बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजनीति हलक़ों में हलचल पैदा कर दी है. विपक्षी खेमे के घोर आशावादी लोगों को अचानक उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी है. ऐसा लगता है कि उन्हें पक्का विश्वास हो गया है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ‘द मैट्रिक्स’ फिल्म के पात्र मोर्फ़ियस की तरह भाजपा की गोलियों को अपने नंगी हथेली से रोक कर ‘मानवजाति’ (यानी विपक्ष) की रक्षा करेंगे.
‘द मैट्रिक्स’ तो विज्ञानकथा पर आधारित हॉलीवुड फिल्म थी, लेकिन वास्तविक दुनिया का राजनीतिक सांचा तो कुछ अलग ही होता है. जरा ‘इंडिया टुडे-सी-वोटर’ के ‘देश का मिज़ाज’ सर्वे पर नज़र डाल लीजिए. उसमें आप पाएंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मजबूत होते जा रहे हैं.
वैसे, लोकसभा चुनाव के लिए अभी 18-20 महीने बाकी हैं, और कहावत अगर विपक्षी नेताओं के काम आ सके तो कहा जा सकता है कि राजनीति के मामले में इसे लंबा वक़्त माना जाएगा.
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7, लोककल्याण मार्ग के रास्ते में रोड़े
नीतीश अपनी इस बात पर कायम हैं कि प्रधानमंत्री पद के लिए वे दावेदार नहीं हैं. लेकिन वे जब विपक्ष को एक करने की बात करते हैं और यह संदेह जाहिर करते हैं कि 2014 का विजेता 2024 में भी विजेता नहीं हो सकता है, तब उनके ये बयान बहुत मानीखेज लगने लगते हैं. समाजवादी पार्टी के नेता घनश्याम तिवारी ने 10 अगस्त को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपे अपने लेख में 2010 के एक रात्रिभोज में नीतीश के इस बयान को याद किया है कि ‘जो पार्टी या परिवार के बूते नहीं बल्कि अपने दम पर जमीन से ऊपर उठता है वो सत्तर-बहत्तर साल पर जाकर प्रधानमंत्री बनने का मजबूत दावेदार बन सकता है.’ गौरतलब है कि नीतीश आज 71 साल के हो चुके हैं.
लेकिन मजबूत दावेदार बनने के लिए सबसे पहले तो उन्हें कांग्रेस के बारे में अपने विचारों को बदलना पड़ेगा. 2010 में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद, बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के उनके पुराने सहपाठी रहे पत्रकार अरुण सिन्हा ने उनसे कहा था कि भारत में कई उदारवादियों को इस बात पर आश्चर्य है कि उन्होंने भाजपा से रिश्ता तोड़कर कांग्रेस से हाथ क्यों नहीं मिलाया? इस पर नीतीश का जवाब था, ‘ कांग्रेस में इतना अहंकार है कि उसे बर्दाश्त करना मुश्किल है. वे लोग सोचते हैं कि भारत में एकमात्र राजनीतिक दल वही है, बाकी सब ऐसे-वैसे ही हैं. लेकिन वास्तव में यह गुलामों की पार्टी है. वहां सत्ता एक ही परिवार से निकलती है…. यह देश की सबसे वाहियात पार्टी है. ‘अरुण सिन्हा ने नीतीश की जो शानदार जीवनी ‘द बैटल फॉर बिहार : नीतीश कुमार ऐंड द थिएटर ऑफ पावर’ लिखी है उसमें उनका यह बयान उदधृत किया है.
कांग्रेस से नीतीश की शिकायत की वजह भी है. उनके पिता, स्वतंत्रता सेनानी रामलखन सिंह ने 1952 में बख्तियारपुर से चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस से टिकट की मांग की थी, जिसे उसने यह कहकर ठुकरा दिया था कि वह उन्हें अगली बार टिकट दे सकती है. लेकिन 1957 के चुनाव में भी उसने उन्हें टिकट नहीं दिया. इसलिए नीतीश के पिता ने कांग्रेस छोड़ दी.
लेकिन ठेठ राजनीति करने वाले नीतीश ने 2015 में अपनी महागठबंधन वाली सरकार में कांग्रेस को शामिल करने से परहेज नहीं किया. महागठबंधन के गठन से पहले वे राहुल गांधी से मिले और कांग्रेस को भी इसमें जोड़ने का फैसला किया. इसकी वजह यह थी कि लालू यादव उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. मुलायम सिंह यादव और शरद यादव ने उन्हें इसके लिए राजी किया. मुलायम उस समय जनता दल के सभी बिखरे घटकों— समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जनता दल (यूनाइटेड) (जदयू), जनता दल (सेकुलर) (जद-एस), और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलोद)—को एकजुट करने में लगे थे. नीतीश अगर राजद को अलग करके कांग्रेस के साथ चले जाते तो मुलायम के प्रयास विफल हो जाते.
यह सब अब इतिहास हो चुका है. कांग्रेस आज नीतीश की सरकार में वापस शामिल होने को है. राहुल नीतीश के प्रशंसक रहे हैं लेकिन कांग्रेस विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में ऐसे किसी को कबूल नहीं करेगी, जो गांधी परिवार का न हो.
एक समय था जब नीतीश यह उम्मीदवार नहीं बनना चाहते थे. 2013 में जब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मोदी का विरोध कर रहे थे तब उन्होंने अपने जीवनीकार से कहा था, ‘इतिहास साफ सबक दे चुका है : किसी छोटे दल के नेता को किसी बड़े दल के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए… किसी बड़े दल के समर्थन से केंद्र सरकार का नेतृत्व करना बिलकुल मूर्खता है.’
यह बात जब उन्होंने कही थी तब बेशक उनकी उम्र सत्तर साल से ऊपर नहीं हुई थी, जिसे आज वे ‘प्रधानमंत्री पद का मजबूत उम्मीदवार’ बनने की एक शर्त बता रहे हैं. उन्हें केवल कांग्रेस का अनिश्चित रुख ही परेशान नहीं कर सकता है. भाजपा से रिश्ता तोड़ने के बाद क्षेत्रीय क्षत्रपों की चुप्पी पर भी उन्होंने गौर किया होगा. विपक्षी खेमे में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की बड़ी संख्या भी बिहार के मुख्यमंत्री की महत्वाकांक्षा के लिए एक रोड़ा है. 2019 में, जब नीतीश ने कहा था कि बिहार से बाहर वे एनडीए से रिश्ता नहीं जोड़ेंगे, तब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें बधाई दी थी और धन्यवाद दिया था.
अब जबकि बिहार में उन्होंने एनडीए से रिश्ता तोड़ लिया है तब ममता भी चुप हैं और अरविंद केजरीवाल, के. चंद्रशेखर राव तथा दूसरे नेता भी चुप हैं. इन सबको 2010 के नीतीश शायद कबूल थे जब तत्कालीन अमेरिकी राजदूत टीमोथी जे. रोमर ने पटना के अपने दौरे के बीच यह बयान दिया था कि राष्ट्रपति बराक ओबामा के दौरे के लिए बिहार ‘बिलकुल उपयुक्त स्थान’ है. 2012 में, पाकिस्तान के तत्कालीन उच्चायुक्त सलमान बशीर ने विकास के बिहार मॉडल को ‘प्रभावशील’ बताते हुए कहा था कि ‘पाकिस्तान में यह चर्चा का विषय है’ (संतोष सिंह की किताब ‘रूल्ड ऑर मिसरूल्ड : स्टोरी ऐंड डेस्टिनी ऑफ बिहार’ से).
लेकिन 2022 के नीतीश विपक्षी खेमे में कई लोगों को प्रभावित नहीं करते. न हो तो नीतीश के ‘डिप्टी’ तेजस्वी यादव को देख लीजिए, जो पिछले विधानसभा चुनाव में बड़ी भीड़ खींच रहे थे और नीतीश के कुशासन और विफलताओं पर हमले कर रहे थे. मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी करते हुए शासन का गुजरात मॉडल मिसाल के रूप में पेश किया था, उसके विपरीत नीतीश के पास आज बिहार की कोई गाथा सुनाने को नहीं है.
कांग्रेस के लिए नीतीश सर्वश्रेष्ठ दांव
अड़चनों के बावजूद, प्रधानमंत्री पद के विपक्षी उम्मीदवार के रूप में नीतीश कांग्रेस के लिए सर्वश्रेष्ठ दांव हो सकते हैं, बशर्ते वह अभी भी यह न माने बैठी हो कि राहुल ही मोदी को कड़ी चुनौती दे सकते हैं.
आज जबकि ममता बनर्जी भी यह मानती हैं कि 2024 में सबसे अच्छी स्थिति यह होगी कि भाजपा को बहुमत नहीं मिलेगा, तब नीतीश कांग्रेस के लिए कोई दीर्घकालिक खतरा नहीं बनने वाले. उनका समर्थन करके वह तीन लक्ष्य हासिल कर सकती है— भाजपा को कमजोर करने, केजरीवाल और ममता जैसे महत्वाकांक्षियों का मुक़ाबला करने, और पिछड़े समुदायों में कुछ सदभाव हासिल करने के लक्ष्य.
नीतीश की छवि साफ सुथरी है, उन पर परिवारवाद का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता. ये तथ्य भ्रष्टाचार, परिवारवाद के नाम पर भाजपा के चुनावी नारों को बेअसर कर सकते हैं. बिहार के ‘कुर्मी मुख्यमंत्री’ भाजपा के ‘ओबीसी प्रधानमंत्री’ का अच्छा जवाब बन सकते हैं. ‘पहला बिहारी प्रधानमंत्री’ नारा उस राज्य में मोदी की लोकप्रियता का मुक़ाबला करने में मदद कर सकता है जिसकी 40 लोकसभा सीटों में से 39 सीटें जद (यू) समेत एनडीए ने जीती थी. इन 39 में से 17 सीटें भाजपा ने और 6 सीटें लोजपा ने जीती थीं. ‘बिहारी प्रधानमंत्री’ को मैदान में उतारना बिहार में भाजपा के संभावित सहयोगियों को बचाव की मुद्रा में ला देगा.
इसमें ‘कुर्मी प्रधानमंत्री’ के नारे को भी जोड़ दीजिए. भाजपा उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी के कुर्मी नेताओं को आगे बढ़ाकर और अपना दल से गठजोड़ करके कुर्मी समुदाय को रिझाने की कोशिश करती रही है. बिहार की यह पहल अपना दल की अनुप्रिया पटेल को भी मुश्किल में डालेगी. हाल में भाजपा की ओर रुख कर रहे सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर ने यहां तक कहा है कि विपक्ष ने अगर नीतीश को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो वे उनका समर्थन करने पर विचार कर सकते हैं.
सपा के कुर्मी विधायकों की संख्या 2017 में मात्र 2 थी, जो 2022 के चुनाव में बढ़कर 13 हो गई. लेकिन भाजपा के कुर्मी विधायकों की संख्या पिछले चुनाव में 26 से घटकर 2022 के चुनाव में 22 हो गई. उत्तर प्रदेश की आबादी में कुर्मी आबादी का अनुपात 7 फीसदी है. हालांकि कुर्मी आबादी देश के उत्तरी, मध्य और पश्चिमी भागों में फैली है लेकिन उसका बड़ा राजनीतिक प्रभाव बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में ही सिमटा है.
बिहार में कुर्मी आबादी का अनुपात केवल 3-4 फीसदी ही है लेकिन नीतीश ने अपना एक बड़ा आधार बनाया है अतिपिछड़ा और महादलित वर्गों में. यह मुमकिन नहीं है कि जब नीतीश को ‘दावेदार’ घोषित किया जाएगा तब उसका असर बिहार से बाहर उत्तर प्रदेश और झारखंड के कुछ इलाकों में नहीं होगा. लोकसभा में कुल 134 सांसद भेजने वाले इन राज्यों में भाजपा का बड़ा दांव लगा हुआ है.
कांग्रेस अगर प्रधानमंत्री पद के एक बिहारी दावेदार का समर्थन करेगी तब यह ममता और केजरीवाल को भी मुश्किल में डाल देगा, क्योंकि दिल्ली और पश्चिम बंगाल में प्रवासी बिहारी कामगारों की संख्या अच्छी-ख़ासी है. एक कुर्मी दावेदार अखिलेश यादव को भी गठबंधन को लेकर अपने रणनीति पर पुनर्विचार करने पर मजबूर करेगा.
मोदी बनाम नीतीश जंग के नतीजे क्या होंगे इसकी कल्पना की जा सकती है, लेकिन कांग्रेस के लिए यही सबसे अच्छा दांव है, खासकर इसलिए कि ममता और केजरीवाल जैसे उम्मीदवार अपनी दावेदारी मजबूत करने में जुटे हैं. सो, इस दांव में कांग्रेस को अपना अहं छोड़ने के सिवा गंवाने को कुछ नहीं है.
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