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Saturday, 23 November, 2024
होमदेश'8 साल में 67 दंगे, 12 हत्याएं'- कैसे हिंदू-मुस्लिम नफरत का गढ़ बन गया कर्नाटक का यह जिला

‘8 साल में 67 दंगे, 12 हत्याएं’- कैसे हिंदू-मुस्लिम नफरत का गढ़ बन गया कर्नाटक का यह जिला

हिंदुत्ववादी और इस्लामी ताकतों के उदय के साथ उपजे सामाजिक आर्थिक तनावों ने दक्षिण कन्नड़ को एक ऐसे क्षेत्र में बदल दिया है जिसे विशेषज्ञ ‘प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता’ की संज्ञा देते हैं.

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मूडबिद्री/बेल्लारे/मंगलुरु: कर्नाटक के तटवर्ती दक्षिण कन्नड़ जिले में इस हफ्ते के शुरू में मोटरसाइकिल या स्कूटर की पिछली सीट पर किसी पुरुष यात्री के बैठने पर रोक लगा दी गई. इसके पीछे विचार शायद यह था कि इससे किसी को मारकर आसानी से भाग जाने की घटनाओं की आशंका घट जाएगी. हालांकि, पिल्यन राइडर पर इस तरह की पाबंदी कुछ ही घंटों में हटा ली गई लेकिन अभी भी रात को प्रतिबंध लागू है. इस इलाके मे ऐसी भावना घर कर गई है कि किसी भी समय कुछ भी गलत हो सकता है और पीड़ित होने वाला कोई भी हो सकता है, मुस्लिम या हिंदू.

महानगरीय बेंगलुरू से लगभग 300 किलोमीटर पश्चिम में स्थित और मंगलुरु का बीच टाउन कहा जाने वाला दक्षिण कन्नड़ जिला सांप्रदायिक झड़पों और स्पष्ट तौर पर बदले की कार्रवाई में हत्याओं के एक चक्र में घिरा हुआ है.

ऐसी हत्याओं का ताजा सिलसिला- आठ दिनों के भीतर तीन— 21 जुलाई को मंगलुरु से 80 किमी दूर बेल्लारे शहर में शुरू हुआ, जिसकी शुरुआत एक मुस्लिम मजदूर की मौत से हुई. इसे पुलिस ने तब ‘आवेशपूर्ण’ रोडसाइड क्लैश का नतीजा बताया. लेकिन पुलिस के ही मुताबिक, इसके बाद ‘प्रतिशोध’ में हत्याएं शुरू हो गईं.

26 जुलाई की रात बाइक सवार हमलावरों ने भाजपा युवा इकाई के कार्यकर्ता प्रवीण नेत्तारू की ‘तेज धारदार हथियार’ से काटकर हत्या कर दी. फिर 48 घंटों के भीतर ही मोहम्मद फाजिल नामक एक तेल रिफाइनरी कर्मचारी को भी इसी तरह मार डाला गया.

The spot where Mahammad Fazil was hacked to death by four unidentified assailants last Thursday | Madhuparna Das | ThePrint
अज्ञात लोगों ने इसी जगह मोहम्मद फाजिल की हत्या की थी | फोटो: मधुपर्णा दास | दिप्रिंट

इस तरह धार्मिक विभाजन, यहां तक संघ परिवार के भीतर भी गुस्सा भड़क रहा है.

2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने तटीय कर्नाटक (जिसमें दक्षिण कन्नड़, उडुपी और उत्तर कन्नड़ शामिल हैं) की 19 में से 17 सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हिंदुओं की हत्याओं के कारण लोगों में सत्तारूढ़ पार्टी और उसके कार्यकर्ता के खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा है.

पिछले हफ्ते, प्रदर्शनकारियों ने दक्षिण कन्नड़ के सांसद नलिन कुमार कतील की कार रोक ली और मुस्लिम ‘कट्टरपंथियों’ के खिलाफ अधिक ‘सक्रिय’ तरीके से कार्रवाई नहीं किए जाने को लेकर उनका घेराव किया.

इस बीच, क्षेत्र में अपना प्रभाव काफी बढ़ा चुके इस्लामिक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) ने आरोप लगाया है कि राज्य की भाजपा सरकार ने हिंदू पीड़ितों की हत्या के मामले पर ‘ज्यादा ध्यान’ दिया है लेकिन इस तथ्य की अनदेखी कर दी है कि ‘दो निर्दोष मुस्लिम लोगों’ की भी हत्या हुई है.

दक्षिण कन्नड़ क्षेत्र में ऐसी अस्थिर स्थितियां बनना असामान्य तौर पर प्रतिशोध में हत्या की कई घटनाओं का नतीजा हैं.

उदाहरण के तौर पर, जनवरी 2018 में मंगलुरु में सांप्रदायिक झड़प के कुछ दिनों बाद दीपक राव नामक एक आरएसएस कार्यकर्ता की चाकू मारकर हत्या कर दी गई थी. कुछ ही घंटों बाद, कथित तौर पर बदले की कार्रवाई में एक मुस्लिम व्यापारी बशीर पर घात लगाकर हमला किया गया और अपने काम से लौटने के दौरान उसकी हत्या कर दी गई.

कर्नाटक पुलिस राज्य अपराध रिकॉर्ड, जो आखिरी बार 2020 में प्रकाशित हुआ था, में कहा गया है कि दक्षिण कन्नड़ जिले में उस वर्ष दंगों की 67 घटनाएं हुईं. इससे इतरह, मंगलुरु आयुक्तालय ने 23 झड़पें दर्ज की हैं. आधिकारिक रिकॉर्ड में इन घटनाओं की प्रकृति का उल्लेख नहीं है लेकिन कर्नाटक पुलिस के सूत्रों का दावा है कि अधिकांश सांप्रदायिक किस्म की थीं.

कर्नाटक पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया कि पिछले करीब सात वर्षों में इस क्षेत्र में ‘धार्मिक नफरत’ से जुड़े मामलों में एक दर्जन से अधिक लोग मारे गए हैं, जहां हाल में कई मौकों पर गंभीर सांप्रदायिक झड़प की घटनाएं सामने आई हैं. इसमें इस वर्ष शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने और हलाल मांस के बहिष्कार के अभियान को लेकर उठे विवाद शामिल हैं.

विशेषज्ञों के मुताबिक, क्षेत्र में अलग-अलग तरह की सांप्रदायिक राजनीति के कारण हिंसा की घटनाओं को बढ़ावा मिलता है लेकिन इसकी जड़ें दशकों पुराने सामाजिक-आर्थिक तनावों में निहित हैं.

मैसूर यूनिविर्सिटी में प्रोफेसर और चेयरमैन और दक्षिण कन्नड़ के मूल निवासी मुजफ्फर एच. असदी ने कहा, ‘अब आप जो हिंसा देख रहे हैं, वह प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता का एक उदाहरण है. लेकिन इस तरह की नफरत और तनाव की नींव 1980 के दशक में ही पड़ गई थी.’

लेकिन अब पहले से कहीं अधिक हिंदुत्ववादी और इस्लामी ताकतों के उदय और कथित तौर पर उन्हें मिल रहे राजनीतिक संरक्षण की वजह से आम लोग— जो सॉफ्ट टारगेट होते हैं— इनके बीच परस्पर टकराव में फंसकर अपनी जान गंवा रहे हैं.

दिप्रिंट ने जब पूरे जिले का दौरा किया तो पाया कि धार्मिक आधार पर कई विभाजन रेखाएं खिंची हुई हैं. यहां तक कि जंगलों के आसपास बसे छोटे-मोटे गांवों में भी ऐसा लगता है कि सीमाएं बंटी हुई हैं. कौन-सा क्षेत्र हिंदू बहुल और कौन-सा मुस्लिम बहुल— इसका पता वहां लगे केसरिया और हरे झंड़ों से साफ नजर आ जाता है.


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‘सॉफ्ट टारगेट’

मूडबिद्री एक उनींदा, शांत शहर है, जिसे कभी-कभार 18 जैन बसादियों या मंदिरों के कारण ‘जैन काशी’ भी कहा जाता है.

यहां, लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजों और खिली-खिली गुलाबी दीवारों वाले पुजारी परिवार के घर के भीतर लोगों का मन एक गहरी उदासी से जूझ रहा है.

अगस्त 2015 में इस परिवार के 28 वर्षीय फूल विक्रेता बेटे और बजरंग दल के स्वयंसेवक प्रशांत पुजारी को शहर के मुख्य चौक में छह लोगों ने बेरहमी से चाकुओं से गोदकर मार डाला था. वहां मौजूद उसके पिता (जो अब मर चुके हैं) सहित तमाम लोग उसे बचाने के लिए कुछ नहीं कर पाए.

प्रशांत की मां यशोदा आज भी इंसाफ का इंतजार कर रही हैं. उनके बेटे के हत्यारों, जो कथित तौर पर पीएफआई के सदस्य थे, को 2015 में गिरफ्तारी के दो साल बाद जमानत मिल गई थी. उन्होंने कहा, ‘सात साल हो गए हैं और वे अभी भी आज़ाद घूम रहे हैं.’

प्रशांत पुजारी की मां यशोदा और बहन प्रणीता | फोटो: मधुपर्णा दास | दिप्रिंट

इस मामले के गवाहों ने दिप्रिंट को बताया कि उन्हें अदालत में पेश न होने के लिए अभी भी लगातार धमकियां मिलती रहती हैं.

उन्हीं में से एक देवीप्रसाद शेट्टी नामक एक व्यवसायी ने आरोप लगाया, ‘मुझे यूएई के नंबरों से धमकी भरे कॉल आए, ज्यादातर सुनवाई की तारीखों से पहले आए. मैंने इसकी सूचना पुलिस को दी और जज के सामने भी इसका जिक्र किया.’

‘सांप्रदायिक हत्याओं’ के आधिकारिक आंकड़ों का ब्योरा संभालने वाले एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि प्रशांत की हत्या 2014 के बाद से जिले में अनुमानित तौर पर करीब एक दर्जन हत्याओं में से एक है.

उन्होंने कहा कि पीड़ितों में कम से कम सात हिंदू समूहों के सदस्य थे. किसी भी मामले में कोई दोष सिद्ध नहीं हुआ और इन सभी मामलों में अदालती कार्यवाही जारी है.

कुछ पर्यवेक्षकों के मुताबिक, हालांकि, सांप्रदायिक अपराधों के शिकार हिंदू परिवारों के साथ उनके मुस्लिम समकक्षों की तुलना में बेहतर व्यवहार किया जाता है.

मंगलुरु की एक राजनीतिक विश्लेषक विद्या दिनकर ने दिप्रिंट को बताया, ‘मुख्यमंत्री ने प्रवीण नेत्तारू के घर का दौरा किया और बतौर मुआवजा उनके परिवार को 25 लाख का चेक सौंपा. उन्होंने मसूद या फाजिल के केस में ऐसा नहीं किया, जबकि वे भी हेट क्राइम के शिकार बने थे.’


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परिवार में दरार?

सांप्रदायिक हत्याओं के बाद आमतौर पर भाजपा (और संघ परिवार के सदस्य) और इस्लामी संगठन दोनों एक-दूसरे पर उंगली उठाते हैं.

इस बार जो बात अलग है, वो यह है कि पिछले महीने हुई हत्याओं ने संघ परिवार और भाजपा के भीतर भी दरार पैदा कर दी है.

भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) के सदस्य प्रवीण नेत्तारू की हत्या से स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं में गंभीर नाराजगी है, जिन्होंने घटना पर अपने वरिष्ठ नेताओं की प्रतिक्रिया को ‘असंवेदनशील’ बताया है. ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई, जो आरएसएस से नहीं हैं, ने इस तरह की सांप्रदायिक घटनाओं से निपटने की अपनी शैली को लेकर संघ परिवार को नाराज कर दिया है.

मंगलुरु में आरएसएस के मीडिया और प्रचार प्रभारी सूरज कुमार ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि प्रशांत पुजारी (हत्या के समय कांग्रेस सत्ता में थी) और प्रवीण नेत्तारू की हत्याएं ‘पुलिस की तरफ से खुफिया नाकामी और मौजूदा सरकारों की विफलता को दर्शाती हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘ऐसी ताकतें हैं जो चुनाव से पहले अशांति पैदा करना चाहती हैं. प्रशांत पुजारी या प्रवीण नेत्तारू जैसे युवा कार्यकर्ता इसलिए मार दिए गए क्योंकि उनके पास कोई सुरक्षा कवच नहीं था. हमें उम्मीद थी कि सरकार अधिक सक्रिय रुख अपनाएगी.’

हालांकि, भाजपा के जिला प्रमुख सुदर्शन मूडबिद्री ने कहा कि सरकार हर किसी को सुरक्षा मुहैया नहीं करा सकती, लेकिन वह ‘जिहादी’ संगठनों पर नकेल कसने की कोशिश कर रही है.

उन्होंने कहा, ‘पीएफआई जैसे कट्टरपंथी जिहादी संगठन हिंदुओं के खिलाफ साजिश रच रहे हैं. हमें अपनी रक्षा खुद करनी होगी. प्रवीण की हत्या के केस में मुख्यमंत्री बोम्मई पहले ही एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) जांच की सिफारिश कर चुके हैं. एक बार मामला एनआईए के हाथ में आ जाने के बाद, हमें यकीन है कि वह पीएफआई के सांप्रदायिक और हिंदू विरोधी पूरे गठजोड़ का पता लगा लेगी.’

हालांकि, विपक्षी दलों का आरोप है कि ये घटनाएं भाजपा की चुनाव पूर्व राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हैं.


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‘चुनाव से पहले साजिश’

कथित प्रतिशोधात्मक हत्याओं के पीछे भड़काऊ राजनीति को हमेशा एक फैक्टर माना जाता रहा है, कुछ लोगों का दावा है कि चुनाव के आसपास आमतौर पर सांप्रदायिक भावनाएं भड़काई जाती हैं और कर्नाटक में अगले साल चुनाव प्रस्तावित हैं.

कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी (केपीसीसी) के कार्यकारी अध्यक्ष और राज्य के पूर्व गृह मंत्री रामलिंग रेड्डी ने कहा, ‘2018 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने कहा था कि 2013 से 2018 के बीच इस क्षेत्र में 23 हिंदुओं की हत्या हुई है.’

उन्होंने कहा, ‘हमने हर मामले की जांच की और पाया कि केवल आठ मामले राजनीतिक-सांप्रदायिक प्रकृति के थे, जबकि अन्य व्यक्तिगत मुद्दों और निजी दुश्मनी का नतीजा थे. हमने पुलिस रिपोर्ट भी प्रकाशित की. हालांकि, भाजपा ने इस बात का उल्लेख नहीं किया कि 16 मामले मुस्लिमों की हत्याओं से जुड़े थे. दक्षिण कन्नड़-मंगलुरु में 2014 से 2018 के बीच कम से कम 15-16 हत्याएं हुईं और उनमें से करीब सात मुस्लिम शिकार बने थे.’

वरिष्ठ कांग्रेस नेता और दक्षिण कन्नड़ संयुक्त मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष के. अशरफ ने कहा कि बोम्मई सरकार ने इस क्षेत्र में मुसलमानों को अलग-थलग कर दिया है. दिनकर की तरह, उन्होंने भी कहा कि सरकारी मुआवजे की घोषणा केवल नेत्तारू के लिए की गई थी, मुस्लिम पीड़ितों के लिए नहीं.

मंगलुरु शहर के पूर्व मेयर अशरफ ने कहा, ‘हर बार विधानसभा चुनाव से पहले, वे (भाजपा-आरएसएस) कोई साजिश रचते हैं और कुछ निर्दोष लोग मर जाते हैं, भले ही वे हिंदू हो या मुस्लिम.’

पीएफआई की राजनीतिक शाखा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) के राष्ट्रीय महासचिव इलियास मुहम्मद थुम्बे ने भी सरकार और ‘विफल’ कानून-व्यवस्था प्रणाली को जिम्मेदार ठहराया.

उन्होंने कहा, ‘जिले में जवाबी कार्रवाई में दर्जनों युवा मुस्लिम मारे गए. कांग्रेस के कई वरिष्ठ मुस्लिम नेता, जो पंचायत या नगर निकायों में थे, 1990 के दशक के दौरान यहां अपने कार्यालयों के अंदर मारे गए थे. मुस्लिम पक्ष की ओर से जवाबी कार्रवाई तो तब शुरू हुई जब उन्हें कोई समाधान नहीं मिला.’

उन्होंने कहा, ‘हमें पुलिस और प्रशासन से कोई मदद नहीं मिलती है. कांग्रेस ने भी कभी खुले तौर पर मुसलमानों का समर्थन नहीं किया क्योंकि उन्हें पता था कि वे इस क्षेत्र में वोट खो देंगे. और अंतत: उन्हें हारना भी पड़ा. तो मुसलमान क्या करें?’

एसडीपीआई पर प्रतिबंध के आह्वान के बारे में थुम्बे ने कहा कि पार्टी ने ऐसा कदम उठाने के लिए कुछ नहीं किया. उन्होंने कहा, ‘(भाजपा) ने हमें प्रतिबंधित नहीं किया क्योंकि वे हमें प्रतिबंधित कर ही नहीं सकते. वे कुछ भी साबित नहीं कर सकते. हम न्यायपालिका में विश्वास करते हैं.’


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दक्षिण कन्नड़ में स्थिति इतनी विस्फोटक क्यों है?

66 प्रतिशत हिंदुओं, 22 प्रतिशत मुसलमानों और लगभग 9 प्रतिशत ईसाइयों की आबादी के साथ दक्षिण कन्नड़ दशकों से सांप्रदायिक तनाव का केंद्र रहा है.

राजनीतिक समाजशास्त्र के विशेषज्ञ प्रोफेसर मुजफ्फर एच. असदी ने कहा कि उनकी राय में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष की जड़ें 1980 के दशक की उथल-पुथल भरी अवधि से जुड़ी हैं, जब भूमि सुधारों के कारण अधिक ओबीसी लोगों को भूमि का स्वामित्व मिला. उन्होंने कहा कि समय के साथ जैसे-जैसे सामाजिक आर्थिक जनसांख्यिकी बदली, इन समुदायों के बीच शत्रुता बढ़ती गई.

उन्होंने कहा, ‘(हिंदू ओबीसी को) उनके भूमि अधिकार मिल गए लेकिन वे अभी भी अपनी सामाजिक पहचान के लिए लड़ रहे थे. कुछ पैसे हाथ में आने पर उन्होंने मांस-मछली और ऐसे अन्य खाद्य-संबंधित बाजारों में व्यापार करना शुरू कर दिया, जिनमें मुसलमानों का वर्चस्व हुआ करता था. बाद में दोनों समुदायों को खाड़ी देशों में कमाने गए परिवार के सदस्यों के जरिये धन मिलने लगा और फिर उनके बीच टकराव तेज हो गया. राजनीतिक संरक्षण और हिंदुत्व और इस्लामी ताकतों के उदय के साथ इस तरह की हत्याओं के जरिये ताकत दिखानी शुरू की गई.’

लोकनीति (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) के राजनीतिक वैज्ञानिक और राष्ट्रीय समन्वयक संदीप शास्त्री ने कहा कि इस क्षेत्र में सांप्रदायिक हत्याओं की घटनाएं नई बात नहीं हैं.

क्षेत्र में काफी काम करने वाले और कर्नाटक की राजनीति पर कई किताबें लिख चुके शास्त्री कहते हैं, ‘1983 में जब भाजपा को अपनी स्थापना के तीन वर्षों के भीतर ही कर्नाटक में 18 सीटें मिलीं, तो इसमें एक बड़ी संख्या दक्षिण कन्नड़ की सीटों की भी थी. यहां भगवा ताकतें हमेशा से ही मजबूत रही हैं और इसकी प्रतिक्रिया में इस्लामी संगठन भी अपना प्रभाव बढ़ाने लगे. क्षेत्र में ऐसी सांप्रदायिक हत्याओं का इतिहास रहा है और यह 1980 के दशक में शुरू हुआ था.’

उनके मुताबिक, इस क्षेत्र का ‘जनसांख्यिकीय विभाजन’ कर्नाटक के अन्य स्थानों से काफी अलग है. उन्होंने कहा, ‘इसमें हिंदू बहुसंख्यक हैं लेकिन मुसलमानों और ईसाइयों की आबादी भी काफी ज्यादा है.’

शास्त्री ने कहा, ‘यह जिला मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा हुआ करता था और साक्षरता दर बहुत अधिक थी. और फिर आकांक्षा भी बहुत थीं. खाड़ी देशों में कमाने गए लोग यहां काफी पैसा भेजते रहे हैं और यह किसी विशिष्ट समुदाय के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए है. दोनों पक्षों के पास वित्तीय और संस्थागत समर्थन है और दोनों अपनी मौजूदगी को उभारना चाहते हैं.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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