बालासाहेब ठाकरे एक जननेता थे या एक माफिया? हकीकत में, उनके समर्थक और विरोधी दोनों ही उनके बारे में बढ़-चढ़ कर कहेंगे, पर दोनों पक्षों की इस बात पर सहमति होगी कि वह अपने आप में अनूठे और ओरिजिनल थे.
वह कितने ओरिजिनल थे, इसका एहसास मुझे एक दशक पहले तब हुआ जब अपने ‘नेशनल इंटरेस्ट’ कॉलम में मैंने उन्हें और उनकी पार्टी को माफिया करार दिया, उस शनिवार की देर शाम मेरे फोन की घंटी बजी. मैं नई दिल्ली के ओबेरॉय होटल के बेसमेंट स्थित रेस्तरां बान थाई (2005 में बंद) में अपने परिवार के साथ डिनर कर रहा था. यह कॉल मुंबई से था, बालासाहेब का. बेहतर फोन सिग्नल की उम्मीद से मैं बाहर निकला, अपनी आलोचना सुनने के लिए खुद को तैयार करता हुआ.
पर उनसे सौम्यता टपक रही थी. उन्होंने कहा, ‘शेखरजी, जो भी मेरे लिए बुरा लिखते हैं, आप उनमें से सर्वाधिक रुचिकर ढंग से लिखते हैं.’ ‘धन्यवाद, बालासाहेब,’ मैंने राहत की सांस लेते हुए कहा. ‘तो आपके बारे में इतने रुचिकर ढंग से बुरा लिखने पर आप मेरे लिए क्या करने जा रहे हैं?’
उन्होंने मुझसे अगले गुरुवार को मातोश्री में डिनर की पेशकश की, इस सुझाव के साथ कि मैं साथ में पत्नी को भी लाऊं. उन्होंने यह भी पूछा कि हम शाकाहारी या मद्यपान नहीं करने वाले तो नहीं हैं. यह जानने के बाद उन्होंने फिर से गर्मजोशी दिखाई कि हम पर दोनों ही बातें लागू नहीं होतीं.
‘आप गुप्ता होकर भी ये सब कुछ करते हैं?’ उन्होंने सवाल किया. ‘जब आप ठाकरे होकर इतना कुछ कर सकते हैं…’ मेरा जवाब था.
अगले गुरुवार को उनके घर पर हमने इस बातचीत को आगे बढ़ाया. उद्धव और उनकी पत्नी रश्मि हमारे साथ थे और उनके छोटे-छोटे बच्चे लिविंग रूम में खेल रहे थे. उनकी पार्टी के सांसद और विश्वासपात्र बीके देसाई भी वहां मौजूद थे, जिनका एकमात्र काम था उत्साहपूर्वक बालासाहेब की हां में हां मिलाना.
अधिकांश बातचीत अपेक्षित मुद्दों पर हुई, जब तक कि माइकल जैक्सन के साथ उनकी मढ़ी हुई तस्वीर की ओर इशारा करते हुए मैंने उसके बारे में उनकी राय नहीं जाननी चाही. यह भी कि क्या उन्हें भी लगता है कि उसके चेहरे की चमड़ी उतर रही है.
‘यह मुझे नहीं पता,’ उन्होंने कहा, पर माइकल जैक्सन से जुड़ा अपना पसंदीदा वृतांत सुनाते हुए उनकी आंखें चमक उठीं.
जैक्सन के साथ ‘एक महिला और कई बच्चे थे, और उनमें से एक ने पूछा कि टॉयलेट किधर है’, बालासाहेब ने अपने लिविंग रूम से सटे टॉयलेट के दरवाजे की ओर इशारा करते हुए बताया. इसके बाद, उन्होंने बताया, एक के बाद एक सभी बच्चे टॉयलेट के भीतर चले गए. ‘उनके पीछे-पीछे माइकल जैक्सन और वह महिला भी अंदर गई’, उन्होंने बताया. ‘उसके बाद, उन्होंने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और आधे घंटे तक बाहर नहीं आए’, उन्होंने बताया, और सचमुच प्रतीत होते विस्मय के साथ सवाल किया, ‘तो आपको क्या लगता है, वे सब एक साथ अंदर क्या कर रहे थे?’
सब हंसने लगे. रॉक और फिल्म सितारों और घोषित सुंदरियों के प्रति उनका लगाव क्यों था, क्यों भारत की सारी मिस वर्ल्ड सुंदरियों को उनसे मिलने आना होता था? सितारों पर मुग्धता से जोड़े जाने के संकेतों को खारिज करते हुए उन्होंने कहा, ‘मेरी बहू किसी मिस वर्ल्ड से भी ज़्यादा खूबसूरत है.’ पर सच्चाई यही है कि ग्लैमर की दुनिया से उनका लगाव सच में था, और बहुत राजनीतिक था.
क्रिकेट और सिनेमा में उनकी दखलअंदाज़ी आदतन से कहीं ज़्यादा रणनीतिक और राजनीतिक उद्देश्यों से होती थी. सितारों को, अनेक मुस्लिम सितारों समेत, समर्थन और, बमुश्किल छुपाए उद्देश्य सुरक्षा, के लिए उनके पास आना पड़ता था.
यदि सिनेमा से लेकर क्रिकेट तक और फैशन से लेकर टेलीविजन तक मुंबई भारत की लोकप्रिय संस्कृति की राजधानी थी, तो बालासाहेब ने राजनीति प्रभाव विस्तारक की इसकी क्षमता को सबसे पहले और अपने प्रतिद्वंद्वियों से बेहतर समझा था.
जब भी उन्होंने किसी फिल्म, सितारे या क्रिकेट मैच पर रोक लगाने की धमकी दी, या किसी भी तरह का सितारा उनसे मिलने आया, उनके लिए दो बातों की गारंटी होती थी: तत्काल खबरों की सुर्खियों में आना, और तमाम कानूनी एवं संवैधानिक अधिकारियों से ऊंची शक्ति होने की धारणा.
यदि माइकल जैक्सन का कोई कार्यक्रम उनकी स्वीकृति से ही संभव हो सकता था, तो फिर माइकल जैक्सन के पास उनके घर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, जिसकी वज़ह से वहां टेलीविजन ओबी वैन की कतार लग गई. और फिर यदि उनके मुनीमजी ने ऐसे कार्यक्रमों के आयोजकों से थोड़ा ख्याल रखने के लिए कहा हो, तो किसी को ना कहने की भला हिम्मत होती? और क्या कोई इसे वसूली या बालासाहेब को माफिया कहने की हिम्मत कर पाता?
उन्होंने कभी निर्वाचित हुए बगैर मुंबई के असल शासक वाली इस छवि को गढ़ने के लिए कांग्रेस सरकारों और मनोरंजन जगत दोनों की ही भीरुता का उपयोग किया. बाघ की खाल वाले उनके सिंहासन के ठीक पीछे टंगी माइकल जैक्सन के साथ मढ़ी तस्वीर उनकी सबसे मूल्यवान ट्रॉफी थी, जो आपको बताती थी कि दुनिया के सबसे धनवान और प्रसिद्ध सितारों को मुंबई में कार्यक्रम करने के लिए उन्हें सलाम करना पड़ता है.
अपनी पार्टी पर उनकी जकड़ ऐसी थी, और उनकी विचारधारा इतनी अस्थिर थी कि वह 1993 के सिलसिलेवार बम धमाके मामले में सभी आरोपियों के लिए मौत की सज़ा की मांग करने के साथ ही आधे मुस्लिम संजय दत्त की पैरवी भी कर सकते थे.
उन्होंने ऐसा कोई संजय दत्त को निर्दोष या उनके पिता सुनील को दोस्त मानने के कारण नहीं किया. उन्होंने सिर्फ इसलिए ऐसा किया कि दोनों प्रसिद्ध थे, और सुनील पहले से ही कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में शुमार थे. यदि महानगर के एक लोकप्रिय और प्रभावशाली कांग्रेस नेता, असल में केंद्रीय मंत्री, को आकर आपसे अपने बेटे पर रहम की गुहार लगानी पड़े तो प्रचार के साथ-साथ असाधारण ताक़त की धारणा का प्रसार सुनिश्चित था.
लोग आपको डॉन, माफिया या सरकार, जैसा कि सीनियर बच्चन ने 2005 में आई रामगोपाल वर्मा की इसी नाम की फिल्म में भूमिका निभाई है, कह सकते हैं, पर यह ऐसी ताक़त है जिसे आप वोट या नकदी या दोनों ही रूप में भुना सकते हैं. वास्तव में, सहानुभूति और शोक के लिए भी. याद कीजिए उनकी अंत्येष्ठि के समय बॉलीवुड सितारे किस तरह उदास और ग़मज़दा दिख रहे थे. वे जान रहे थे कि बालासाहेब की संतान उनकी वंशपरंपरा को आगे बढ़ाएगी. ऐसे में कैमरे के सामने एक बार फिर प्रदर्शन क्यों नहीं किया जाए? बनावटी रूप दिखाना आखिर उनका व्यवसाय ही तो है.
जैसे उन्होंने मुंबई पर नियंत्रण के लिए लोकप्रिय संस्कृति के उपयोग में महारत हासिल की थी, उन्हें मीडिया की ताक़त का भी अंदाज़ा हो गया था, खासकर एक आमतौर पर शिक्षित महानगर के संदर्भ में. उन्होंने अपनी पार्टी और वंश के लिए ‘सामना’ अखबार को खड़ा किया और इसके संपादकीय लेखों के ज़रिए संवाद किया. उनकी पार्टी के मुखपत्र के रूप में ‘सामना’ बंगाल में माकपा के अखबार ‘गणशक्ति’ से भी ज़्यादा प्रभावशाली था.
उन्होंने शिवाजी पार्क में दशहरा पर भाषण देने का विचार शायद आरएसएस के सरसंघचालक से लिया था. वे जनता के समक्ष अधिकतर सिर्फ इसी मौक़े पर बोलते थे और अगली सुबह वह सुर्खियों में नियमित रूप से सरसंघचालक को पीछे छोड़ते रहे. वह अपना मीडिया मैनेजर और मैनिपुलेटर खुद ही थे. वह धमकी और आकर्षण को मिलाकर काम लेते थे, पर अलग-अलग तरह से.
गुंडे नियमित रूप से मराठी मीडिया के दफ्तरों और संपादकों के घरों में तोड़फोड़ किया करते थे, जबकि वे स्वयं अपने व्यक्तिगत आकर्षण का इस्तेमाल अंग्रेज़ी के पत्रकारों पर करते थे. ऐसा कहने पर, उन्होंने यदि अकृतज्ञ नहीं, तो इतना अशिष्ट होने के लिए मुझे लताड़ा होता, पर डिनर का आमंत्रण संभवत: मीडिया ‘प्रबंधन’ के उनके इस शातिराना, विशिष्ट रणनीति का सबूत था. उन्हें बहुत कुछ कहा गया, और सबसे अधिक, विरोधाभासों के केंद्र के रूप में चित्रित किया गया. पर उनकी राजनीति का सबसे सही चित्रण होगा- अविश्वासी.
आप कई बार सोचते होंगे कि क्या सचमुच वे गैर-मराठियों, ईसाइयों, मुसलमानों, यहां तक कि पाकिस्तानियों से उतनी घृणा करते थे जितना कि प्रदर्शित करते थे. वह पाकिस्तान के मुंबई में क्रिकेट खेलने पर मुंबई को जला डालने की धमकी देते थे, पर जावेद मियांदाद के मिलने आने पर बस श्रीखंड और शहद. दोनों ही स्थितियों में उन्होंने सुर्खियां बटोरीं और अपनी ताक़त की पुष्टि कराई. संभवत: एक निष्पक्ष चित्रण ये होगा कि उन्होंने तमाम घृणा और प्रतिरोध का इस्तेमाल खुद के ब्रांड निर्माण के साधनों के रूप में किया.
मार्केटिंग की भाषा में कहें तो, वह अपना ब्रांड मैनेजर खुद थे. मानवीय स्तर पर, हम कभी भी निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि वह सचमुच उन सभी लोगों से घृणा करते थे जिन्हें उन्होंने कोसा और दुत्कारा. सिर्फ एक ही बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है: अपने समकालीन फिल्म सितारे देवानंद की तरह, वह एक पूर्ण आत्ममुग्ध व्यक्ति थे.
मैंने उस डिनर के कई वर्षों बाद बालासाहेब से अपने परिचय को ताज़ा किया. या यों कहें कि उन्होंने किया. जनवरी 2007 में उद्धव ने मुझे फोन किया कि बालासाहेब 80 साल के हो रहे हैं, और वे मुझे एक बेलाग इंटरव्यू देना चाहते हैं, पर वे इस दौरान चलेंगे नहीं.
बालासाहेब ने खुद इस बात का ध्यान रखा कि इसके लिए सही पृष्ठभूमि तैयार हो. पीछे की तरफ बाघ, व्हाइट वाइन से भरे दो गिलास और एक बोतल भी, साज-सज्जा का पूरा इंतजाम था. जैसा कि उद्धव ने भरोसा दिलाया था, उन्होंने किसी भी सवाल को नहीं टाला, उन्हीं दिनों अलग हुए भतीजे राज से संबंधित सवाल को भी नहीं.
‘उसमें और उद्धव में क्या अंतर था,’ उन्होंने निराशा के साथ सवाल किया. ‘वह मेरी गोद में खेलता था, हमेशा मुझे गीला करता रहता था. परंतु यदि मुझे एक को चुनना है, तो एक बेटा है और दूसरा भतीजा.’ सिर्फ इसी पल वे सचमुच में थोड़ा भावुक दिखे.
वह फिर से सामान्य हो गए जब हमारे बीच ‘चित्रकार’ हिटलर, ‘सुस्त कवि’ वाजपेयी, मुसलमानों, पाकिस्तानियों आदि पर बातें हुईं. और भ्रष्टाचार? मैंने पूछा कि उन्होंने सुरेश प्रभु को क्यों निकलवाया जबकि वह इतने सक्षम और ईमानदार थे.
‘आप कहते हैं वह ईमानदार थे?’ उन्होंने सवाल किया. और फिर उन्होंने प्रमोद महाजन से हुई एक बातचीत का उल्लेख किया कि प्रभु कोई ‘योगदान’ देने से मना करते थे, यह दावा करते हुए कि वह बिजली या पर्यावरण मंत्री के रूप में कोई पैसा नहीं बना रहे थे.
उन्होंने बताया, ‘प्रमोद ने मुझसे कहा कि यदि (एनडीए के) मंत्रिमंडल का कोई भी सदस्य दावा करे कि वह कोई पैसा नहीं बना पा रहा है, तो या तो वह झूठा है या बेवकूफ.’ इसलिए क्यों, उन्होंने कहा, ‘मुझे एक चोर या बेवकूफ को केंद्रीय मंत्री रखना चाहिए.’ बता दूं कि यह सब पूरी तरह रिकॉर्डेड है. अब मुझसे मत पूछें कि क्यों मैं अविश्वास को उनकी राजनीति की विशिष्टता कहता हूं.
‘क्या आप एक माफिया हैं?’ मैंने फिर पूछा.
‘मैं जानता हूं आपने पहले भी ऐसा लिखा है. पर मुझे एक बात बताइए. यदि मैं सचमुच में एक माफिया होता, तो आपको लगता है कि आपकी हिम्मत होती (ज़ोर देते हुए) यहां आने और इस तरह बातें करने की?’ उन्होंने कहा.
शैली और रणनीतियों को छोड़ भी दें तो एक और बात थी जो बालासाहेब को भारत के राजनीतिक वर्ग से अलग करती थी. क्षेत्रीय और जातीय नेताओं से भरे शीर्षस्थ राजनीतिकों की पांत में वही एकमात्र विशुद्ध क्षेत्रवादी नेता थे. ऐसे समय जब पंजाब में अकाली अपनी सहयोगी भाजपा के मुकाबले अधिक संख्या में हिंदू विधायकों को जिता रहे थे, और गोवा में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के ज़्यादा संख्या में ईसाई विधायक निर्वाचित हुए, वह अपने मराठी (हिंदू) मानूस के फार्मूले पर कायम रहे. इसके अलावा और कुछ, एक ब्रांड मैनेजर जैसी शातिराना एकनिष्ठता के कारण उन्हें पता था, उनके ‘ग्राहकों’ को दिग्भ्रमित करेगा.
पुनश्च: फिर भी, ऐसा लगता है, कम से कम एक बार, उनके अनुसार, उन्होंने धोखा खाया और वह भी एक कवि-पत्रकार के हाथों. उस डिनर के दौरान, उनका पोता आदित्य डब्ल्यूडब्ल्यूएफ (मनोरंजन कुश्ती, वन्यजीव नहीं) वाली एक टीशर्ट पहने उछल-कूद कर रहा था. टीशर्ट पर एक सिर मुंडाए पहलवान की तस्वीर बनी थी, शायद प्रसिद्ध पहलवान पापा शैन्गो की.
‘ये क्या, मूर्ख प्रीतीश नंदी की शर्ट पहन के घूम रहा है,’ उन्होंने कहा. ‘वह आपकी पार्टी के सांसद हैं,’ मैंने कहा. ‘कैसे आप उनके बारे में अपमानजनक बातें कर सकते हैं?’ सचमुच में उलझन में पड़कर मैंने पूछा.
‘ठीक है. मूर्ख तो मैं हूं, प्रीतीश नहीं. उसने मुझसे राज्यसभा ली और मुझे बहुत बाद में पता चला, काफी देर से, कि वह ईसाई है.’
(यह लेख पहली बार 24 नवंबर 2012 को प्रकाशित हुआ था. इसे अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)