नई दिल्ली: 2022 की शुरुआत से अब तक भारतीय रुपये में लगभग 9 रुपये प्रति डॉलर की गिरावट आई है, जो इस साल जनवरी में करीब 74 रुपये की तुलना में अक्टूबर में 83 रुपये पर पहुंच गया. हालांकि, परंपरागत अर्थशास्त्र की मानें तो रुपये में गिरावट देश के निर्यातकों के लिए एक अच्छी खबर होनी चाहिए, लेकिन वास्तव में ऐसा लगता तो नहीं है. क्योंकि न तो ट्रेड डेटा इसकी पुष्टि करता है और न ही इंडस्ट्री से जुड़े बड़े खिलाड़ी इस बात से सहमत हैं.
दिप्रिंट ने अप्रैल 2012 से सितंबर 2022 तक यानी 126 माह के व्यापार और विदेशी मुद्रा डेटा का विश्लेषण किया और रुपये के मूल्यों में उतार-चढ़ाव और निर्यात क्षेत्र में देश के प्रदर्शन के बीच संबंध को समझने के लिए निर्यातकों के संगठनों और उद्योगों से जुड़े लोगों से बात भी की.
उद्योगों से जुड़े लोगों का इनपुट और आधिकारिक डेटा दोनों ही दर्शाते हैं कि रुपये के एक्सचेंज रेट का देश के निर्यात प्रदर्शन पर लगभग न के बराबर ही असर पड़ता है.
यह इस परंपरागत सोच से मेल नहीं खाता कि कि जब रुपये में गिरावट आती है, तो इसका मतलब होता है कि एक डॉलर में भारत से अधिक सामान और सेवाएं क्रय की जा सकती हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो भारत से आयात विदेशों में उन ग्राहकों के लिए सस्ता हो जाता है जो डॉलर में भुगतान करते हैं. लेकिन देश के निर्यातकों के संगठनों ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि चीजें इतनी आसान नहीं होती हैं.
केंद्र सरकार की निर्यात प्रोत्साहन परिषद से मान्यता प्राप्त एक निर्यातक संगठन फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट्स ऑर्गनाइजेशन (एफआईईओ) के महानिदेशक और सीईओ अजय सहाय का कहना है कि निर्यात प्रदर्शन को कई फैक्टर प्रभावित करते हैं और मुद्रा इसमें प्रमुख कारण नहीं है.
उन्होंने कहा, ‘भारत का निर्यात आम तौर पर व्यापार में वैश्विक रुझानों के अनुरूप होता है. वैश्विक निर्यात बढ़ेगा तो भारत का निर्यात भी बढ़ेगा और कई बार यह ज्यादा बेहतर गति के साथ बढ़ता है. करेंसी के दाम निश्चित तौर पर इसे प्रभावित करते हैं लेकिन यह इतना बड़ा फैक्टर नहीं है कि निर्यात की स्थिति को पूरी तरह बदल सकें.’
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परस्पर कोई खास संबंध नहीं
डेटा इस बात को पुष्ट करता है कि एक्सचेंज रेट और निर्यात का एक-दूसरे से कुछ खास संबंध नहीं है.
दिप्रिंट ने साल-दर-साल आधार पर रुपये (रुपये प्रति डॉलर) के संदर्भ में डॉलर के औसत मासिक मूल्य में बदलावों को देखा और इसका संबंधित माह के निर्यात आंकड़ों के साथ विश्लेषण किया. आंकड़े तो यही दर्शाते हैं कि दोनों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है. वास्तव में डेटा यही बताता है कि आयात मुद्रा के उतार-चढ़ाव के अनुरूप बदलाव का कोई पैटर्न नहीं दर्शाते.
एक-दूसरे पर कितनी निर्भरता है, यह पता लगाने के लिए किया जाने वाला आकलन यानी सहसंबंध का गुणांक, जो मुद्रा में उतार-चढ़ाव और निर्यात में बदलाव का औसत वार्षिक प्रतिशत दर्शाता है, -0.3 पाया गया. यह दोनों के बीच कमजोर संबंध को ही स्थापित करता है.
सहसंबंध के गुणांक का इस्तेमाल दो अलग-अलग चीजों के बीच संबंध कितने मजबूत हैं, यह परिभाषित करने के लिए किया जाता है. यह -1 से +1 के बीच हो सकता है, जिसमें -1 एक मजबूत लेकिन नकारात्मक सहसंबंध दर्शाता है, जबकि +1 का मतलब है कि दोनों के परस्पर बहुत ही मजबूत सकारात्मक संबंध है. सहसंबंध गुणांक शून्य या उसके निकट होने का मतलब है कि या तो कोई सहसंबंध नहीं है या फिर अगर एक-दूसरे में बदलाव का कोई असर पड़ता भी है तो बहुत कम.
सहसंबंध गुणांक -0.3 होने का सीधा-सा मतलब यही है कि रुपये में तेजी या गिरावट से निर्यात पर कोई खास असर नहीं पड़ता. निर्यात की गति अक्सर ऐसी रही है जो पारंपरिक रुपया-निर्यात संबंध को झुठलाती है. यानी, कभी-कभी, जब रुपये में काफी गिरावट आई है, तो भारत का निर्यात भी घटा. वहीं, जब रुपये में मजबूती आई है तो निर्यात में भी उछाल देखने को मिला.
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अन्य कौन-से फैक्टर निभाते हैं भूमिका
सहाय ने आगे कहा कि मुद्रा में गिरावट का उन निर्यात उद्योगों पर असर पड़ता है जो अन्य देशों से आयातित इनपुट पर निर्भर होते हैं.
उन्होंने कहा, ‘रुपये में गिरावट का मतलब है कि आयातकों को समान उत्पाद हासिल करने के लिए अधिक रुपये खर्च करने होंगे. जिन निर्यातकों को इनपुट सामान का आयात करना होता है, उनके लिए बढ़ी लागत वास्तव में मुद्रा में गिरावट के फायदे खत्म कर देती है. यही नहीं, दुनियाभर की मुद्राओं में गिरावट आ रहा है, इसलिए मुद्रा के अवमूल्यन से होने वाले प्रतिस्पर्धात्मक लाभ की भी संभावना नहीं रहती.’
उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि एक अन्य फैक्टर जो निर्यात-उन्मुख क्षेत्र के प्रदर्शन को प्रभावित करता है, वह है मुद्रास्फीति.
भारत से औद्योगिक वस्तुएं निर्यात करने वाली कंपनी टेक्नोक्राफ्ट इंडस्ट्रीज इंडिया लिमिटेड के अध्यक्ष एस.के. सराफ का कहना है कि निर्यात और मुद्रा के मूल्यह्रास के बीच ‘शायद ही कोई संबंध’ है.
उन्होंने आगे कहा, ‘भले ही रुपये में 10% की गिरावट आई हो, निर्यातकों को केवल 0.1 से 0.3% लाभ ही मिल सकता है, वह भी परिस्थितियों पर निर्भर करता है. उच्च मुद्रास्फीति की स्थिति में मुद्रा के अवमूल्यन से लाभ की संभावना खत्म हो जाती है. यही नहीं, ग्राहक भी छूट की मांग करने लगते हैं. इसलिए, मुद्रा के अवमूल्यन की स्थिति में भी आम तौर पर निर्यातकों को कोई खास लाभ नहीं मिलता है.’
इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर) के मुंबई स्थित पॉलिसी रिसर्च सेंटर में इकोनॉमिक्स की एसोसिएट प्रोफेसर राजेश्वरी सेनगुप्ता का कहना है कि एक्सचेंज रेट और निर्यात प्रदर्शन के बीच कमजोर संबंध की एक वजह यह भी हो सकती है कि रुपये में गिरावट का फायदा मिलने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है.
उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि एक्सचेंज रेट का निर्यात पर कोई असर उसी महीने नजर आता है. इसका असर एक लंबे अंतराल के बाद भी दिख सकता है.’ साथ ही जोड़ा कि वस्तुओं की अंतरराष्ट्रीय कीमतें भी व्यापार की दशा-दिशा निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.
उन्होंने कहा, ‘उदाहरण के तौर पर जब कमोडिटी की कीमतें अधिक होंगी तो पेट्रोलियम और धातुओं का निर्यात बढ़ेगा, जिससे रुपये में मजबूती आ सकती है (जैसा 2000 के दशक के मध्य में था). ऐसे में आप निर्यात और मुद्रा में गिरावट के बीच एक विपरीत सहसंबंध देखेंगे. इन फैक्टर्स (और कुछ अन्य) का मतलब है कि किसी को इकोनॉमिट्रिक एनालिसिस करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए. साधारण सहसंबंध विश्लेषण से इस संबंध का पता नहीं लगाया जा सकता.’
राजेश्वरी का यह भी कहना है समय अंतराल और कमोडिटी की कीमतों के अलावा ‘अत्यधिक संस्थागत जटिलताएं’ भी व्यापार पर खासा असर डालती हैं.
उन्होंने कहा, ‘अंतररष्ट्रीय व्यापार के लिए संबंध बनाने, भरोसा और विश्वसनीयता कायम करने और फिर ग्लोबल प्रोडक्शन चेन का हिस्सा बनने में एक लंबा समय लगता है. एक बार जब उत्पादन और निर्यात प्रक्रिया शुरू हो जाती है, तो कोई भी इसकी गति में कोई बाधा नहीं आने देना चाहेगा. यह डॉलर-रुपये की कीमतों के तात्कालिक असर को घटाता है.’
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