जालंधर: बाजरा गांव जालंधर शहर से 11 किलोमीटर की दूरी पर बसा है और यहां की हवा आसपास के गांवों की तुलना में अपेक्षाकृत साफ है. बाजरा पिछले पांच सालों से पराली जलाने की घटनाओं से शत-प्रतिशत मुक्त होने का दावा करता है. एक ऐसे समय में जब अधिकांश उत्तरी भारत के लिए खेतों में लगाई जाने वाली आग लगना चिंता का विषय बन गई है, पंजाब का यह गांव एक स्वागत योग्य अपवाद है.
यहां के किसानों के पास दो फसलों के बीच जितना भी सीमित समय होता है, उसमें वे अपने खेतों को साफ करने के लिए वैकल्पिक तरीकों को अपनाना पसंद करते हैं, हालांकि इन तकनीकों की लागत अधिक होती है और इसमें समय भी ज्यादा लगता है.
राज्य के कृषि विभाग के अधिकारियों के मुताबिक इस साल भी इस गांव में पराली जलाने की कोई घटना नहीं हुई है. जालंधर में कृषि विभाग के एक अधिकारी ने उनका नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘हां, हम इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि बाजरा गांव ने अपने पराली का सफलतापूर्वक प्रबंधन कर लिया है और वहां से (खेतों में) आग लगाए जाने की कोई खबर नहीं आई है.’
यह पूछे जाने पर कि अन्य गांव इस मिसाल का पालन क्यों नहीं कर पाए, इस अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया: ‘हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं. हम जागरूकता फैलाते हैं, लेकिन कई बार किसान हमारी नहीं सुनते. वास्तव में, कुछ मामलों में तो जब हम खेत पर दौरे के लिए जाते हैं तो हमें किसानों द्वारा बंधक बना लिया जाता है.’
बाजरा में यह आंदोलन इसके किसानों, सरपंचों (भूतपूर्व और वर्तमान) और इसके निवासी डॉ पी.एल. बख्शी द्वारा चलाया जाता है. उनकी जिद और कुछ हद तक स्थानीय अधिकारियों के डर ने ही यहां के किसानों को पराली न जलाने के लिए रजामंद कर लिया है.
करीब सौ एकड़ में फैला और लगभग 1,100 लोगों की आबादी वाला बाजरा गांव काफी हद तक कृषि पर ही निर्भर है, और धान, गेहूं, आलू और मक्का की फसलें यहां के लोगों की आय का प्राथमिक स्रोत हैं. किसी भी सामान्य मौसम में, गांव में आमतौर पर एक फसल के दौरान प्रति एकड़ 30-32 क्विंटल धान का उत्पादन होता है. इसके अलावा, खेती की गतिविधियां गांव तक ही सीमित नहीं है और कुछ किसान फसल उगाने के उद्देश्य से बाजरा के बाहर के इलाकों में जमीन किराए पर भी लेते हैं.
छोटे और बड़े दोनों तरह के किसान पराली का बेहतर प्रबंधन करने के लिए सुपर सीडर और बेलर मशीन जैसी मशीनरी का उपयोग करते हैं.
बाजरा के सरपंच अविनाश कुमार कहते हैं, ‘हम अपनी पूरी ताकत का इस्तेमाल किसी को भी पराली जलाने के लिए आग का इस्तेमाल नहीं करने देने के लिए करते हैं. हम जो कुछ भी सहायता प्रदान करने में सक्षम हैं, चाहे वह ट्रैक्टर हो या मशीनरी, हम उसे किसानों को प्रदान करते हैं.’ साथ ही, वह कहते हैं कि अगर कोई पराली जलाने की कोशिश करता भी है, तो हम पुलिस और कृषि विभाग को सूचित करने में कोई समय बर्बाद नहीं करते.
वे दिप्रिंट को बताते हैं, ‘ग्रामीणों को जिस चीज की जरूरत होती है, जैसे सड़क या श्मशान घाट, वह सब हमने बनाया है, इसलिए लोग भी मेरी बात सुनने के लिए तैयार हैं. किसानों को अधिक काम करना पड़ता है, अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है लेकिन उन्हें यह (पराली प्रबंधन) तो करना ही पड़ता है.’
यह भी पढ़ेंः भारत ‘जॉगिंग’ यात्रा- राहुल गांधी के साथ कदमताल के लिए महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता कैसे खुद को तैयार कर रहे
‘बेहतर उपज देता है, खाद का उपयोग कम करता है’
बाजरा के ही एक किसान, मनिंदर सिंह, का दावा है कि उन्होंने साल 2013 के बाद से पराली नहीं जलाई है. वे बताते हैं, ‘हम अपने पराली को वापस मिट्टी में दबा देते हैं. पिछली बार सुपर सीडर का उपयोग करने के बाद, हमें दो क्विंटल अतिरिक्त गेहूं का उत्पादन मिला.’
सिंह कहते हैं कि उनके जैसे किसान जो महंगी मशीनरी का खर्च उठा सकते हैं, वे उन्हें कम दरों पर छोटे किसानों को किराए पर देते हैं ‘क्योंकि काम तो करना ही है’.
स्थानीय किसान सुखवंत सिंह, जो अभी भी अपने खेतों से पराली हटाने की प्रक्रिया में हैं, कहते हैं, ‘यह (पराली का प्रबंधन) न केवल हवा में प्रदूषण की मात्रा को कम करता है, बल्कि हमारे द्वारा उगाए जाने वाले गेहूं या आलू की फसल के लिए भी अधिक फायदेमंद है. पराली को वापस मिट्टी में जोतने से मौसम के अंत में बेहतर उपज प्राप्त होती है. खाद का उपयोग भी कम हो जाता है, जिससे पैसे की बचत होती है.’
पराली को वापस मिट्टी में जोतने के लिए किसान सुपर सीडर मशीन का उपयोग करते हैं. ट्रैक्टर से लगी हुई यह मशीन एक साथ पूरे खेत में बीज बोने और खाद का छिड़काव करने का काम करती जाती है. हालांकि पूरे सेटअप की लागत लाखों में होती है, मगर छोटे किसान सुपर सीडर को हर मौसम में किराए पर ले लेते हैं, कयोंकि बड़े जोत वाले किसान इसे खरीदते हैं और उपयोग में न होने पर इसे किराए पर दे देते हैं.
पराली के प्रबंधन का एक अन्य लोकप्रिय तरीका बेलिंग – बेलर मशीन का उपयोग करके पराली के ढेर या ‘गांठें’ बनाना – के माध्यम से होता है. बाद में इन गांठों का उपयोग पशुपालकों द्वारा चारे के रूप में किया जाता है, जो श्रम और डीजल पर लगी लागत की राशि का वहन करते हैं. हालांकि, जैसा कुमार बताते हैं, इस तरीके में ‘किसानों को प्रति एकड़ 3,000 रुपये तक की अतिरिक्त लागत’ आती है.
‘दंडात्मक उपायों से नहीं निकलेगा आगे का रास्ता’
बाजरा में चलाए गए इस आंदोलन के पीछे की एक प्रेरक शक्ति डॉ. पी.एस. बख्शी, जो अब डॉक्टर्स फॉर क्लीन एयर एंड क्लाइमेट एक्शन इनिशिएटिव के सदस्य हैं जैसे लोग रहे हैं. डॉ. बख्शी ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैंने कोई बड़ा कदम नहीं उठाया है और कोई खास प्रयास नहीं किया है. यह मेरा गांव है. जब मैं वहां से गुजर रहा होता हूं तो मैं अपनी कार रोकता हूं और उन्हें (पराली जलाने वाले किसानों को) समझाता हूं कि यह बहुत हानिकारक है.’ साथ ही, उन्होंने कहा कि किसानों को वैकल्पिक तरीकों के फायदों को समझने में कुछ समय लगा.
डॉ. बख्शी का कहना है कि वह स्थानीय किसानों के साथ संबंध विकसित करने के लिए ‘सरल और सहज बातचीत’ का उपयोग करते हैं. वे कहते हैं, ‘हमें किसान के साथ तालमेल बिठाना होता है. इसके लिए, हम उसे चाचा, ताया या फूफा कह कर बुलाते हैं और फिर उसे पराली जलाने के खतरों के बारे में बताते हैं.‘
किसानों द्वारा डॉ. बख्शी की बात सुनने का एक और कारण यह है कि वे उनके लिए जरुरत पर काम आने वाले डॉक्टर हैं. वे बताते हैं, ‘वे यह भी सोचते हैं कि अगर हम उनकी बात नहीं मानते हैं, तो डॉक्टर साहब हमारा काम नहीं करेंगे. कुछ और भी लोग हैं जो यह सोचते हैं कि डॉक्टर फिर हमारे पीछे पड़ जायेंगें, इसलिए बेहतर है कि वे इसे करें हीं नहीं.’
बख्शी का यह मानना है कि पराली जलाने की घटनाओं पर अंकुश लगाने के मामले में दंडात्मक उपाय अपनाना आगे का रास्ता नहीं हो सकता है. इस बात का गर्व करते हुए कि बाजरा आस-पास के गांवों के लिए एक आदर्श बनता जा रहा है, वे कहते हैं, ‘यदि आप किसानों के साथ आक्रामक हो कर बात करने की कोशिश करते हैं, तो वे आपकी नहीं सुनेंगे. लेकिन अगर आप उन्हें वही बात पंजाबी में सहजता से समझाते हैं तो किसान आपकी जरूर सुनते हैं.’
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ेंः रोमियो-जूलियट और नोबल गैस—2020 के दिल्ली दंगों के गवाहों की ‘पहचान छिपाने’ के लिए कैसे बदले नाम