित करने के लिए काम करती है.
वेबसाइट में कंपनी के संस्थापक और प्रधान संपादक के तौर पर रोहित गांधी के नाम का उल्लेख है और बताया गया है कि वह पूर्व में सीएनएन और कनाडियन ब्रॉडकास्टिंग ऑर्गनाइजेशन के साथ काम कर चुके हैं.
बाबोन्स एक अमेरिकी नागरिक हैं और सिडनी यूनिवर्सिटी में सोशियोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर काम करते हैं और पब्लिक पॉलिसी पर लिखते हैं. हिंद-प्रशांत क्षेत्र की राजनीतिक अर्थव्यवस्था उनके शोध का विषय रही है और उन्होंने इस पर कई किताबें लिखी हैं.
कॉन्क्लेव के दौरान क्या भारत में लोकतंत्र घट रहा और भारत में एक निर्वाचित निरंकुशता है या फासीवाद की ओर बढ़ रहा है, विषय पर वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई के साथ चर्चा के दौरान ही उन्होंने भारतीय बुद्धिजीवियों के ‘देश-विरोधी’ होने वाली टिप्पणी की थी. चर्चा शुरू करते हुए सरदेसाई ने अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंकों की तरफ से भारत सहित कई देशों की प्रेस फ्रीडम रैंकिंग का हवाला दिया और पूछा कि ये रैंकिंग कितनी वैध है. उन्होंने आगे एक और सवाल उठाया कि क्या ये रैंकिंग भारतीय लोकतंत्र की स्थिति उजागर करने वाली है या फिर इसे गलत ढंग से दर्शाया जा रहा है?
ग्लोबल मीडिया वॉचडॉग, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 में वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों के बीच भारत की रैंकिंग गिरकर 150 हो गई है. जबकि पिछले साल देश को 142वां स्थान मिला था.
‘मैंने रजिस्ट्रेशन कराते समय पूरी जानकारी दी’
बाबोन्स ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने अपनी स्थिति पूरी तरह साफ करते हुए एफएआरए और एफआईटीएस के तहत रजिस्ट्रेशन कराया था क्योंकि वह ‘बाद में कोई मुद्दा नहीं उठने देना चाहते थे.’
इस संदर्भ में उन्होंने पूर्व ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबॉट का उदाहरण दिया और बताया कि ऑस्ट्रेलियाई सीपीएसी बैठक में बोलने के कारण एफआईटीएस के तहत उनकी जांच की गई थी, यद्यपि सीपीएसी स्पष्ट तौर पर अमेरिकी सरकार की इकाई नहीं है. उन्होंने कहा कि वह ‘इस तरह का कोई जोखिम’ नहीं लेना चाहते थे.
उन्होंने बताया, ‘चूंकि यह कांट्रैक्ट एक विदेशी संस्था के साथ था, इसलिए ऐसा करना जरूरी था. ऑस्ट्रेलिया में यदि आप एक फॉरेन क्लाइंट के लिए काम करते हैं जो ऑस्ट्रेलियाई मीडिया को प्रभावित करना चाहता है और यदि फॉरेन क्लाइंट किसी सरकार से जुड़ी इकाई है, तो अपने बारे में खुलासा करना और रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य है. अन्यथा, गंभीर दंड भुगतना पड़ सकता है.’
बाबोन्स ने यह भी बताया कि जब वह अपना रजिस्ट्रेशन कराने गए थे तो अधिकारियों ने उन्हें बताया कि कंसल्टेंसी वर्क के लिए ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन बाद में किसी तरह की पेनाल्टी से बचने के लिए उन्होंने रजिस्ट्रेशन कराना ही बेहतर समझा.
उन्होंने दावा किया, ‘दोनों देशों में ऐसे कई लोगों की जांच की गई है, जिन्होंने पंजीकरण नहीं कराया था और कोई वकील न होने के कारण मैंने सोचा कि बाद में कोई मुश्किल हो, इससे बेहतर है कि पहले ही ऐसा कर लिया जाए. चूंकि बिना जरूरत रजिस्ट्रेशन कराने पर तो कोई दंड नहीं है, इसलिए मैंने आगे बढ़कर यह कदम उठाया.’
उन्होंने आगे कहा, ‘जब मैं रजिस्ट्रेशन कराने गया तो कंपनी में मेरी भूमिका के बारे में पूछा गया. जब मैंने उसके बारे में बताया तो मुझसे कहा गया कि रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं है, लेकिन फिर भी मैंने ऐसा किया. चूंकि मैं भारत में एक विदेशी कंपनी की मदद कर रहा था, मुझे लगा कि इसकी जानकारी देना जरूरी था.
बाबोन्स के मुताबिक यह एकमात्र ऐसा मौका था जब उन्होंने कोई कंसल्टेंसी असाइनमेंट अपने हाथ में लिया.
‘भारत विरोधी और मोदी विरोधी दोनों’
वर्ल्ड रैंकिंग के लिए सर्वेक्षण करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठनों के बारे में बात करते हुए बाबोन्स ने शनिवार को कॉन्क्लेव में कहा था कि ‘संगठन 150 से अधिक देशों में लोकतंत्र की स्थिति का मूल्यांकन करते हैं. लेकिन इसमें शामिल अधिकांश लोगों की भारत में कोई दिलचस्पी नहीं होती है. समस्या यह है कि ये सभी रैंकिंग सर्वेक्षणों पर आधारित होती हैं. ऐसे में सभी की मेथडोलॉजी एक जैसी ही होती है. वे जिस देश में पढ़ रहे हैं या फिर जहां विदेशी छात्र हैं, उसी के आधार पर बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और शिक्षाविदों के बीच सर्वे करते हैं. और ये (सर्वे) रिपोर्टें पक्षपातपूर्ण होती हैं.’
उन्होंने आगे कहा था, ‘सीधी बात यह है कि ये पक्षपातपूर्ण इसलिए नहीं होतीं क्योंकि संगठन भारत विरोधी हैं. बल्कि इसलिए होती हैं, मुझे माफ कीजिएगा, क्योंकि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग देश विरोधी है, और यह किसी व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक वर्ग के रूप में है.’
यह पूछे जाने पर कि क्या उनका मतलब है कि बुद्धिजीवी वर्ग भारत विरोधी है या फिर मोदी विरोधी, बाबोन्स ने कहा था, ‘थोडा-सा दोनों ही.’
उन्होंने आगे कहा था, ‘वे निश्चित तौर पर एक वर्ग के तौर पर भाजपा विरोधी और मोदी विरोधी हैं, न कि एक व्यक्ति के तौर पर. कल्पना करते हैं कि एक-दो साल में यूपीए सरकार आ जाएगी. क्या वे राम मंदिर को हटा देंगे? क्या उन नीतियों को उलट देंगे जिनकी इन रैंकिंग में आलोचना की जा रही है? क्या यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम) से छुटकारा मिल जाएगा? इसलिए जिन चीजों को लेकर आलोचनाएं की जाती हैं, वे संभवत: यथावत ही रहेंगी. अगर वे ऐसा करते हैं, तो उनकी उसी तरह आलोचनाएं शुरू हो जाएंगी.’
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