नई दिल्ली: 17 दिसंबर 2018 को ट्रांसजेंडर विधेयक (सुरक्षा और अधिकार) 2016, 27 संशोधनों के साथ लोकसभा में पास हो गया. अब यह विधेयक राज्यसभा में पारित होने के लिए लंबित है. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि यह विधेयक 27 दिसंबर के बाद कभी भी राज्यसभा में पारित हो सकता है.
इस विधेयक को लेकर ट्रांसजेंडर समुदाय में नाराज़गी है. ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग इस विधेयक का देश भर में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. विरोध का मुख्य कारण है कि इससे 2014 का सुप्रीम कोर्ट का नाल्सा जजमेंट बेमानी हो जाएगा.
क्या है नालसा जजमेंट
ट्रांसजेंडर समुदायों का मानना है कि 15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पास हुआ नालसा जजमेंट उनकी दशा और दिशा सुधारने के लिए एक ऐतिहासिक फैसला था. इस फैसले से ट्रांसजेंडर समुदायों को पहली बार ‘तीसरे जेंडर’ के तौर पर पहचान मिली. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ट्रांसजेंडर समुदायों को संविधान के मूल अधिकार देता है. इसे देश में लिंग समानता की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है. इसमें ट्रांसजेंडर की परिभाषा से लेकर उनके अधिकार और उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का पूरा उपाय है.
विधेयक के किन प्रावधानों से है दिक्कत
ट्रांसजेंडर विधेयक(सुरक्षा और अधिकार) 2016, से ट्रांसजेंडर समुदाय को सबसे बड़ी दिक्कत इस बात से है कि यह उनको शिक्षा और रोज़गार में किसी प्रकार का विशेष आरक्षण दिए बिना ही उनके भीख मांगने को रोक लगाते हुए उसे अपराध की श्रेणी में डाल देती है.
अशोका युनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर और ट्रांसमैन बिट्टू कार्तिक कहते हैं, ‘इस विधेयक में हमें शिक्षा या रोज़गार में आरक्षण के अंदर आरक्षण दिए बिना ही हमसे हमारा हक छीना जा है, जो कि हमारे मूलभूत अधिकारों का हनन है. ’
अगर नाल्सा जजमेंट के हिसाब से देखा जाए तो ट्रांसजेंडर समुदाय को ओबीसी आरक्षण देने की बात कही गई है तो क्या ट्रांसजेंडर समुदाय भी ओबीसी आरक्षण चाहता है. इस पर बिट्टू आगे कहते हैं, ‘हमें केवल ओबीसी कैटेगरी में ही नहीं, हमें हर कैटगरी में कुछ परसेंट आरक्षण दिया जाए. हर जाति वर्ग में लिंग के आधार पर दो प्रतिशत ट्रांस लोगों को आरक्षण मिले.’
लोकसभा में पारित हो चुके इस विधेयक से जुड़ी दूसरी दिक्कत है यह ट्रांसजेंडर समुदाय के निजी अधिकारों को खत्म करता है. नए विधेयक के अनुसार ट्रांस व्यक्तियों को एक सर्टिफिकेट लेना पड़ेगा. ये सर्टिफिकेट डीएम जारी करेगा. एक स्क्रीनिंग कमेटी डीएम को हर व्यक्ति के लिए रिकमेंडेशन जारी करेगी. कमेटी में एक मेडिकल ऑफिसर, सायक्लॉजिस्ट, सरकारी अफसर और एक ट्रांसजेंडर शामिल होगा.
इस पर ट्रांसमेन शहनवाज़ कहते हैं, ‘स्क्रीनिंग कमेटी कौन होती है यह निर्णय लेनी वाली कि मेरा लिंग क्या है. यह मेरे पर्सनल च्वाइस है कि मैं अपने आप को किस जेंडर के तौर पर पहचाने जाना चाहूंगी. अपनी शारीरिक पहचान के लिए किसी अन्य व्यक्ति से सर्टिफिकेट लेना मेरे लिए अपमानित होने जैसा है.
ट्रांसमेन सारांश के अनुसार जब नाल्सा जजमेंट आया था तो वह बहुत खुश थे. लेकिन यह नया विधेयक उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं. डीएम के सामने जाकर एप्लीकेशन देना और उसके बाद अपने लिंग के प्रमाण के लिए स्क्रीनिंग कमेटी के सामने पेश होना जो कि आपको पहले ट्रांस बताएंगे, पुरुष या महिला नहीं. कोई सर्जरी मुझे नहीं बदल सकती. और जिनके पास सर्जरी कराने को पैसे नहीं, वह ट्रांसजेंडर से पुरुष या महिला बनने का इंतज़ार नहीं कर सकते.
ट्रांसजेंडर की लिंग परिवर्तन कराने वाली सर्जरी में आने वाला खर्च भी एक अहम समस्या है. पूरे देशभर की बात करें तो केवल केरल, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु की सरकार ही इस विषय पर कुछ कार्य करते हुए नज़र आती है. इन राज्यों में कोई ट्रांसजेंडर अगर सर्जरी कराता है तो उसे इसके लिए वहां कि राज्य सरकार दो लाख का आर्थिक मदद करती है. इस विषय पर बिट्टू कहते हैं, ‘अगर कोई ट्रांसजेंडर सर्जरी कराने की इच्छा रखता है तो उसका पूरा खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाना चाहिए. यह बात विधेयक में शामिल की जानी चाहिए’.
वहीं इस विषय पर मुंबई की ट्रांसवुमन रेणुका कहती हैं, ‘किसी ट्रांसजेंडर को सर्जरी कराने पर आप ज़ोर नहीं दे सकते. यह उनकी अपनी इच्छा पर छोड़ देना चाहिए. क्योंकि सर्जरी कराने से एक ट्रांसजेंडर की आयु घटती है. उसे कम से 24 घंटे एक प्रक्रिया के तहत गुजरना पड़ता है जो कि बेहद संवेदनशील है. इससे उसके अंगों पर भी प्रभाव पड़ता है.’
नए विधेयक से जुड़ी एक दूसरी दिक्कत जुर्म होने पर सज़ा को लेकर है. तेलंगाना हिजड़ा समिति से जुड़ी मीरा के अनुसार, ‘अगर कोई इंसान किसी ट्रांस व्यक्ति से यौन दुष्कर्म करता है तो उसको इस जुर्म के लिए केवल दो साल की सज़ा का प्रावधान है जबकि अगर वही इंसान किसी महिला से दुष्कर्म करता है तो इसके लिए वह सात साल तक दोषी होता है.’
नए संशोधन में क्या है खास
लोकसभा में पारित इस विधेयक ट्रांसजेंडर को एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर परिभाषित किया गया है, ‘जिसका जेंडर उस जेंडर से मेल नहीं खाता है जो उसे जन्म के समय दिया गया है.’ इसके पहले ड्राफ्ट में जो परिभाषा थी वो समुदाय को नागवार थी. इसमें कहा गया था- ‘वो न तो आदमी है और न ही औरत.’
मीरा के अनुसार ये बदलाव सकारात्मक है लेकिन इससे पूरी समस्या का हल नहीं होता. ‘मेरा यही मानना है कि हर व्यक्ति को लिंग पहचान करने का अंतिम अधिकार होना चाहिए.’
क्या हो सकता है इसका समाधान
भारत के सबसे पुराने मानवाधिकार संगठनों में से एक लॉयर्स कलेक्टिव की त्रिपती टंडन ने कहा, मेरी समझ से परे है कि यह लोग ट्रांसजेंडर के हित को लेकर ड्राफ्ट किए गए बेहद ही प्रोग्रेसिव तिरुचि शिवा विधेयक को लोकसभा में लंबित कर के क्यों रखा है. तिरुचि सेवा विधेयक ट्रांसजेंडर समुदाय की समस्या का निदान करता हुआ दिखाई देता है.
तिरुचि शिवा बिल क्या है
ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अधिकारों की गारंटी देने और उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाने के मकसद से द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी से तमिलनाडु के राज्यसभा सांसद तिरुचि शिवा ने 2014 में राज्यसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया था. यह विधेयक एक समान समाज का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाता है. यह ट्रांसजेंडर्स को पहचान के साथ सुरक्षा देते हुए उनकी निजता का भी सम्मान करता है. 2015 में इस बिल को राज्यसभा में पारित किया गया. 45 वर्षो में ऐसा पहली बार हुआ था, जब सदन ने किसी निजी सदस्य विधेयक को मंजूरी दी थी. लेकिन वर्तमान में यह बिल लोकसभा में लंबित है.
त्रिपती आगे कहती हैं, ‘लोकसभा में मंगलवार को पारित हुए ट्रांसजेंडर विधेयक को पारित करने की प्रक्रिया में ही कुछ दिक्कतें हैं. सरकार द्वारा चुने गए कुछ नुमाइंदों ने ही इस विधेयक पर चर्चा की. वह चर्चा दो घंटे से भी कम की थी और उसमे केवल चार सदस्यों ने भाग लिया था. कोई और नहीं सुन पा रहा था. मुझे उम्मीद है कि जब यह राज्यसभा में जाएगा तो वहां के लोग ज़रूर इस विधेयक की संवेदनशीलता के बारे में सोचेंगे. मुझे उम्मीद है कि लोकसभा राज्यसभा की तरह एक रबर स्टैंप नहीं साबित होगी.’