ईरान के इस्लामिक रिपब्लिक द्वारा हिजाब थोपे जाने के खिलाफ वहां की मुस्लिम महिलाएं के विरोध प्रदर्शन को भारत समेत दुनिया भर से समर्थन मिला है. लेकिन कर्नाटक और अन्य जगहों पर हिजाब पहनने के अपने अधिकार के लिए भारतीय मुस्लिम महिलाओं की लड़ाई को कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. ईरानी और भारत की मुस्लिम महिलाओं का यह विरोध-प्रदर्शन पूरी तरह से उनकी ‘च्वॉइस’ और अपने शरीर पर नियंत्रण वापस पाने की लड़ाई है. हालांकि, दोनों देशों के इस विरोध ने जो दिशा ले ली है, उसमें काफी फर्क है.
भारत में हिंदू संगठनों की हिजाब के खिलाफ खड़ी की गई मुहीम का मुस्लिम महिलाओं के आंदोलनों और समुदाय के भीतर की गई अब तक की प्रगति पर काफी निगैटिव असर पड़ा है.
कुछ मुस्लिम महिलाओं से मेरी इस बारे में बातचीत हुई जिसमें उनका कहना है कि हिंदू संगठनों द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाने और मद्दों का राजनीतिकरण-सांप्रदायीकरण करने से मुस्लिम समुदाय के भीतर हिजाब थोपने या पितृसत्ता के खिलाफ उनके संघर्ष को नुकसान हुआ है. मुस्लिम महिलाओं का कहना है कि अब उन्हें अपनी पहचान और धर्म पर बढ़ते हमले के कारण हिजाब पहनने के बारे में ज्यादा मुखर होने की जरूरत महसूस हो रही है. वर्ष 2014 में केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद से इन हमलों में इजाफा हुआ है.
जकिया सोमन, महिला अधिकार कार्यकर्ता और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की संस्थापक ने कहा, ‘मुस्लिम महिलाएं वर्ष 2019 में ट्रिपल तलाक के खिलाफ सामने आईं थीं. लेकिन जिस तरह से बीजेपी का हमला मुस्लिम समाज पर बढ़ा है उससे मुस्लिम महिलाओं के इस तरह के आंदोलनों पर गहरा असर पड़ा है. अभी आप पॉलिगामी (बहुविवाह) जैसे मुद्दों पर सवाल नहीं उठा सकते या आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते हैं क्योंकि अभी जिंदा (सर्वाइवल) रहने पर ही का सवाल खड़ा हो गया है.’
इससे पहले तक भारत में मुस्लिम महिलाएं हिजाब, ट्रिपल तलाक, पॉलिगामी जैसे मुद्दों के खिलाफ खुलकर चर्चा कर रहीं थीं और टीवी डिबेट में भी हिस्सा ले रही थीं. हिंदू संगठनों के बढ़ते हमलों ने मुस्लिम महिलाओं को हिजाब को उनकी पहचान के रूप में देखने को मजबूर किया है. और इस महिलाओं को धार्मिक पहचान की तरफ धकेल दिया है. मुस्लिम महिलाएं पहले हिजाब को पितृसत्ता के प्रतीक और इसके इस्लाम में अनिवार्य होने पर चर्चा कर रहीं थीं.
कार्यकर्ता और बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां साफिया नियाज ने मार्च में एक इंटरव्यू में पत्रकार नमिता कोहली से कहा, ‘नारीवादियों ने पर्दे, घूंघट के पीछे पितृसत्तात्मक, स्त्री विरोधी तर्क पर सवाल उठाए हैं. हम हिजाब को पहचान या समुदाय के मामले में सीमित नहीं कर सकते हैं. बिल्कुल, किसी की पहचान का दावा करने के अन्य तरीके भी हैं. इस्लाम के लिए हिजाब अनिवार्य है, यह भी धर्म की सतही, न्यूनतावादी समझ है.’
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कई मोर्चों पर हारे लड़ाई
मुस्लिम महिलाओं के लिए भारत में हिंदुत्व संगठन ही सिर्फ एक चुनौती नहीं हैं जिसका सामना वो कर रही हैं, फेमिनिस्ट भी हिजाब के मुद्दे पर बंटती हुई नजर आ रही हैं. कुछ फेमिनिस्ट का कहना है कि हिजाब को मुस्लिम महिलाओं की पहचान से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. वहीं, दूसरा तर्क यह है कि जिस तरह से हिंदुत्व ताकतें अभी मुस्लिम पहचान को निशाना बना रही हैं, उससे लड़ने की जरूरत है.
My women rights friends,
I have seen your statements, read your articles.
I am not fighting to safeguard the hijab. Period.
Refuse to become a pawn between the Hindu Right and the Muslim Right.
Hijab is neither my identity, nor my pride , and not my dignity.
— Shabnam Hashmi (@ShabnamHashmi) February 8, 2022
1) None of us “fighting to safeguard the hijab” Shabnam. You may believe women are wearing it tks to “constructed consent”; question is, will we welcome saffron-clad thugs and the fascist state to rip it off women under threat of denial of entry into college campuses?
— Kavita Krishnan (@kavita_krishnan) February 10, 2022
एक तबका हिजाब के इस्लाम में अनिवार्य होने के सवाल पर भी विमर्श कर रहा है.
एक तरफ कर्नाटक सरकार का मुस्लिम लड़कियों के स्कूल में हिजाब पहनने पर बैन लगाने का फैसला है, जिसे हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा. दूसरी तरफ जमीयत उलेमा-ए-हिंद है, जिसने इस बैन को असंवैधानिक बताते हुए विरोध किया और तर्क दिया कि इस्लाम में हिजाब पहनना अनिवार्य है.
इन सबके बीच फंसी मुस्लिम महिलाएं अपने परिवार में रुढ़िवाद और पितृसत्ता के खिलाफ भी लड़ रही रही हैं और पढ़ाई से भी वंचित हैं. उनकी यह लड़ाई हिंदू संगठनों द्वारा पहचान पर किए गए हमलों के कारण और कमजोर हो जाती है. इस तरह से हिंदू संगठनों ने समाज में न सिर्फ अपना वर्चस्व मजबूत किया है बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर भी पितृस्ता को मजबूत करने का काम किया है.
जाकिया सोमन का कहना है कि हिजाब पितृसत्ता का प्रतीक है और महिलाओं ने इसके खिलाफ लड़ाई जारी रखी है. लेकिन हिंदू संगठनों ने हिजाब और अन्य मुस्लिम महिलाओं के आंदोलनों के लाभ को उलट दिया है और मुस्लिम महिलाओं के हिजाब विरोधी मुहीम को नुकसान पहुंचाया है. पहले वे हिजाब को अनिवार्य रूप से पहनने के खिलाफ चर्चा कर रहे थीं लेकिन अब वे इसे अपनी धार्मिक पहचान के रूप में स्वीकार कर रही हैं.
मुस्लिम महिलाएं पहले ही इस्लाम में निहित उनके अधिकार से वंचित हैं, अब उनके मुद्दों का राजनीतिकरण और सांप्रदायिकरण करने का मतलब है कि उन्हें संवैधानिक अधिकारों से भी महरूम कर दिया जाए.
व्यक्त विचार निजी हैं.
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