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Friday, 22 November, 2024
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क्या सत्यव्रत चतुर्वेदी के बाहर जाने से बुंदेलखंड में कांग्रेस का खेल बिगड़ जाएगा!

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चतुर्वेदी अपने बेटे को टिकट न मिलने पर नाराज हुए और सपा से चुनाव लड़ रहे बेटे के लिए प्रचार कर रहे हैं.

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भोपाल: एक कहावत है कि आप पसंद करें, ना पसंद करें, मगर नजरअंदाज नहीं कर सकते. मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के दो नेताओं- भारतीय जनता पार्टी की उमा भारती और कांग्रेस के सत्यव्रत चतुर्वेदी पर यह कहावत पूरी तरह लागू होती है. उमा भारती की तो वर्षों पहले भाजपा में वापसी हो गई, अब सत्यव्रत चतुर्वेदी को कांग्रेस से बाहर कर दिया गया है.

चतुर्वेदी की पहचान पूरे बुंदेलखंड एक साफ छवि के नेता की है. वह अपने मुद्दों और बात पर किसी से टकराव करने में नहीं हिचकते, यही कारण है कि कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के निशाने पर रहते हैं. कई बार उन्हें साइडलाइन करने की कोशिश हुई, मगर ऐसा हो नहीं पाया. इस बार चतुर्वेदी के बेटे नितिन चतुर्वेदी पार्टी का टिकट न मिलने पर कांग्रेस से बगावत कर समाजवादी पार्टी के टिकट पर छतरपुर जिले के राजनगर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं.

पिछले दिनों चतुर्वेदी ने कांग्रेस के नेताओं पर ही धोखा देने का आरोप लगा दिया, उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर की. चतुर्वेदी की नाराजगी को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी जायज ठहराते हैं और कहते हैं कि राजनगर से नितिन को पार्टी का उम्मीदवार बनाने पर सहमति बनी थी, मगर ऐसा हो नहीं पाया, क्योंकि स्थानीय विधायक विक्रम सिंह उर्फ नाती राजा जो चुनाव लड़ने से मना कर चुके थे, अपनी बात से मुकर कर चुनाव लड़ने पर अड़ गए.

वहीं सत्यव्रत लगातार एक ही बात कह रहे हैं कि कांग्रेस उनकी रगों में है, वे जन्मे कांग्रेस परिवार में हैं और उनकी अंतिम सांस भी कांग्रेस के लिए ही है, जहां तक बात राजनगर चुनाव की है तो वे बेटे के लिए लिए वही फर्ज निभाएंगे, जो एक पिता को निभाना चाहिए.

बुंदेलखंड के राजनीतिक विश्लेषक रवींद्र व्यास का कहना है कि सत्यव्रत की पहचान उनकी कार्यशैली और जुझारू व्यक्तित्व के कारण है, वे पूरे जीवन उन ताकतों से लड़े जो कांग्रेस को कमजोर करती रही, अब भी उनकी लड़ाई अपने तरह की है. वह कांग्रेस का विरोध नहीं कर रहे हैं, मगर बेटे के लिए वोट मांग रहे हैं. एक पिता को यह तो करना ही होगा, कांग्रेस चतुर्वेदी को निष्कासित करने की कोशिश कर रही है, कांग्रेस अगर ऐसा करती है तो नुकसान उठाने को भी उसे तैयार रहना चाहिए.

सत्यव्रत चतुर्वेदी की मां विद्यावती चतुर्वेदी लोकसभा सांसद रहीं, उनकी इंदिरा गांधी से काफी करीबी थी, सत्यव्रत के पिता बाबूराम चतुर्वेदी राज्य सरकार में मंत्री रहे. विद्यावती-बाबूराम चतुर्वेदी ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था.

चतुर्वेदी की पहचान ऐसे नेता के तौर पर है, जो जिद्दी, हठी है और अपनी बात कहने से किसी से हिचकता नहीं है. यही कारण है कि उनकी वर्तमान दौर के नेताओं से ज्यादा पटरी मेल नहीं खाती. संभवत: देश में कम ही ऐसे नेता होंगे जो इस स्तर पर पहुंचने के बाद भी बगैर सुरक्षाकर्मी के चलते हों, उनमें चतुर्वेदी एक हैं.

चतुर्वेदी का राजनीतिक जीवन-उतार चढ़ाव भरा रहा है. अर्जुन सिंह की सरकार में उप-मंत्री थे, न्यायालय का फैसला उनके खिलाफ आया तो पद से इस्तीफा देना पड़ा, दिग्विजय सिंह से टकराव हुआ तो विधानसभा की सदस्यता त्याग कर संन्यास ले लिया. सोनिया गांधी के कहने पर संन्यास छोड़कर खजुराहो से लोकसभा का चुनाव लड़े और जीते, उसके बाद का चुनाव हार गए.

अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह से उनका टकराव जग-जाहिर रहा, मगर कांग्रेस ने समन्वय समिति में उन्हें रखा तो वे सारे मतभेद को भुलाकर इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के लिए दिग्विजय सिंह के साथ पूरे प्रदेश के दौरे पर निकल पड़े. जब बेटे को टिकट नहीं मिला तो नाराजगी जाहिर की और अब कांग्रेस के दरवाजे पर बाहर जाने को खड़े हैं.

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