मोदी-भाजपा गलियों और सड़कों से संकेत ग्रहण करते हैं और उसी मिजाज के संदेश देते हैं. इसने कांग्रेस को उलझन में डाल दिया है और भाजपा विरोधी कुलीन तबके को अलग-थलग कर दिया है.
पांच साल पहले मैंने अपने इस स्तम्भ में ‘देम वर्सेस देम’ (वे बनाम वे) शीर्षक लेख में सार्वजनिक विमर्श के मामले में भारत के प्रभावशाली कुलीन तबकों की उस अनूठी खाई का अंदाज़ा लगाने की कोशिश की थी जिसे सरकारी तबके बनाम शासक तबके के बीच की खाई के रूप में चिह्नित किया जा सकता है. इस तरह के सरकारी तबके में राजनेताओं, नौकरशाहों, न्यायपालिका, पारंपरिक बुद्धिजीवियों तथा पत्रकारों, पुलिस तथा सेना के अधिकारियों को शामिल किया जा सकता है. शासक तबके में औपचारिक सत्ता प्रतिष्ठान से बाहर पड़े आर्थिक रूप से सम्पन्न भारतीयों- कॉरपोरेटों, नए प्रोफेशनलों (खासकर आइटी तथा बैंकिंग/वित्त क्षेत्र के), सरकारी कुलीनों की पुरानी पीढ़ी की संतानों, फाउंडेशन के पैसे पर काम करने वाले एक्टिविस्टों- को शामिल किया जा सकता है.
मुद्दा यह था कि पारंपरिक कुलीनों और नए कुलीनों में इतनी कम समानता है कि ये दोनों दो स्वतंत्र गणराज्यों की तरह हैं- एक-दूसरे के प्रति शंकालु और आक्रामक. इसलिए इस स्थिति को ‘देम वर्सेस देम’ कहा था.
सात प्रतिशत से ऊपर की आर्थिक विकास दर, और नरेंद्र मोदी के ध्रुवीकरण वाले राज के इन पांच सालों में हम उस अपेक्षाकृत सरल समीकरण से आगे बढ़ गए हैं. दोनों कुलीन तबकों में दूरी कायम है मगर उनका चरित्र बदल गया है. पुराने ‘देम’ ने खुद को कुलीनत्व से मुक्त करने की ज़ोरदार कोशिश की है. नेता और नौकरशाह अब ज़्यादा सादगी से जीने लगे हैं, पांच सितारा होटलों या चमकदार पार्टियों में देखे जाने से या खुद अपनी पार्टियों में शराब अथवा लज़ीज़ व्यंजन परोसने से डरने लगे हैं. मोदी युग का यह सत्तातंत्र अपनी ताकत नियम-कायदों की किताबों से ज़्यादा सड़कों से हासिल करता है.
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दूसरा जो कुलीन तबका है उसमें भी बदलाव आया है. मोदी-भाजपा सरकार को यह तबका भदेस, असभ्य, अनुदार, हिंदीभाषी ‘देहाती’ मानता है और इसलिए इसकी शैली तथा स्वभाव के कारण खुद को इससे अलग-थलग मानता है. इस वजह से यह अपने सुरक्षित बंकरों में सिमट गया है. लेकिन दोनों तबकों में दलबदल हुए हैं. कॉरपोरेटों ने शासक तबके से दलबदल कर लिया है, तो शीर्ष न्यायपालिका ने इसमें प्रवेश कर लिया है. एक उभरता समूह भी इसमें दाखिल हो गया है. यह समूह है पत्रकार-एक्टिविस्टों का. इस अदलाबदली को आप ठीक भी मान सकते हैं. लेकिन आप पाएंगे कि यह विचार जितना ठीक लगता है उतना है नहीं. इसमें अपनी कमियां और पेंच भी हैं. वैसे, जैसा कि अमेरिकी मीडिया में इन दिनों कहा जाता है कि जब आप पेंचों को समझने लगते हैं तो मूल विचार ही हाथ से छूट जाता है.
इसलिए फिलहाल तो पेंचों को भूल जाएं, और ‘देम वर्सेस देम’ के प्रकरण में आए इस मोड़ को एक नाम दें, जिसे आप याद रख सकें. इसे हम कांवड़िया बनाम हैलोवीन कह सकते हैं. कांवड़िए वे लाखों शिवभक्त हैं जिन्हें आप हर साल मानसून के दौरान गंगाजल लेने के लिए हरिद्वार की पदयात्रा करते देख सकते हैं. हैलोवीन अमेरिका का ‘ट्रिक और ट्रीट’ उत्सव है जिसमें अब ऊपरी तबका भी भाग लेने लगा है और इसे ‘उत्कृष्टता’ का प्रतीक तथा एक ‘स्वच्छ’ त्योहार माना जाने लगा है. ज़रा इसकी तुलना ‘उनके’ शोरशराबे तथा धुएं वाली दिवाली या हुड़दंगी होली, नदियों को प्रदूषित करने वाली पूजा, खूनी बक़रीद आदि से कीजिए. अरे आप! इन कांवड़िए जैसों को कैसे सभ्य बना पाएंगे?
हमारे जो उक्त दो मूल प्रतिद्वंद्वी हैं, उनकी चिंताएं व्यापक तौर पर समान थीं. लेकिन इन चिंताओं के निवारण के उनके उपाय भिन्न थे. एक जो था उसे अपने ऊपर, सरकार के ऊपर भरोसा था. दूसरे को सरकार से कोई मतलब नहीं था, वह अपने साधनों और उपकरणों पर भरोसा रखता था- निजी डीज़ल जेनसेट, बोरवेल, प्राइवेट सुरक्षा-स्कूल-अस्पताल-एयरलाइन-कार पर. लेकिन सरल शब्दों में कहें तो, दोनों तबकों का सरकारी अस्पतालों, स्कूलों, रेलवे, सार्वजनिक परिवहन में कोई दांव नहीं था.
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अब, मोदी के पांचवें साल में सरकारी व्यवस्था ज़्यादा लोकलुभावन, मध्य तथा निम्नमध्य वर्गों में अपने वोटबैंक के प्रति ज़्यादा उन्मुख, वोटों को लेकर ज़्यादा सचेत है; और आर्थिक तथा बौद्धिक रूप से समृद्ध तबकों को छोटी महामारी की तरह मानता है. इसका नतीजा यह है कि सभी विरोधियों को अवांछित मान लिया जाता है. वफ़ादारों के संख्याबल के बूते यह सरकार ‘पश्चिमी’, ‘हिन्दू विरोधी’ अदालतों और उनके फैसलों को उपेक्षा की दृष्टि से देखती है.
अगर आप राजनीति में विरोध की तलाश कर रहे हैं तो आपको निराश होना पड़ेगा. इस पर द्विपक्षीय सहमति है. भाजपा और इसके समर्थक सबरीमाला और दिवाली के पटाखों पर अदालती आदेशों की मुखर आलोचना कर रहे थे, तो कांग्रेस चुप थी. इसकी दुविधाएं जब-तब उजागर होती रहती हैं. जैसे, राहुल गांधी कहते रहे हैं कि सबरीमाला पर उनकी निजी राय यह है कि हर उम्र की महिला को मंदिर में जाने दिया जाए, लेकिन उनकी पार्टी का विचार अलग है. शायद यही एक मुद्दा है जिस पर उनकी पार्टी ने उनसे असहमत होने की हिम्मत की.
समस्या यह है कि वे इतने आधुनिक और जोशीले हैं कि अपनी पार्टी के विचार को अपना नहीं सकते, और एक ऐसे राजनेता हैं कि अपने उदारवादी विचार पार्टी के गले में नहीं उतार सकते. आखिर, केरल तथा दूसरी जगहों पर इतने ज़्यादा हिन्दू वोटर हैं, जो अपनी आस्था तथा मंदिरों में अदालत एवं राज्यतंत्र के दखल को लेकर नाराज़ हैं. उधर तीन तलाक के मामले पर वे या उनकी पार्टी स्पष्ट उदारवादी रुख नहीं अपना सकती, जबकि भाजपा अपना सकती है. यह ढोंग दोनों तरफ बेहद ‘सेक्युलर’ है.
कांग्रेस और मुख्यधारा की दूसरी ‘सेक्युलर’ पार्टियां (वाम दलों को हम मुख्यधारा का नहीं मानते) इसी तरह दिवाली पटाखों के मामले में खामोश रहीं; और आइपीसी की धारा 377 के मामले में भी उनका यही हाल रहा. वे जानती हैं कि उनके वोट कहां हैं, अधिकतर वोट ‘कांवड़िया तबके’ में ही हैं. सो, इन आदेशों पर निकट भविष्य में नाराज़गी और उपहास ही हासिल होने वाला है. बेशक आप सुधार के संदेश उन तक ले जा सकते हैं, जैसे कि स्वच्छ भारत मिशन के ज़रिये ले जाया जा रहा है. लेकिन क्या इससे वोट मिलेगा? अरे आप नेता हैं कि समाज सुधारक?
अगर आस्था और अध्यात्म इस दूसरे ‘देम’ के लिए न सुलझने वाली पहेली है, तो राष्ट्रवाद भी एक और पहेली है. यह आपको दिलचस्प विरोधाभासों से रू-ब-रू कराता है- जैसे कुछ अदालती आदेशों की अवज्ञा लेकिन कुछ का पालन, भले ही उन्हें वापस ले लिया गया हो. ज़रा सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने के आदेश पर सभी दलों की चुप्पी पर गौर कीजिये, जिसे बाद में रद्द कर दिया गया. सिनेमाघरों ने अभी भी उसे बजाना बंद नहीं किया है, क्योंकि विशाल, विशाल बहुमत को इस पर कोई आपत्ति नहीं है. अपने राष्ट्रगान के लिए एक मिनट से भी कम समय तक खड़े रहने में भला क्या मुसीबत है?
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यह तर्क गोवध से लेकर नक्सलवाद तक तमाम मसलों पर लागू किया जाता है. कथित माओवाद समर्थकों की महाराष्ट्र पुलिस द्वारा गिरफ्तारी पर शुरू में तो अधिकतर विपक्षी दलों ने विरोध ज़ाहिर किया, मगर फिर चुप्पी साध ली. नरेंद्र मोदी बस्तर जाकर कांग्रेस को ‘अर्बन नक्सलों’ का समर्थक बता देते हैं, कांग्रेस को समझ में नहीं आ रहा की इसका प्रतिवाद कैसे करें. अगर वह यह कहती है की लोग किसी भी विचारधारा को मान सकते हैं, बिना हथियार उठाए क्रांति के लिए काम भी कर सकते हैं, तो ‘कांवड़िया’ समुदाय उसे कूड़ेदान में डाल सकता है.
अगर कांग्रेस छत्तीसगढ़ के वोटरों को याद दिलाये कि नक्सल आतंकवादियों ने वहां उसके पूरे नेतृत्व का सफाया कर दिया था, कि उसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हथियारबंद माओवाद को भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा कहा था, तो इससे बुद्धिजीवी तबके और शासक वर्ग के, जिसके समर्थन की वह उम्मीद रखता है, आला टीकाकारों को कोफ्त होगी. इसके अलावा, इसकी क्या व्याख्या होगी कि राज बब्बर ने पिछले महीने ही उन्हें ‘क्रांतिकारी’ कहा, या दिग्विजय सिंह ने उनके खिलाफ पी. चिदम्बरम की मुहिम में फ़च्चर फंसा दिया.
यह समूह ज़्यादा शोर मचाने लगा है, इसे सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना जो आ गया है. लेकिन यह मुख्यधारा की राजनीति से- जो कि असली सत्ता का स्रोत है- अगर कटा नहीं है तो काफी दूर हो गया है. आज जबकि उदारपंथी लोकतन्त्र भारी दबाव में है, यह कोई अच्छी खबर नहीं है.
भाजपा उन्हें दुश्मन मानती है, कांग्रेस उन्हें बोझ मानती है. वे भाजपा को लोकतन्त्र के लिए अभिशाप मानते हैं और मोदी को बिना मूछ वाला हिटलर. कांग्रेस उनके लिए एक दिग्भ्रमित, पस्त, नरम हिंदूवादी पार्टी है, जिसका नेता अपना जनेऊ लहराता मंदिर-मंदिर घूमता है. वाम दल एक दूरस्थ राज्य को छोड़ हर जगह खत्म हो चुके हैं. यही वजह है कि उन्हें अंग्रेज़ी मीडिया, ट्विटर, और बेशक हैलोवीन पार्टियों में सिमटा दिया गया है. इन पार्टियों में कुछ तो मोदी के भेष में, कुछ राहुल के भेष में, कुछ सोमाली डाकुओं के रोल में चेहरा काला किए, और एक तो ‘ग्रेटर नोएडा’ बनकर शरीक हुआ.
सबको साफसुथरी मस्ती के लिए सभ्य उत्सव चाहिए, जिसमे न तो शोर हो और न मूर्खताएं हों. मुझे बताया गया कि एक नया हैलोवीन ट्रेंड राफेल के रूप में आने वाला था.
जिन्हें मैं जानता था उनमें कोई भी कांवड़िया बनकर नहीं आया. ये प्रतिष्ठा के प्रतिकूल हैं, क्यों?
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