कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) की रविवार को हुई शांत और संयत बैठक हैरान करने वाली रही. गुलाम नबी आजाद के पार्टी छोड़ने और उनके द्वारा राहुल गांधी तथा उनकी नजदीकी मंडली को भला-बुरा सुनाये जाने के ठीक दो दिन बाद हुई इस बैठक से हर कोई थोड़ी सी ‘गहमा-गहमी’ की उम्मीद कर रहा था. आखिरकार, कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने इस तरह विचार के लिए : ‘जीएनए’ज डीएनए हैज बीन मोदी-फाइड’ कहते हुए पर्याप्त मसाला भी दे दिया था. सीडब्ल्यूसी इस नजदीकी मंडली और गांधी परिवार के वफादारों के लिए इससे भी बेहतर कर गुजरने का मंच था.
इसके बजाय, रविवार की बैठक, जिसमें गांधी परिवार के तीनों सदस्य विदेश से ऑनलाइन भाग ले रहे थे, के दौरान मूड काफी उदासी भरा था. उन्होंने अध्यक्ष पद के चुनाव को लगभग एक महीने के लिए टाल दिया. इलेक्टोरल कॉलेज (निर्वाचक मंडल) के अभी अधूरा होने के आधिकारिक कारणों की बात छोड़ दें तो यह गांधी परिवार को राहुल गांधी के भविष्य की योजना बनाने के लिए अधिक समय देता है, तब तक के लिए जब तक कि आजाद के इस्तीफे के द्वारा उठाई गई धूल जम नहीं जाती है.
कांग्रेस नेताओं को अतिनाटकीयता (मेलोड्रामा) काफी पसंद है, खासकर तब जब बात गांधी परिवार की हो. जरा याद करें 2004 के उस पल को जब श्रीमती सोनिया गांधी ने स्वयं के प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया था? जोरों से रोती-कलपती हुई रेणुका चौधरी ने ड्रामा के मामले में अनुभवी अभिनेता गोविंदा को भी कड़ी चुनौती दे डाली थी. जहां गोविंदा ने सोनिया ‘मां’ के सामने ऐसा न करने के लिए बस हाथ ही जोड़े थे, वहीं चौधरी ने उनसे उन सब को ‘अनाथ’ न बनाने के लिए कह डाला था.
फिर बात करते हैं साल 2013 के जयपुर में हुए उस ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) सत्र की जिसमें राहुल गांधी को पार्टी उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया था. यह वही सत्र था जब राहुल ने पावर-इज़-पॉइजन (सत्ता जहर के सामान है) वाला भाषण में यह खुलासा किया था कि कैसी पिछली शाम उनकी मां उनसे मिलने आईं और रो पड़ीं. इसके साथ ही कांग्रेस नेताओं के रोने और सुबकने की आवाज़ ने समूचे बिड़ला सभागार को डुबो कर रख दिया दिया. दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अपने आंसू पोछने के लिए राहुल का रूमाल उधार ले लिया था. जनार्दन द्विवेदी बोलने के लिए उठे और रोने से पहले राहुल को ‘एकलव्य’ कह डाला. अशोक गहलोत भी बार-बार अपने आंसू पोछते नजर आये.
इसके नौ साल बाद, रविवार को हुई सीडब्ल्यूसी की बैठक एक ढीला-ढाला सा शो था. गुलाम नबी आजाद ने अपने पूर्व पार्टी सहयोगियों द्वारा गांधी परिवार के सामने अपना चेहरा चमकाने का मौका मिलने के बावजूद भी उन्हें बख्शते हुए देखकर जरूर राहत महसूस की होगी. वैसे, उनके पांच पन्नों के त्याग पत्र में शामिल सिर्फ दो शब्दों ने उनके सारे गुस्से को संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया था : ‘अनुभवहीन चाटुकार’ जो पार्टी के मामलों के कर्ता-धर्ता बने हुए हैं. जाहिर है कि गांधी दरबार में उल्लेखनीय ट्रैक रिकॉर्ड रखने वाले अनुभवी लोगों ने भी इसे ठीक तरह से नहीं लिया. आजाद द्वारा उठाए गए सभी मुद्दे बहुत प्रासंगिक हैं. अपने पत्र में उन्होंने केवल इस बात को स्पष्ट नहीं किया कि कैसे कांग्रेस जम्मू-कश्मीर में लगभग अप्रासंगिक हो गई है, जब की वहीं का एक धरती-पुत्र दशकों तक केंद्र में पार्टी के नेतृत्व वाली सरकारों, और पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में भी, इतने सारे उच्च पदों पर आसीन रहा था. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को अब आजाद की नई पार्टी से उनके गृह क्षेत्र चिनाब घाटी, जो जम्मू-कश्मीर विधानसभा में आठ सदस्यों को भेजती है, में गैर-भाजपा पार्टियों के मुस्लिम वोटों को विभाजित करने की उम्मीद जरूर करनी चाहिए. हालांकि, इसका अंदाजा किसी को भी नहीं है कि क्या आजाद इन कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में भी मतदान का रुझान बदल सकते हैं. उनका चुनावी प्रदर्शन अगले चुनावों में जम्मू-कश्मीर की सबसे बड़ी पार्टी (या संभवतः सत्तारूढ़ दल के रूप में भी) के रूप में उभरने की भाजपा की महत्वाकांक्षा के लिए काफी अहम होगा.
बहरहाल, वापस सीडब्ल्यूसी बैठक की बात करें तो कांग्रेस पार्टी में सभी बड़े निर्णय लेने वाली यह शीर्ष संस्था राहुल गांधी द्वारा एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष बनने की अनिच्छा दिखाए जाने की अटकलों के बीच इकट्ठा हो रही थी. कम से कम, उनके ‘स्पिन डॉक्टर’ तो हमें यही विश्वास दिलाना चाहते हैं. उनके इस संभावित ‘त्याग’ की इस बिन सांस रोके की जा रही रिपोर्टिंग को देखते हुए, सीडब्ल्यूसी की यह बैठक राहुल गांधी के लिए अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़ने के अपने इरादे की घोषणा करने के लिए एक आदर्श मंच था.
मगर उन्होंने इसके बारे में एक शब्द तक नहीं कहा. कांग्रेस नेता हमें विश्वास दिलाएंगे कि सोनिया गांधी चाहती हैं कि अशोक गहलोत पार्टी की बागडोर संभालें. यह अलग बात है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में (सचिन) पायलट जैसा गतिशील, युवा चेहरा पार्टी के हित में बेहतर काम करेगा. लेकिन गांधी परिवार शायद 71 वर्षीय गहलोत के रूप में एक कामचलाऊ व्यवस्था के साथ अपने आप को अधिक सुरक्षित महसूस कर सकता है. हालांकि ये सब कुछ अभी अटकलों के दायरे में ही हैं. सीडब्ल्यूसी की बैठक में पूरा गांधी परिवार इस पर एकदम चुप रहा. लोगों को राहुल गांधी द्वारा ‘त्याग’ की इच्छा रखने के बारे में अटकलें लगाने देना अच्छी बात है, लेकिन औपचारिक रूप से इसे कहने के अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं. रविवार को, अगर गांधी परिवार को उम्मीद थी कि सीडब्ल्यूसी के सदस्य राहुल से कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वापस लौटने के लिए चिर-परिचित सामूहिक स्वर में करबद्ध प्रार्थना करेंगे, तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
हर किसी को समय की दरकार है. और, इसलिए, अध्यक्ष पद के चुनाव को स्थगित करना, जाहिरा तौर पर कुछ राज्यों में निर्वाचक मंडल बनाने में हो रहे देरी के कारण, सभी के मन के अनुकूल था.
तो, फिर गांधी परिवार करना क्या चाह रहा है? वे सभी को असमंजस में क्यों रख रहे हैं? अगर राहुल गांधी इसके लिए तैयार नहीं हैं, तो उन्हें यह साफ़ कहना चाहिए और किसी और को आगे आने देना चाहिए. या फिर बात यह है कि गांधी परिवार चाहता है कि ‘पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के जबर्दस्त दबाव के तहत’ वह फिर से ‘सत्ता के जहर’ को स्वीकार कर लें! खैर, उनकी नजदीकी मंडली के कुछ सदस्यों के अलावा, वे काफी शांत नजर आ रहे हैं.
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मौन की भयावह आवाज
गांधी परिवार के मौन की भयावह आवाज साफ़ सुन सकते हैं. पुराने दिनों में, अगर किसी कांग्रेस नेता ने गांधी परिवार के किसी सदस्य के बारे में आजाद ने जो कुछ भी कहा है, उसका एक अंश भी कहा होता, तो तूफान खड़ा हो गया होता. हालांकि, पार्टी के रैंक और फ़ाइल (सामान्य दर्जे के कार्यकर्ताओ) ने आज़ाद के त्याग पत्र पर सोची-समझी चुप्पी के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त की है. किसी को कहीं से भी कोई सरसराहट तक नहीं सुनाई दी. कहां हैं वे 5.6 करोड़ नए सदस्य जिन्हें पार्टी ने नवीनतम सदस्यता अभियान में शामिल किया गया है? सोनिया लगभग 22 वर्षों से पार्टी का नेतृत्व कर रही हैं, यह लगभग उतना ही अरसा है जितना अरसा नेहरू-गांधी परिवार के अन्य सभी सदस्यों-मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी- के कुल अध्यक्षीय कार्यकाल को एक साथ रखने पर मिलता है. इसमें राहुल गांधी का तक़रीबन डेढ़ साल का कार्यकाल जोड़ दें तो लगभग ढाई दशक के निरंतर शासन के बाद भी कांग्रेस का कोई भी पदाधिकारी एक ऐसे समय में राष्ट्रीय या राज्य की राजधानी में स्थित पार्टी मुख्यालयों – या यहां तक कि किसी जिले या ब्लॉक कांग्रेस कमेटी के कार्यालय में भी- दौड़ता हुआ नहीं जा रहा है, जब गांधी परिवार पर लगातार हमले हो रहे हैं और कथित तौर पर वे पार्टी से दूर जाने की योजना बना रहा है.
गांधी परिवार को पार्टी कैडरों के बीच अपनी स्थिति के बारे में पिछले महीने भी कुछ-न-कुछ अंदाजा लग गया होगा, जब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा सोनिया और राहुल गांधी से पूछताछ के खिलाफ कांग्रेस द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शन को अनमनी सी प्रतिक्रिया मिली थी. कोई भी स्वतःस्फूर्त आंदोलन नहीं हुआ. और दिल्ली में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं की लामबंदी से सिर्फ एक ही सड़क जाम हो सकी, जबकि समूची राजधानी में यातायात सुचारू रूप से चलता रहा.
गांधी परिवार की हेमलेटियन दुविधा
सामान्य परिस्थितियों में, गांधी परिवार का अगला कदम बहुत आसान काम जैसा होता. यह देखते हुए कि 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को किसी तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है, वे पार्टी की बागडोर किसी और को सौंप सकते थे और खुद किनारे रहकर मजा कर सकते थे. उनका मानना होता – उन्हें कांग्रेस चलाने और ऐसे करने में असफल हो जाने दो. इससे राहुल गांधी का ‘त्याग’ और सार्थक साबित होगा. अगर किसी गांधी परिवार के सदस्य के बाहर के व्यक्ति के तहत भी कांग्रेस के भाग्य में कोई बदलाव नहीं होता है, तो राहुल गर्व से दोबारा कांग्रेस की कमान संभाल सकते हैं और अपनी योग्यता साबित करने की उम्मीद कर सकते हैं, खासकर तब जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री कार्यालय में अपना अंतिम कार्यकाल पूरा कर रहे होंगे. तब किसी भी कांग्रेसी को गांधी परिवार के प्रति कोई द्वेष नहीं होगा. इसके बाद से, वे हमेशा-हमेशा के लिए कांग्रेस का संचालन कर सकते हैं.
हालांकि, इसमें भी एक पेच है. जैसा कि गुलाम नबी आजाद और पृथ्वीराज चव्हाण का मानना है, गांधी परिवार एक ‘कठपुतली अध्यक्ष’ बनाना चाहते हैं. यह तो तय बात है लेकिन यहां भी समस्या यह है कि राहुल गांधी के लिए कुर्सी को गर्म रखने के लिए गांधी परिवार को किस पर भरोसा करना चाहिए? आखिर पी.वी. नरसिम्हा राव भी साल 1969 में सिंडिकेट के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई में, और फिर आपातकाल के दौरान भी, इंदिरा गांधी के साथ खड़े रहे थे. याद कीजिए सेंट किट्स वाला वह मामला जिसमें राव ने अन्य लोगों के साथ राजीव गांधी को एकदम से नापसंद रहे वी.पी. सिंह के बेटे अजय सिंह को फंसाने के लिए कथित तौर पर जाली दस्तवेज़ तैयार कराए थे. राव को एक अदालत ने बरी कर दिया था लेकिन उनके इस ‘कांड’ को गांधी परिवार के प्रति उनकी वफादारी के एक और प्रमाण के रूप में देखा गया था. इसके बमुश्किल दो साल बाद राजीव गांधी की हत्या कर दी गई और राव प्रधानमंत्री बने. बाकी तो इतिहास ही है.
वफादारों की आज भी कोई कमी नहीं है, लेकिन राव और सीताराम केसरी प्रकरणों ने गांधी परिवार के लिए कोई खास मीठी यादें नहीं छोड़ी हैं. सोनिया गांधी ने इससे भी बदतर हाल देखा है. क्या वह कल्पना कर सकती थीं कि पी.ए. संगमा उनके खिलाफ बगावत करने के लिए शरद पवार और तारिक अनवर से हाथ मिला सकते हैं? क्या वह ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने का अनुमान लगा सकीं? इसलिए, भले ही राहुल गांधी फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनने के इच्छुक नहीं हैं, जैसा कि उनके स्पिन डॉक्टर हमें विश्वास दिलाते हैं, फिर भी गांधी परिवार अपनी उत्तराधिकार योजना के बारे में चौकन्ना होगा. उन्हें अपने किसी वफ़ादार के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राव के रास्ते में पर चलने की संभावनाओं से डर जरूर लग रहा होगा. और तब क्या होगा अगर कोई चमत्कार हो जाये और कांग्रेस किसी गांधी परिवार के इतर व्यक्ति की अध्यक्षता के तहत चुनाव जीतना शुरू कर दे? ऐसे में राहुल को वापस कमान संभालने में काफी मुश्किल होगी. तब गांधी परिवार क्या करेगा? क्या वे कांग्रेस में नेहरू-गांधी युग के अंत के साथ तालमेल बिठा पाएंगे? गांधी परिवार इन्हीं सवालों पर सोच-विचार कर रहा होगा. हो सकता है कि वे अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर रहना चाहते हों, मगर ऐसा तभी हो सकता है यदि वे पार्टी की बागडोर संभालने से उनकी अनुपस्थिति के दौरान पार्टी के निरंतर पतन के बारे में आश्वस्त हों.
गांधी परिवार के लिए एक और विकल्प यह है कि वह पूरी ढिठाई के साथ अड़ा रहे. पार्टी का नियंत्रण छोड़ना जोखिम भरा हो सकता है. जब सोनिया गांधी ने अपने पति की हत्या के बाद राजनीति से दूर रहने का फैसला किया, तो कांग्रेस के तमाम नेता उनके पास आते रहे क्योंकि उन्हें नरसिम्हा राव, केसरी और अपने अन्य प्रतिद्वंद्वियों को दुरुस्त रखने और पार्टी को एक साथ रखने के लिए उनकी जरूरत थी. उनका सोचना था कि गांधी परिवार का पार्टी का चेहरा बने बिना वे चुनाव नहीं जीतेंगे. खैर, पिछले एक दशक में चीजें बदल गई हैं. गांधी परिवार चुनाव नहीं जीत सकता. वे पार्टी नहीं चला सकते. उनका उपनाम मतदाताओं के बीच काफ़ी कम आत्मविश्वास पैदा कर पाता है. दरअसल, मोदी और बीजेपी के दूसरे नेताओं ने इसे कांग्रेस के गले पर लटका बोझ बना दिया है. इसलिए, यदि राहुल गांधी अध्यक्ष पद त्यागने के अपने इरादे की घोषणा करते हैं, तो कांग्रेस के रैंक और फ़ाइल को काफी राहत मिल सकती है.
इसलिए, गांधी परिवार को डटे रहना चाहिए और अपने खानदानी गहने, कांग्रेस, पर अपना कब्जा बनाए रखना चाहिए. कम से कम 2019 में राहुल के इस्तीफा देने के बाद से सोनिया यही तो करने की कोशिश कर रही हैं. क्योंकि किसी राजप्रतिनिधि (रीजेंट) के हाथ भी पार्टी को छोड़ना बहुत जोखिम भरा है.
राहुल गांधी अगर चाहें तो उन्हें दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बनने से कोई नहीं रोक सकता. लेकिन इस विकल्प की भी अपनी अन्य खामियां हैं. 2014 से अब तक हुए 50 विधानसभा चुनावों में से, कांग्रेस को केवल 7 में जीत मिली है. इसी अवधि के दौरान, पार्टी अपने शासन वाले 13 राज्यों में से केवल एक में ही सत्ता अपने पास बरकरार रख सकी है. अगर राहुल गांधी फिर से पार्टी के शीर्ष पद पर लौटते हैं तो उन्हें इस हार के सिलसिले को पलटने के प्रति आश्वस्त होना चाहिए. क्योंकि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो हर वक्त कोई न कोई ‘गुलाम नबी आजाद’ बगावत में सिर उठा सकता है, खासकर हर चुनावी हार के बाद. और कांग्रेस की पैठ आगे और सिकुड़ती चली जाएगी.
यह ‘या तो गांधी परिवार या फिर कांग्रेस’ का मामला है. सीडब्ल्यूसी ने उन्हें उनकी प्राथमिकता तय करने के लिए एक महीने का और समय दिया है. यदि वे इस ‘यह या वह’ वाली दुविधा को हल करने में विफल रहते हैं, तो यह जल्द ही ‘न तो यह, न ही वह’ वाली स्थिति में बदल सकता है.
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(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं, व्यक्त विचार निजी हैं)
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