इस सप्ताह रिलीज हुई निर्देशक पुरी जगन्नाथ की तेलुगू-हिंदी फिल्म ‘लाइगर’ को हिन्दी के दर्शकों से जो अपमानजनक बर्ताव मिला है उससे यह सवाल मौजूं हो उठा है कि क्या दक्षिण भारतीय फिल्मों का वह बुलबुला अब फूटने को है जो पिछले कुछ समय से लगातार अपना आकार बढ़ाता जा रहा था? हिंदी फिल्मों के समीक्षकों, दर्शकों ने इस फिल्म को जिस बुरी तरह से धोया है और जो-जो इसके बारे में कहा है, उसे देखें तो यही लगता है कि आंख मूंद कर दक्षिण से आई हर फिल्म को अच्छा बताने की रिवायत डगमगा चुकी है.
ऐसा नहीं है कि दक्षिण वालों ने हिंदी के बाजार में सेंध कोई हाल-फिलहाल में ही लगाई हो. यह प्रथा बहुत पुरानी चली आ रही है. हालांकि इस प्रथा ने जोर बीती सदी के आठवें दशक में पकड़ा था जब वहां के फिल्मकारों ने हिंदी के कलाकारों को लेकर ‘मद्रासी हिंदी फिल्में’ बनानी शुरू की थीं. उन दिनों दक्षिण से डब होकर जो फिल्में इधर आती थीं उनमें ज्यादातर मलयालम की वे सी-ग्रेड फिल्मों होती थीं जो यहां के सिनेमाघरों में सुबह के शो में आने वाले दर्शकों को गुदगुदाने के मकसद से लाई जाती थीं. इस दिशा में एक बड़ा बदलाव मणिरत्नम की ‘रोजा’ से आया. तमिल से हिंदी में डब हुई इस फिल्म को बेहद पसंद किए जाने के बाद हिंदी और दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योगों के बीच निकटता बढ़ने लगी थी. इससे दो किस्म के बदलाव आए. एक तो वहां की बहुत सारी बड़ी फिल्में हिंदी में डब हो कर रिलीज हुईं जैसे कि प्रभुदेवा वाली ‘हम से है मुकाबला’. साथ बहुत सारी फिल्मों को वहां की भाषाओं के साथ-साथ हिंदी में भी बनाया जाने लगा जैसे कि मणिरत्नम की ही ‘बांबे’, ‘दिल से’ आदि.
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एक तीसरा चलन इसके बाद यह शुरू हुआ कि वहां की फिल्मों को हिंदी में फिर से बनाने के ‘रीमेक राइट्स’ खरीदे जाने लगे और दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्में धड़ाधड़ हिंदी में बनने लगीं. निर्माता बोनी कपूर इस कतार में सबसे आगे खड़े थे जिन्होंने ‘हम पांच’ और ‘वो सात दिन’ से शुरुआत करके ‘जुदाई’, ‘सिर्फ तुम’, ‘हमारा दिल आपके पास है’, ‘कोई मेरे दिल से पूछे’, ‘शक्ति’, ‘खुशी’, ‘रन’, ‘नो एंट्री’, ‘वांटेड’ जैसी ढेरों ऐसी फिल्में बनाईं जो असल में किसी न किसी साउथ इंडियन फिल्म का ही रीमेक थी. लेकिन उन दिनों ऐसी हवाएं नहीं चला करती थीं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री खत्म हो रही है और अब दक्षिण का राज हर तरफ चलेगा. तो इन दिनों ऐसा क्यों है?
असल में कुछ बरस पहले आई डब फिल्म ‘मक्खी’ की सफलता के बाद ‘रोबोट’ और खासतौर पर ‘बाहुबली’ के सुपरहिट होने से इस धारणा को बल मिलने लगा था कि साउथ में उम्दा सिनेमा ज्यादा बनता है. फिर पिछले दो साल में जिस तरह से करोड़ों दर्शकों ने विभिन्न ओटीटी मंचों के जरिए दक्षिण भारतीय फिल्मों को अपने मोबाइल पर देखा उससे भी सरहदें कमजोर हुईं और दूरियां घटीं. हिंदी की तमाम फिल्मों से पेट भरने के बाद दर्शकों ने दक्षिण भारतीय फिल्मों का रुख किया और उनके द्वारा सोशल मीडिया पर किए जाने वाले गुणगान की हवा इस कदर फैलने लगी यह परिदृश्य-सा बन गया कि असल सिनेमा तो दक्षिण में बन रहा है. यह भी संयोग ही रहा कि इस दौरान साउथ से लगातार कई अच्छी फिल्में आने लगीं और हिंदी में लगातार कमजोर. लेकिन अब ‘लाइगर’ के खोखलेपन ने इस चर्चा को थामा है कि दक्षिण की फिल्में अमृत पी कर आती हैं और हिंदी के मैदान में छा जाती हैं.
फिल्म समीक्षक पंकज शुक्ल कहते हैं, ‘भले ही दक्षिण भारतीय सिनेमा को लेकर खूब चर्चा हो कि उसने हिंदी सिनेमा को पीछे छोड़ दिया है लेकिन हकीकत यह है कि इक्का-दुक्का फिल्मों को छोड़ दें तो हाल वहां भी हिंदी सिनेमा जैसा ही है. भारतीय सिनेमा इन दिनों एक तरह के संक्रमण काल से गुजर रहा है. नई और असल कहानियों का टोटा है व पुराने फॉर्मूले काम नहीं कर रहे हैं.’ शायद यही कारण है कि दर्शक कुछ नए और अनोखे की तलाश में दक्षिण से आने वाली डब फिल्मों की तरफ मुड़े लेकिन अगर वहां से भी ‘लाइगर’ जैसी घिसी-पिटी फिल्में आएंगी तो उनका जल्द मोहभंग होना तय है.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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