भारत के पास बहुत कुछ है जिस पर गर्व किया जा सकता है और जिसका जश्न मनाया जा सकता है, मगर बहुत कुछ ऐसा भी है जो गलत है, खतरनाक दिखता है और हमें याद दिलाता है कि हड़बड़ी में सब कुछ जीत लेने के दावे करने के क्या खतरे हैं.
राजनीतिक खेमों में सबसे ताकतवर जो खेमा है वह इस जोश में है कि भारत आज जितना खुशहाल है, उतना इतिहास में कभी नहीं था. हमारी अर्थव्यवस्था इतनी शानदार हालत में है कि कुल जीडीपी के मामले में ताकतवर ब्रिटेन को भी हमने पीछे छोड़ दिया है जिसने कभी हमारे ऊपर राज किया था. हमारे बाजार बम बम कर रहे हैं; डॉलर के मुक़ाबले दूसरे देशों की मुद्राएं जितनी कमजोर हुई हैं, हमारा रुपया उन सबसे कम ही कमजोर पड़ा है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, और इन्वेस्ट इंडिया, ये सब हमारे आर्थिक उत्कर्ष की मिसाल हैं.
नासमझ विश्व बैंक वालों को हमारी आर्थिक वृद्धि दर के अनुमानों में कटौती करके बेशक उसे 6.5 प्रतिशत बताने दीजिए. इसके बावजूद, तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की दरों के मुक़ाबले यह सबसे ऊंची दर रहेगी. आर्थिक वृद्धि, बौद्धिक विचारों, और नैतिकता का जबकि चारों ओर अकाल पड़ा है, इस रेगिस्तान में दुनिया को भारत एक नखलिस्तान नजर आ रहा है.
दूसरे क्षेत्रों में को भी देख लीजिए. हमारी सेना का इतनी तेजी से आधुनिकीकरण कभी नहीं हुआ, हमारे दुश्मन पहले कभी हमसे इतना खौफ नहीं खाते थे, और यह उत्कर्ष खेलों में हमारे अभूतपूर्व प्रदर्शनों में प्रतिबिंबित हो रहा है. आज हम जितने मेडल जीत रहे हैं उतने पहले कभी नहीं जीते थे. कई भारतीय आज आला बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ बन रहे हैं. दुनिया भर में भारत की धूम है. संक्षेप में, ऐसा बल्ले बल्ले वाला मूड पहले कभी नहीं था.
इस सुखद कहानी के सिलसिले को तोड़ना यहां जरूरी हो जाता है. ऊपर मैंने जिन तमाम ‘उपलब्धियों’ का जिक्र किया है उनके साथ मैंने कोई उद्धरण चिन्ह या विराम चिन्ह या विस्मय बोधक चिन्ह का प्रयोग नहीं किया है. इसकी वजह यह है कि इस सप्ताह मैं तथ्यों की जांच नहीं करने जा रहा हूं. न ही मुझे इस बात का डर है कि मुझे ‘नकारात्मकता के गप्पबाजों’ में शुमार कर दिया जाएगा. इसकी वजह यह है कि मेरा पूरा इरादा खेल का खुलासा करने का है.
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इन तमाम काल्पनिक और वास्तविक उपलब्धियों की असलियत और तथ्यों की जांच करने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि व्यापक राष्ट्रीय सोच, तौर-तरीके और शैली के साथ जुड़े जो जोखिम हैं उनके बारे हम चेत जाएं. यहां मैं उनमें से चार का जिक्र करूंगा—
हम भारतीयों की जो मानसिकता है उसे मैं ‘बारात की घोड़ी’ की मानसिकता कह सकता हूं. उत्तर भारत में बारातों में दूल्हे के लिए सजने वाली घोड़ी हर 50 गज पर रुक जाया करती है और तभी आगे बढ़ती है जब बारातियों का झुंड उसके सामने नाचता है. हम निरंतर, स्वतः, अपनी प्रेरणा से काम करने में यकीन नहीं रखते. सम्मानित अपवादों की बात अलग है. मुझे मालूम है कि यह सब कहने के लिए आप मुझसे नफरत करेंगे. लेकिन हमारे व्यवसायों और कामकाज की उत्पादकता दर को देख लीजिए. खास तौर से मैन्युफैक्चरिंग की हालत देखिए.
अक्सर हम यह सोचते हैं कि हम दूसरों का काम बेहतर तरीके से कर सकते हैं. क्या हम यह नहीं सोचते कि हम भारतीय क्रिकेट टीम के कोच या चयनकर्ता का काम बेहतर तरीके से कर सकते हैं? पारिवारिक जमावड़ों में कोई-न-कोई ऐसा जरूर सामने आ जाएगा जो आपको आपकी बीमारी से उबरने के सौ नुस्खे बता देगा, भले ही उसने डॉक्टरी की कोई पढ़ाई नहीं की होगी. असली डॉक्टर पार्टियों में आपको कभी इस तरह की सलाह नहीं देंगे, वह भी मुफ्त में. पढ़े-लिखे हरेक डॉक्टर पर 10 आदमी ऐसे जरूर मिल जाएंगे जिन्हें यह विश्वास होगा कि वे डॉक्टर से अधिक जानकारी रखते हैं.
सेना सोचती है कि वह पुलिस का काम अच्छी तरह कर सकती है, तो पुलिस सोचती है कि वह सेना का काम बेहतर तरीके से कर सकती है. और सरकारी अधिकारी सोचते हैं कि वे हर किसी का काम शानदार तरीके से कर सकते हैं. अगर आपने वैसी समाचार मीडिया कंपनियों में काम किया होगा जैसी कंपनियों में मैं कर चुका हूं, तो आपको पता होगा कि हम पत्रकार लोग अगर मार्केटिंग और सेल्स के बॉस होते तो हालत कहीं बेहतर होती. और मार्केटिंग और सेल्स वाले सोचते हैं कि वे अगर संपादक होते तो दुनिया और बेहतर होती.
पुरानी कहावत है कि जीत को हार में बदल दिया, या हार को जीत में बदल डाला. दूसरों की हार को चुराने का खास गुण हम भारतीयों में है. कई वर्षों से, आर्थिक सुधारों को लेकर आम आशंकाएं यह रही हैं कि इनके खतरे बहुत हैं. आपने स्टीग्लिज को नहीं पढ़ा? (यह सवाल मैंने ज्योति बसु से सुना था जब मैं ‘वाक द टॉक’ के लिए उनका इंटरव्यू ले रहा था). या यह भी कि पिकेटी को नहीं पढ़ा? हकीकत यह है कि ये शिकायतें फ्री मार्केट की दशकों की कथित ‘ज्यादती’ के बाद उभरीं, और इससे फर्क नहीं पड़ता कि हमने वैसी ज्यादती एक वित्त वर्ष में भी नहीं झेली है.
अगर हमने अपनी अर्थव्यवस्था को एक दशक तक उस तरह चलाया होता कि उसकी कहानी भी पिछले दशकों में उभरी सफलता की कहानियों जैसी होती, तब हमने जरूर ऐसी विसंगतियां, असंतुलन और शिकायतें पैदा की होती कि हमारे यहां के पिकेटी भी शिकायतें कर सकते थे. लेकिन हम बौद्धिक रूप से इतने सुस्त हैं कि हमने एक अमेरिकी और एक फ्रेंच बौद्धिक की शिकायतों को उधार में अपना लिया और वह भी उनकी किताबें पढ़े बिना. इसे ही दूसरों की विफलता को अपनाना कहते हैं.
हमारे सोच का चौथा सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है— समय से बहुत पहले अपनी जीत की घोषणा करने का लालच. आज यही मूड हावी हो रहा है. इसे हम पहले भी देख चुके हैं. इंदिरा गांधी के दौर में ऐसा दो बार हो चुका है, तब भी जब हमारी वायुसेना का एक पायलट सोवियत रॉकेट पर मुफ्त सवारी करके अंतरिक्ष यात्री बन गया था. या आप राजीव गांधी के ‘मेरा भारत महान’ और दुनियाभर में भारत महोत्सवों की आयोजन को याद कीजिए, या फिर अटल बिहारी वाजपेयी के ‘इंडिया शाइनिंग’ या ‘भारत उदय’ को देखें, या 2007 में यूपीए के अभियान को देखें. स्वघोषित विजय की सुर्खियां उस साल दावोस में ‘इंडिया एवरीव्हेयर’ सप्ताह के तहत उभरी थीं. आज हम उसी दौर में पहुंच गए हैं, दोगुने जोश-खरोश के साथ.
खुशहाल भारतीयों ने तमाम क्षेत्रों में विजय की घोषणा कर दी है— हवाई अड्डों से लेकर बैंकों और इंटरनेट की बेहतरी तक, मुद्रा की मजबूती से लेकर वैक्सीन लगवाने वालों की संख्या तक और लड़ाकू हेलिकॉप्टर से लेकर नयी सुपर फास्ट ट्रेनों तक तमाम क्षेत्रों में.
हम आदतन उसी पसंदीदा जाल में फंसते जा रहे हैं, वक़्त से बहुत पहले अपनी जीत घोषित करने के लालच में. मध्ययुगीन लड़ाइयों से लेकर कोहली युग से पहले क्रिकेट मुकाबलों में रनों के लक्ष्य का पीछा करने के इतिहास तक; 1991, 2003, 2007 में आर्थिक वृद्धि के मामले में ऐंठनों, और इनमें से हरेक के बाद आई गिरावट से लेकर हॉकी मैच में 3-1 की बढ़त रखने के बावजूद अंतिम दो-तीन मिनट में तीन गोल खाकर मैच गंवाने तक हारने का हमारा रेकॉर्ड काफी लंबा रहा है, और दुर्भाग्य से अटूट भी रहा है.
लेकिन आज का जो जोश है वह बिलकुल अलग ही किस्म का है. यह एक काफी लोकप्रिय और विचारधारात्मक आधार वाला है. बल्ले बल्ले वाला यह मूड पूरे मंत्रिमंडल का प्रमुख नीतिगत लक्ष्य बन गया है, तो ऐसे में चेतावनी की घंटी बजाने के लिए कौन बचता है? माहौल ऐसा है कि राष्ट्रमंडल खेलों में किसी भी प्रतियोगिता में ब्रॉन्ज मेडल मिल गया तो उसे अभूतपूर्व राष्ट्रीय उपलब्धि मान कर उसका जश्न मनाया जाता है, चाहे इन खेलों में इससे पहले हमने कहीं ज्यादा मेडल क्यों न जीते हों.
और इस तथ्य से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि राष्ट्रमंडल खेलों को अंतरराष्ट्रीय खेलों में कोई खास महत्व नहीं दिया जाता. खेलों के सुपर पावर माने जाने वाले ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड और यहां तक कि कैरिबियाई द्वीपों वाले देश भी राष्ट्रमंडल खेलों की ‘ट्रैक ऐंड फील्ड’ प्रतियोगिताओं और दूसरे कई खेलों में अपनी टॉप टीमों को नहीं भेजते. उनमें कोई उसैन बोल्ट नहीं भाग लेते. और जिन प्रतियोगिताओं- बॉक्सिंग, टेबल टेनिस, वेटलिफ्टिंग- में राष्ट्रमंडल खेलों के अधिकतर मेडल जीतते हैं उन खेलों के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी राष्ट्रमंडल देशों में नहीं रहते. वास्तव में, एशियाई खेल राष्ट्रमंडल खेलों से कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण हैं.
खेलों में अपने गौरव के बिना सोचे-समझे अवांछित दावे करना बड़ी कमजोरी का ही लक्षण है. 6.5 या 7 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मान कर हम भले खुश हो लें, पांच साल का औसत निकालें तो हमारी आर्थिक वृद्धि दर मात्र 3.5 फीसदी ही निकलेगी. आप लॉकडाउन वाले साल का बहाना ले सकते हैं, लेकिन उससे पहले ही यह दर 5 फीसदी से नीचे गिर चुकी थी. इसलिए, जरूरत काम करने की है, न कि अपनी विजय का ढिंढोरा पीटने की.
रोजगार, चालू खाते का घाटा, ग्रामीण क्षेत्र में संकट, कृषि पैदावार, सब गहरे संकट में हैं. 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दिया जा रहा है और सरकार इसे बंद करने को राजी नहीं है, हालांकि महामारी एक साल पहले ही खत्म हो चुकी है और आपको मालूम होना चाहिए कि इतने लोगों को बड़ी कुशलता से इतना मुफ्त अनाज बांटा जा रहा है फिर भी मनरेगा में काम मांगने वालों की संख्या अधिकतम स्तर पर है. देश पर बाहरी खतरे का संकट सबसे गहरा है, चीन का दबाव कायम है और यह पश्चिम की ओर हमारी पहुंच को बाधित कर रहा है.
काफी बड़ी बातें हुई हैं, गर्व करने और जश्न मनाने के कई कारण हैं. भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर का काफी तेजी से निर्माण हो रहा है, दिवालिया घोषित करने के कानून और जीएसटी बड़े सुधार हैं. लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी है जो गलत है और जो समय से पहले जीत की घोषणा करने के खतरों की याद दिलाता है. खुद को आईना दिखाना खेल को खराब करना नहीं माना जाना चाहिए.
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