पिछड़ी जाति—जो कि चतुष्पदीय वर्ण-व्यवस्था में चौथा पायदान है—के एक सदस्य के रूप में मोदी ने उस पार्टी पर सफलतापूर्वक नियंत्रण कर लिया, जिसे कभी दीर्घकाल तक उच्च जाति के वर्चस्व वाला राजनीतिक आंदोलन एवं दल कहा जाता था. आर.एस.एस. को हमेशा ही एक ब्राह्मण-वर्चस्व वाले संगठन के रूप में देखा जाता रहा है, यद्यपि आर.एस.एस. पर ब्राह्मणवादी पकड़ निरंतर क्षीण होती गई है.
भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक ब्राह्मण थे. मोदी के आगे आने तक उसके अत्यंत लोकप्रिय नेता लालकृष्ण आडवाणी एक सिंधी उच्च जाति लोहाना से आते हैं. अनुसूचित जाति के बंगारू लक्ष्मण को छोड़कर उसके अधिकतर पार्टी अध्यक्ष उच्च जातीय थे. मोदी ने इस उच्च जातीय आधार में तूफान मचा दिया और पार्टी के भाग्य को बदल दिया. अतः, यदि मोदी के कुलीनवाद-विरोध में जातिवादी स्पर्श है तो किसी को हैरान नहीं होना चाहिए. जाति एक ऐसी पहचान है, जिसके माध्यम से कुलीनवाद एवं सामाजिक वर्चस्व ने लंबे समय से भारत में अपना प्रसार किया है. लोकतांत्रिक भारत में भी यह राजनीतिक सत्ता का वाहन बन गया है.
इसके उद्गम एवं उद्देश्य चाहे जो भी रहे हों, जाति प्रणाली पारंपरिक तौर पर श्रेष्ठतावादी थी. उच्च जातियों को सत्ता की तीन संकल्पनाओं—विचारधारात्मक या ज्ञान (ब्राह्मण), सैन्य एवं राजनीतिक (क्षत्रिय) और आय एवं धन (वैश्य) के रूप में परिभाषित किया गया था. निम्न/पिछड़ा शूद्र वर्ग किसानों सहित कामकाजी लोगों की बड़ी शृंखला को आच्छादित करता है. मोदी की जाति ‘तेली’ है, जो तेल पेरनेवालों का समुदाय है.
पिछड़े समूहों के नीचे अछूत आते हैं, जिनसे तुच्छ काम कराया जाता है और आदिवासी समुदाय है, जो जंगलों में रहता रहा है. जातीय उच्च-पदस्थता में वे बाहर बने रहते हैं. इस प्राचीन प्रणाली के सामाजिक श्रेणीकरण में ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों का सत्ता के राजनीतिक व सैन्य तथा सांस्कृतिक संस्थानों में वर्चस्व रहा है. वैश्य समुदाय ने ‘सत्ता कुलीनों’ में प्रवेश एवं अवतरण केवल पश्च-सामंती भारत में किया, जिसमें धन बड़े पैमाने पर सत्ता-प्राप्ति एवं उसके उपयोग का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन गया. ग्राम्य समुदाय से लेकर राष्ट्रीय सरकार तक प्राचीन जाति उच्च-पदस्थता आधारित सत्ता के ढाँचे को निरंतर परिभाषित करती आई है.
संपूर्ण इतिहास में जाति प्रणाली की उच्च-पदस्थता प्रकृति कुलीनवाद एवं सत्ता की सामाजिक नींव रही है. समूचे उपमहाद्वीप में जातियों की बनावट में सचमुच अनेक क्षेत्रीय भिन्नताएँ हैं और भारत में व्यवहृत गैर-हिंदू धर्मों में भी जातीय पहचान ने प्रवेश कर लिया है. बहरहाल, यह कल्पना करना कि भारत में ‘सत्ता कुलीन’ की बनावट एवं ढांचे का जाति प्रणाली उपहास करती है, एक बड़ी भूल होगी. निश्चित तौर पर, उच्च जातियां सभी बड़े संस्थानों में बसी हुई हैं और उन पर उनका वर्चस्व है. कुलीनवाद सामाजिक उच्च-पदस्थता के विचार में ही निहित है, जो संयोगवश व्यक्ति के जन्म पर आधारित है; क्योंकि किसी का जन्म किसी-न-किसी जाति में अवश्य होता है और उसके पास ‘उच्च’ जाति में स्नातकत्व का कोई विकल्प नहीं होता है.
बहरहाल, राजनीतिक सत्ता का जातीय आधार और वस्तुतः उससे संबंधित आर्थिक सत्ता विस्तृत होकर अनेक अन्य जातियों को भी अपने में शामिल करने लगी है, जिसे ‘माध्यमिक’ जातियों की संज्ञा दी जा सकती है. पोलैंडवासी अर्थशास्त्री माइकल कालेकी का धनी किसानों, सरकारी कर्मचारियों, लघु कारोबारियों और मध्य वर्गों का वर्गीकरण अनिवार्यतः उच्च जातियों से संबंधित नहीं है.
दरअसल, समय के साथ-साथ वे बड़े पैमाने पर मध्यम जातियों से आए हैं, जिन्हें भारत में ओ.बी.सी. (अन्य पिछड़ी जाति) के रूप में जाना जाता है. जैसा कि समाज-विज्ञानी डी.एल. शेठ ने लिखा है—“पारंपरिक (जाति) स्तर प्रणाली अब चुनावों, राजनीतिक दलों एवं सर्वोपरि सामाजिक नीतियों द्वारा रचित एक नई सत्ता-प्रणाली द्वारा सघनता से मढ़ी हुई है. इसमें एक ओर राज्य का स्वीकारात्मक कृत्य (अफर्मेटिव ऐक्शन) और दूसरी ओर समाज के व्यावसायिक ढाँचे में परिवर्तन शामिल है.” आर्थिक एवं राजनीतिक सशक्तीकरण ने अनेक प्रादेशिक उपजातियों को जातीय उच्चता के भीतर अपने उच्च स्तर का दावा करने की अनुमति प्रदान की है.
अन्य पिछड़ी जातियों का राजनीतिक प्रभाव तब सामने आया, जब 1980 के दशक में ‘मंडल राजनीति’ के युग में कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व का लंबा युग समाप्त होने को आया. तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस निर्णय के बाद कि वे सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करेंगे, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) नेताओं ने राष्ट्रीय राजनीति में केंद्रीय स्तर प्राप्त कर लिया.
कर्नाटक के एच.डी. देवगौड़ा पहले ओ.बी.सी. प्रधानमंत्री बने, जिन्होंने वर्ष 1996-97 में एक अल्पकालिक गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया. सन् 1979 में गठित मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1983 में पेश की थी; परंतु उसे केवल 1990 में लागू किया गया, जब प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने शैक्षणिक संस्थानों एवं सरकारी संगठनों में तथाकथित ओ.बी.सी. का आरक्षण बढ़ाने का निर्णय लिया. पिछड़ी जातियों को अब अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) कहा जाने लगा, ताकि उन्हें संवैधानिक रूप से मान्यता-प्राप्त कमजोर वर्गों, नामतः अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों (एस.सी./एस.टी.) से अलग किया जा सके.
मोदी अन्य पिछड़ा वर्ग को भाजपा के पाले में लाकर उसका समर्थन आधार बढ़ाने में सफल रहे. ऐसा करने में उन्होंने सत्ता के उसी मार्ग का अनुसरण किया, जिसे उन्होंने अपने गृह राज्य गुजरात में आजमाया था, जहाँ उनकी पार्टी की शक्ति इसी ओ.बी.सी. समर्थन के आधार पर बढ़ी थी. सिख समुदाय के सदस्य मनमोहन सिंह के एकमात्र अपवाद को छोड़कर अन्य अधिकतर प्रधानमंत्री हिंदू ‘उच्च जातियों’ से संबंधित थे; जबकि मोदी ने अमित राजनीतिक शक्ति अपने राजनीतिक कौशल से प्राप्त की थी और उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में एक चतुर युक्तिक गतिविधि के रूप में अत्यंत केंद्रीकृत प्रशासन चलाया.
उन्होंने प्रमुख मंत्रालयों—वित्त, गृह, रक्षा, विदेश मामले एवं मानव संसाधन विकास—को उच्च जाति के राजनीतिज्ञों, विशेषतया ब्राह्मणों, के हाथों में देने का निर्णय लिया. मोदी के प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके दोनों प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्र एवं पी.के. मिश्र ब्राह्मण थे. जबकि अपनी पार्टी की तरह मोदी की राजनीति भी अधिकतर अन्य राजनीतिक दलों की भाँति जाति-आधारित राजनीति के विपरीत विकास एवं अखिल भारतीय ‘हिंदू’ मतदाताओं को मजबूत बनाने की रही है. चुनाव पूर्व की राजनीतिक गतिविधियों के अंतर्गत वे अपने ओ.बी.सी. परिचय को सशक्त तरीके से सामने रखने में जरा भी नहीं हिचके. उनकी इसी रणनीति ने उनकी कुलीन-विरोधी एवं लुटियंस दिल्ली-विरोधी छवि को चमकाने में सहायता की.
( ‘सत्ता के गलियारे से’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 500₹ की है.)