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Friday, 22 November, 2024
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‘मधुशाला’ नहीं कवियों को ‘मेहनताना’ दिलाने का श्रेय भी जाता है हरिवंश राय बच्चन को

कवियों को मिलने वाले पारिश्रमिक की शुरुआत करने का श्रेय बच्चन को ही जाता है. उनका तर्क था कि जब हर किसी को मेहनताना मिलता है, तो कवि इससे पीछे क्यों रहे.

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10वीं बोर्ड की परीक्षा पास करना किसी भी छात्र के लिए सबसे बड़ी और पहली चुनौतियों में शामिल है. स्कूल की प्री-बोर्ड परीक्षा में मैंने बहुत खराब प्रदर्शन किया था. 16 साल का युवा, जिसके मन में उमंग होती है, उन्माद होता है वह बहुत डरा, व्याकुल और व्यथित था. फिर स्कूल के एक गुरू जी ने मेरी काउंसलिंग की. उनकी सारी बातों का सार एक कविता में निहित थी.

वह उठी आंधी कि नभ में
छा गया सहसा अंधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भांति घेरा,

रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आ‌ई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,

रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!

इस कविता को मैंने पहली बार 10वीं में पढ़ा, सुना और जीया. यह कवि हरिवंश राय बच्चन से मेरा पहला परिचय था. इसके बाद जब भी निराशा के बादल मेरे मन पर छाते, मैंने बच्चन की इस कविता को दोहराया. हिंदी के सबसे बड़े और लोकप्रिय कवियों में से एक हरिवंश राय बच्चन का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में 27 नवंबर 1907 को हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू में हुई. उन्होंने अंग्रेज़ी में एमए किया. कई सालों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में प्राध्यापक रहे. फिर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी के कवि यीट्स पर पीएचडी भी की. वह कुछ समय तक आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से भी जुड़े रहे. इसके बाद 1955 में विदेश मंत्रालय से हिंदी विशेषज्ञ के रूप में जुड़कर दिल्ली चले आये.

मधुशाला और बच्चन

हरिवंश राय बच्चन बॉलीवुड के सबसे बड़े सितारे अमिताभ बच्चन के पिता हैं. ये हो सकता है उनका दूसरा परिचय हो. बच्चन जिस एक रचना के लिए सबसे ज़्यादा जाने पहचाने और विवादो में रहे हैं, वो है मधुशाला.

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊं?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूं –
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला

वह साल 1936 का था जब देश ने हिंदी की दो महान विभूतियों, मुंशी प्रेमचंद्र और जयशंकर प्रसाद को खो दिया था. दोनों दुनिया को अलविदा कह चुके थे. इसी साल बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के प्रांगण में मधुशाला का पहला सार्वजनिक पाठ हुआ, जिसके बाद बच्चन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और यहां से ही उन्होंने लोकप्रियता की राह पकड़ी.

बीबीसी के एक लेख में जानी-मानी लेखिका पुष्पा भारती लिखती हैं, ‘बच्चन तब बनारस में अनजाने कवि थे. जैसे ही उन्होंने मधुशाला का पाठ आरंभ किया, चारों तरफ सन्नाटा छा गया. कुछ देर के लिए लोग सांस लेना भी भूल गए और फिर…चारों तरफ से सिर्फ एक ही आवाज आई वाह..वाह वाह. उनकी ओर प्रशंसा का बांध एकाएक टूट पड़ा. तालियों की गड़गड़ाहट और वाह वाह के शोर से पूरा हॉल गूंजता रहा.’

लेकिन इस कालजयी रचना को लेकर उस समय विवाद भी बहुत हुए. मधुशाला की लोकप्रियता का कारण यह भी रहा कि यह नई तरह की कविता थी. उस दौरान हिंदी क्षेत्र की नई पीढ़ी और युवा-वर्ग के लिए नशा और आलिंगन जैसे शब्द बिल्कुल नए थे. मधुशाला ने इन शब्दों को व्यवहारिकता में लाने का काम भी किया.

उस दौर के लोगों को छायावाद बहुत समझ में नहीं आता था और देशभक्ति से ओत-प्रोत रचनाएं चारों तरफ गुंजतीं थी. छायावाद और राष्ट्रवाद के बीच एक खाई थी. मधुशाला ने इसको सफलतापूर्वक भरा. कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि इस रचना में मौलिकता की कमी थी, कंटेट का भी दोहराव था.

लेखक मंगलेश डबराल दिप्रिंट से बातचीत में बताते हैं, ‘मधुशाला एक साधारण, मनोरंजक लेकिन एक सेकुलर कविता थी.’ ‘बैर कराते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला.’

आम लोगों के कवि

मिलन यामिनी, प्रणय पत्रिका, निशा निमंत्रण, दो चट्टानें जैसी दिल को अंदर तक झकझोर देने वाली रचनाएं लिखने वाले बच्चन, इंसान को अपने जीवन में आने वाले निराशा के क्षण को किस तरह से खुशी-खुशी अपनाना चाहिए इसकी भी प्रेरणा देते हैं. तेरा हार, एकांत संगीत, आकुल अंतर, सतरंगिनी, हलाहल, बंगाल का काल, सूत की माला, खादी के फूल, प्रणय पत्रिका जैसी सामान्य बोलचाल की भाषा की कविताओं से वे अपने पाठकों और श्रोताओं के काफी निकट आ गए थे.

रात आधी हो गई है
दे रही कितना दिलासा
द्वार से आकर जरा सा
चांदनी पिछले पहर की
पास आ जो सो गई
रात आधी हो गई है

मंगलेश डबराल के शब्दों में, ‘हरिवंश राय बच्चन की रचनाएं छायावाद और नई कविता के बीच अपना स्थान बनाती हैं. वे साधारण लोगों की संवेदनाओं को समझते थे, और पहले से चली आ रही क्लिष्ट भाषा की कविताओं के मिथक को तोड़ते हुए आम बोल-चाल वाली कविताओं को प्रचलन में लाने का श्रेय भी बच्चन को ही जाता है.’

सुपरस्टार के पिता थे रॉकस्टार

हरिवंश राय बच्चन एक कवि होने के साथ-साथ सदी के महानायक की ख्याति प्राप्त अमिताभ बच्चन के पिता भी थे. उनकी कविताएं इतनी सरल और यथार्थ होती थी कि लोग उनके दीवाने थे. वे जब मधुशाला का सुर छेड़ते तो लोग अपनी सुध-बुध तक खो देते थे. क्या बच्चा, क्या महिला, युवा, बुढ़ा हर कोई उनके पीछे पागलों की तरह भागता था, मधुशाला का नाम सुनते ही भीड़ लग जाती थी.

इस लोकप्रियता को बच्चन भी अच्छे से भांप चुके थे और उन्होंने कवि सम्मेलनों में पारिश्रमिक की परंपरा जोड़ी. तर्क था कि जब हर किसी को उसका मेहनताना मिलता है, तो बेचारा कवि इससे पीछे क्यो रहे. पारिश्रिमक की राशि 100 रुपये और यात्रा किराया से शुरू हुई. समय बढ़ता गया और कविताओं की डिमांड बढ़ती गई. मंच पर होने वाला कविता पाठ और गायन की परंपरा को गोपालदास ‘नीरज’ और अन्य कवियों ने आगे बढ़ाया, लेकिन इस बात को भूला नहीं जा सकता कि इन सबके जनक बच्चन ही थे.

उन्हें रचना ‘दो चट्टानें’ के लिए 1968 में हिन्दी कविता का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. साहित्य के क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदान के लिए बच्चन को 1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. 18 जनवरी 2003 को हरिवंश राय बच्चन इस दुनिया को अलविदा कह गए. लेकिन वो छोड़ गए ऐसी विरासत, जिसे सदियों तक हर कोई दिल के किसी कोने में सहेज कर रखना चाहेगा.
हरिवंश राय की याद में उन्हीं की कविता ‘जो बीत गई सो बात गई‘ की चंद पंक्तियां.

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहां मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

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