नई दिल्ली: ट्रेन में बैठ कर कहीं जा रहा लाल सिंह चड्ढा अपने साथी यात्रियों को अपनी जिंदगी के सफर के बारे में बता रहा है. वह उन्हें पंजाब के अपने गांव, स्कूल में मिली रूपा डिसूजा से दोस्ती, दिल्ली का कॉलेज, खेल, पढ़ाई, फौज की नौकरी, कारगिल की लड़ाई, बिजनेस जैसी तमाम बातें बताते-बताते यह भी बताता है कि वह रूपा को बार-बार शादी के लिए प्रपोज करता रहा है. आज वह उसी रूपा से मिलने जा रहा है. लेकिन क्यों?
1994 में आई अमेरिकी फिल्म ‘फॉरेस्ट गंप’ के इस ऑफिशियल रीमेक को देखते समय यह जानने की उत्सुकता हो सकती है कि यह फिल्म मूल फिल्म से कितनी अलग, कितनी बेहतर या कितनी खराब बनी है. लेकिन क्या जरूरी है कि इसकी मूल फिल्म से तुलना की ही जाए. इसे इसकी अपनी खामियों-खूबियों पर परखना ज्यादा सही होगा.
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1977 की इमरजेंसी से लेकर कारगिल तक
यह फिल्म लाल सिंह चड्ढा के साथ-साथ चलते हुए भारत देश के समय और हालात को भी दिखाती है. 1977 में जब इमरजेंसी हटी तो लाल सिंह अपनी मां के साथ एक दुकान से सामान ले रहा था. 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार के समय वह अमृतसर में था. जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो वह वहीं बाहर ही फोटो खिंचवा रहा था. मंडल कमीशन, रथ यात्रा, बाबरी का तोड़ा जाना, कारगिल, मुंबई पर हमले आदि कई सामयिक घटनाओं को इस कहानी का हिस्सा बनाया गया है. लेकिन यह फिल्म देश के बारे में नहीं है. यह लाल सिंह के बारे में है. वही लाल सिंह जो निष्कपट है, भोला है, बुद्धू है. जो भी उसके करीब आया, उसका अपना होता चला गया. लेकिन जिस रूपा को उसने चाहा, वह उससे दूर ही होती चली गई.
मूल कथानक को भारतीय परिवेश में ढालते समय अतुल कुलकर्णी ने जो मेहनत की है, वह पर्दे पर दिखती है. बड़े ही कायदे से उन्होंने लाल सिंह के साथ-साथ भारत के सफर को जोड़ा है. लेकिन बड़ी ही चतुराई से वह कुछ एक चीजों का जिक्र छोड़ भी गए. यह कहानी असल में प्यार की है, त्याग की है. लोगों से बिछुड़ने-मिलने, उन्हें पाने-खोने की है. इंसानी जिंदगी के छोटे-से सफर में अहं को मारने और खुद को कुदरती प्रवाह के हवाले कर देने की है. यह बहुत सारी सीखें भी देती है. यह कहानी भावनाओं की है, उन जज्बातों की है जो इंसान को इंसान बनाए रखते हैं. तो जब इतना कुछ है तो यह ‘महसूस’ क्यों नहीं होती? इसे देखते हुए कसक क्यों नहीं उठती?
फिल्म न सुनाई देती है, न प्यास ही बुझाती है
अद्वैत चंदन के निर्देशन में कमी नहीं है. उन्हें सीन बनाने आते हैं, यह वह ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ में दिखा चुके हैं. लेकिन फिल्म की गति इसका साथ छोड़ती है. बार-बार इसकी रफ्तार लचक जाती है. दूसरी बड़ी कमी इसके उस ट्रीटमैंट के साथ है जो बहुत ही ‘क्लासी’ किस्म का है. पर्दे पर जो हो रहा है वह सही लगते हुए भी अपना-सा नहीं लगता. लगभग पूरी फिल्म में एक रूखापन, एक ठंडापन-सा तारी है. गर्मजोशी की कमी कह लीजिए या दृश्यों का बनावटीपन, चीजें पर्दे से उतर कर दिल में नहीं भर पातीं. एक खालीपन-सा लगता है इस फिल्म को देखने के बाद, लगता है जैसे कुछ हासिल हुआ ही नहीं. आम दर्शक की प्यास नहीं बुझा पाती यह फिल्म.
लाल सिंह के किरदार को आमिर खान ने लुक से, पोशाकों से, भंगिमाओं से, वी.एफ.एक्स. से जम कर जिया है. लेकिन कोई बहुत अनोखा, कोई बहुत लाजवाब कर देने वाला काम दो-तीन सीन को छोड़ कर महसूस नहीं होता. करीना कपूर अपने किरदार की बदलती रंगत के मुताबिक असर छोड़ने में कामयाब रही हैं. मानव विज, नागार्जुन के बेटे चैतन्य अक्किनेनी व बाकी कलाकार सही रहे. गाढ़ा असर तो छोड़ा है लाल सिंह की मां बनीं मोना सिंह ने. गानों के शब्द अच्छे हैं लेकिन बेहतर धुनों का अभाव इन्हें फीका बनाता है. हां, बैकग्राउंड म्यूजिक बहुत प्यारा और असरदार है.
यह सवाल भी उठ सकता है कि इस फिल्म का नाम ‘लाल सिंह चड्ढा’ ही क्यों है? क्या सिर्फ इसलिए कि ‘फॉरेस्ट गंप’ में भी नायक का नाम ‘फॉरेस्ट गंप’ था? कहानी के ‘कहन’ को सूट करता कोई नाम इनके मन में क्यों नहीं आया? दरअसल यह फिल्म कहती तो बहुत कुछ है, लेकिन वह ‘कहना’ सुनाई नहीं देता क्योंकि यह फिल्म अपने कलेवर में सीधी है, सरल है, साधारण है और काफी हद तक सपाट भी.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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