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Friday, 22 November, 2024
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चीन पर लगाम कसना कितना मुमकिन है?

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जब ब्याज दरें ऊपर चढ़ रही हैं, अमेरिका में मंदी ट्रम्प की आक्रामकता को कुंद कर देगी और अंत में चीन ही है जो फायदे में रहेगा.

हाल के वर्षों में चीन के विस्तारवाद और उसकी आक्रामकता में जो उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है, वह क्या उसे महंगी पड़ रही है? लगता तो ऐसा ही है. कई वर्षों से वह वणिकीय व्यापार तथा करेंसी नीति के साथ-साथ टेक्नोलॉजी की चोरी का घालमेल करके अपना मतलब साधता रहा और बेदाग बचता भी रहा है.

इसमें विदेश नीति के स्तर पर वह नई आक्रामकता भी दिखाता रहा है. लेकिन बेरोकटोक चल रही यह मुहिम डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा अमेरिका को हो रहे चीनी निर्यातों पर शुल्क ठोंक कर किए गए सीधे हमले से खत्म हो गई है. अमेरिका को भी चोट पहुंचेगी क्योंकि वहां के उपभोक्ताओं को ऊंची कीमत भरनी पड़ेगी. कुछ उत्पादन यूनिटों को चीन को छोडना पड़ सकता है. इस साल युवान की कीमत कई एशियाई मुद्राओं की तुलना में ज्यादा गिरी है.

इस बीच, उसका ‘बेल्ट ऐंड रोड’ (समुद्री तथा सड़क मार्ग से होने वाला) कारोबार एक के बाद एक कई देशों को चोट पहुंचा रहा है या नाकाम हो रहा है. इसका एक जाना-माना उदाहरण है श्रीलंका, जिसे अपना एक बन्दरगाह 99 साल के लिए, और कोलम्बो के समुद्रतट का एक हिस्सा चीन को सौंपने पर मजबूर किया गया.


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मलेशिया में बनी नई सरकार ने एक रेलवे लाइन और गैस पाइपलाइन का करार रद्द कर दिया है तथा तीन कृत्रिम द्वीपों पर शहर बसाने की परियोजना पर रोक लगा दी है. ये शहर अमीर चीनियों के लिए बसाए जाने वाले थे. यहां तक कि चीन के सदाबहार दोस्त पाकिस्तान में भी उसके साथ हुए कुछ करारों (जिनमें से अधिकतर गोपनीय ही हैं) की शर्तों को लेकर कोहराम मचा है.

वहां की नई सरकार ऐसी परियोजनाओं में कटौती कर रही है और कुछ पर फिर से सौदे करने को कह रही है. मालदीव चौथा देश है, जहां सरकार बदल गई है और वहां भी ऐसा ही कुछ हो सकता है. जाहिर है, चीन की ‘बेल्ट ऐंड रोड’ पहल एशिया में पैर पसारने के उसके इरादों की कामयाबी की बजाय असंतोष का स्रोत बन गई है.

काबिलेगौर बात यह है कि ‘बेल्ट ऐंड रोड’ परियोजनाओं का पुनर्मूल्यांकन सरकारों में परिवर्तन के बाद शुरू हुआ है, जो कि चीन के बस से बाहर की बात है. लेकिन वह ऐसे राजनीतिक बदलावों की जुगत भिड़ा सकता है, जो चुनावी नतीजों को बेअसर कर सकते हैं, जैसा कि श्रीलंका में हुई ताजा घटनाएं बताती हैं.


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मलेशिया, श्रीलंका, मालदीव और कुछ अफ्रीकी देशों में बड़ा मुद्दा यह है कि फरेबी या अव्यावहारिक परियोजनाओं पर करार करवाने में इन देशों के राजनेताओं को किस हद तक फुसलाया गया. अब दोबारा करार किए जाएंगे तो और विवाद भड़केंगे और ये महंगे साबित होंगे क्योंकि बात करार को रद्द करने की आती है तो चीन अब तक करारनामे पर ज़ोर देता आया है.

इस बीच, टेक्नोलॉजी के मोर्चे पर चीन को उलटे हमले का सामना करना पड़ रहा है. पश्चिम की कंपनियों से टेक्नोलॉजी चुराने और मजबूत नेटवर्कों को हैक करने का उसका रेकॉर्ड तो पुराना है ही, संदेह यह भी किया जाता है कि चीनी टेलिकॉम सॉफ्टवेयर में खुफिया यंत्र लगे होते हैं. सो, कुछ देशों ने इसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी है.

अमेरिका और कनाडा की तरह जर्मनी ने चीनियों द्वारा उच्च तकनीक वाली कंपनियों को खरीदने पर रोक लगा दी है. पश्चिमी देशों की सरकारें चौथी औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व करने की चीन की महत्वाकांक्षा को लेकर सचेत हो गई हैं. जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने इस मसले पर पूरे यूरोप में अभियान चलाने का सुझाव दिया है.

आस्ट्रेलिया ने सुरक्षा की खातिर हाल में दो चीनी कंपनियों- हुयावेई और जेडटीई- को 5जी नेटवर्क के लिए टेक्नोलॉजी मुहैया कराने से रोक दिया. इससे पहले अमेरिका ने हुयावेई फोन की बिक्री रोक दी और जेडटीई को अपने फोन में अमेरिकी पुर्जों का इस्तेमाल करने से रोक दिया.


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इस क्षेत्र के कुछ देशों ने बीजिंग के प्रति अपने बुनियादी रुख पर पुनर्विचार शुरू कर दिया है. जब चीनी मछुआरों के पोत इन्डोनेशिया के समुद्री क्षेत्र में दिखे और तनाव काफी बढ़ गया तो जकार्ता ने भारत से संपर्क किया और मलक्का जलडमरुमध्य के पास सबंग पोर्ट तक भारतीय नौसेना के पोतों को जाने की अनुमति दे दी.

चीन के प्रति आस्ट्रेलिया की सरकार और मीडिया के रुख में ठंडापन साफ महसूस किया जा सकता है. कैनबरा को पिछले साल जब पता चला कि राजनीतिक दलों को उदारता से दान देने वाले चीनियों के तार चीन की सरकार से जुड़े हैं तो उसने अपने क़ानून बदल डाले. चिंता यह भी की जा रही है कि आस्ट्रेलिया के कुछ विश्वविद्यालय चीनी छात्रों पर इतने निर्भर हो गए हैं कि उनके बिना उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ता दिख रहा है. सो, अब वे संतुलन बैठाने के लिए भारत के छात्रों को रिझा रहे हैं.

लेकिन सच यह है कि ट्रम्प ने जो शुल्क लगाया है उससे खुद अमेरिका को भी उतना ही घाटा होगा जितना चीन को. अधिकतर देशों के व्यवसायियों को डर है कि उनके देश की सरकार ने चीन के प्रति रुख बिगाड़ा तो चीनी बाज़ारों में उन्हें घाटा उठाना पड़ेगा. जब ब्याज दरें ऊपर चढ़ रही हैं, अमेरिका में मंदी ट्रम्प की आक्रामकता को कुंद कर देगी और अंत में चीन ही है जो फायदे में रहेगा.

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