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Monday, 4 November, 2024
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पटेल के परिवार के उन लोगों की कहानी जो राजनीति में आए

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सरदार पटेल के परिवार के चार सदस्यों ने लोकसभा चुनाव लड़ा था.

सरदार पटेल यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि उनका परिवार उनके नाम का राजनीतिक रूप से दुरुपयोग ना करे. लेकिन उनका परिवार राजनीति से दूर नहीं रह सका और यह एक ऐसा राजनीतिक राजवंश है जिसकी शायद ही आज के दौर बात होती हो.

पटेल के परिवार से चार लोगों ने चुनाव लड़ा. उनके बेटे दहयाभाई पटेल, उनकी पुत्री मनीबेन, बहू भानुमति और उनके व्यापारी भाई पाषाभाई पटेल राजनीतिक रूप से सक्रिय थे.

दहयाभाई पटेल, सरदार पटेल के पुत्र

दहयाभाई पटेल कांग्रेसी थे और 1939 में बॉम्बे नगर निगम (बीएमसी) के निर्वाचित सदस्य थे.उन्होंने निगम में 18 साल बिताए, जिनमें से वह छह साल तक कांग्रेस पार्टी के नेता थे.

अपनी पुस्तक राज्यसभा मा पहेलुन वर्ष (राज्यसभा में प्रथम वर्ष) के प्रस्ताव में दहयाभाई ने लिखा, वह कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में 1957 के लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए तैयार थे. गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी उन्हें उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतारने के लिए उत्सुक थे. हालांकि तब गुजरात एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में नहीं आया था, फिर भी कांग्रेस के पास अलग-अलग भाषाई इकाइयां थीं.

लेकिन दहयाभाई के अनुसार, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस सरदार पटेल के योगदान को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी और जनवरी 1957 में कांग्रेस के वार्षिक सत्र में यह सब स्पष्ट हो गया. एक सदस्य प्रस्ताव देना चाहता था कि सरदार पटेल के योगदान का दस्तावेजों में उल्लेख किया जाए कांग्रेस पार्टी के इंदौर वार्षिक सत्र में लेकिन इस विचार को नहीं माना गया और, इसने दहयाभाई को उसी साल कांग्रेस छोड़ने के लिए मज़बूर किया.

अलग गुजरात राज्य के लिए आंदोलन 1956 में शुरू हुआ था और 1957 तक पूरे चरम पर था. पूर्व कांग्रेसी इंदुलाल याज्ञिक के नेतृत्व में एक नवनिर्मित पार्टी महा गुजरात जनता परिषद बनी थी. दहयाभाई से 1957 के लोकसभा चुनाव में महा गुजरात जनता परिषद के उम्मीदवार के रूप में लड़ने का अनुरोध किया गया था.

लेकिन, जैसा कि इंदुलाल ने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया था, मनीबेन ने आंखों में आंसू के साथ अपने भाई को फटकार लगायी और कहा: कांग्रेस पार्टी के खिलाफ वह कैसे सोच सकते हैं जब उनके पिता नहीं हैं? (भाग 6, पी .8, आत्ममाथा) आखिरकार, दहयाभाई गुजरात जनता परिषद के उपाध्यक्ष बने और 1958 में राज्यसभा के लिए जनता परिषद के सदस्य के रूप में चुने गए.

दहयाभाई ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी के साथ काम करते थे. उन्होंने 27 साल की उम्र में अपनी पहली पत्नी को खो दिया था और दोबारा शादी की. सरदार पटेल ने शांत रहने और सही से पेश आने के लिए कई बार सलाह दी थी. उनके अपनी बहन मनीबेन के साथ भी अच्छे संबंध नहीं थे.

मनीबेन, पटेल की पुत्री

सरदार पटेल की बेटी मनीबेन एक आत्मनिर्भर व्यक्तित्व वाली महिला थी और उन्होंने अपना पूरा जीवनकाल सरदार पटेल की छत्रछाया में जिया. सरदार की मृत्यु के बाद, वह दहयाभाई के राजनीति में आने से पहले ही राष्ट्रीय चुनावी राजनीति में उतर गईं. उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में खेड़ा (दक्षिण) निर्वाचन क्षेत्र से पहला लोकसभा चुनाव (1952) लड़ा और 59,298 मतों के अंतर से जीता.

दहयाभाई के छोड़ने के बावजूद मनीबेन कांग्रेस के साथ रही और आनंद निर्वाचन क्षेत्र से 1957 के लोकसभा चुनाव 37,429 वोटों के अंतर से जीती.

स्वतंत्र पार्टी

सरदार पटेल के कई वफादार नेताओं ने जिनको लगता था कि कांग्रेस पार्टी में पटेल की यादों को सही से नहीं सहेजा गया है. उन लोगों ने 1959 में नई स्वतंत्र पार्टी के पीछे अपनी पूरी ताकत को लगा दिया. दहयाभाई भी स्वंतत्र पार्टी में शामिल हो गए थे, लेकिन कांग्रेस के प्रति मनीबेन की वफादारी बरकरार रही.

1960 में गुजरात राज्य के गठन के बाद पहली बार 1962 के लोकसभा चुनाव थे. जो सरदार पटेल के परिवार के सदस्यों के लिए विरोधाभासी परिणाम लाए. मनीबेन ने आनंद निर्वाचन क्षेत्र के कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में अपना नामांकन दायर किया. चरोतर उनके पिता के पैतृक स्थान भी इसी निर्वाचन के अंतर्गत आता है. उनके प्रतिद्वंद्वी नरेंद्रसिंह महिदा उनके भाई की स्वतंत्र पार्टी से थे.

गुजरात में स्वतंत्र पार्टी का नेतृत्व भाईलालभाई पटेल ने किया था. उनको भाईकाका के रूप में जाना जाता था. वह एक दूरदर्शी, सरदार पटेल के वफादार और शिक्षा शहर वल्लभ विद्यानगर (सरदार के नाम पर) के निर्माता थे. मनीबेन आनंद सीट 22,729 वोटों के अंतर से हार गयी. दरअसल महागुजरात आंदोलन की वजह से कांग्रेस विरोधी भावना लोकप्रिय थी. उन्हें कांग्रेस पार्टी में होने के लिए कीमत चुकानी पड़ी.

भानुमति पटेल, सरदार पटेल की बहू

1962 के लोकसभा चुनावों के दौरान दहयाभाई पहले से ही राज्यसभा सांसद थे. इसलिए, उनकी पत्नी भानुमती पटेल और उनके बहनोई पशाभाई पटेल को क्रमशः भावनगर और साबरकांठा की सीटों से स्वतंत्र पार्टी से मैदान में उतारा गया. भानुमती पटेल, कांग्रेस, प्रजा समाजवादी पार्टी और अपनी स्वयं की स्वतंत्र पार्टी के बीच एक त्रिकोणीय मुकाबले में फंस गयी और बुरी तरह से हार गयी. उन्हें सिर्फ 14,774 (7.35 प्रतिशत) वोट मिले और जमानत राशि भी नहीं बचा सकी.

उनके भाई पाषाभाई भी हार गए परन्तु कम अंतर से हारे. उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी गुलजारीलाल नंदा जो केंद्रीय मंत्री थे उनको कड़ी टक्कर दी और उनसे 24,609 मतों से हार गए. यह पाषाभाई पटेल के लिए पहला लोकसभा चुनाव नहीं था. उन्होंने 1957 का लोकसभा चुनाव बड़ौदा से फतेहसिंहराव गायकवार के खिलाफ लड़ा और 63,646 मतों से हार गए.

1967 में आचार्य कृपलानी को बड़ौदा सीट से स्वतंत्र पार्टी उम्मीदवार के रूप में लड़ना था. लेकिन नाम वापस लेने के बाद, ‘पार्टी ने बड़ौदा के उद्योगपति श्री पाषाभाई पटेल के नामांकन के लिए तत्काल मांग की (द टाइम्स ऑफ इंडिया 9 फरवरी 1967 के मुताबिक स्वतंत्र पार्टी बड़ौदा सीट जीत जाये ) और उन्होंने 22,317 मतों से जीत हासिल की.

भानुमती पटेल का नाम 1967 के लोकसभा चुनाव से पहले भरूच सीट के लिए भी चुना गया था, लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा गया की ‘श्रीमती पटेल चाहती थी कि पार्टी उनके चुनाव अभियान में वित्तीय मदद करे. पार्टी ने ऐसा करने में असमर्थता व्यक्त की. (द टाइम्स ऑफ इंडिया, 5 दिसंबर 1966) के मुताबिक, उनका नाम 1967 के चुनाव आंकड़ों में कहीं भी नहीं मिला.

मनीबेन और दहयाभाई के बाद के साल

1962 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद मनीबेन 1964 में कांग्रेस के सदस्य के रूप में राज्यसभा में गयी और 1970 तक एक सांसद बानी रही. जब उन्होंने 1973 साबरकांठा निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का उपचुनाव लड़ने का फैसला किया, तो कांग्रेस पहले से ही विभाजित थी और उन्होंने पुराने कांग्रेसियों को चुना और आराम से चुनाव जीता.

आपातकाल के बाद मनीबेन ने भारतीय लोक दल के बैनर के तले मेहसाणा निर्वाचन क्षेत्र से 1977 के लोकसभा चुनाव लड़ा. यह उनका आखिरी चुनाव था और उन्होंने 1.22 लाख से अधिक वोटों के भारी अंतर के साथ चुनाव जीता.

तीन दशकों तक सांसद के रूप में रहने के बाद, 1990 में 87 वर्ष की आयु में मनीबेन की मृत्यु हो गई. उन्होंने एक सरल लेकिन सक्रिय सार्वजनिक जीवन जिया और मृत्यु तक कई गांधीवादी संस्थानों से जुड़ी रही. 1954 में बॉम्बे के महापौर दहयाभाई ने 1958 में राज्यसभा में प्रवेश किया. तीन बार निर्वाचित हुए और 1973 में मृत्यु तक राज्यसभा सांसद बने रहे. उन्हें अब एक प्रखर वक्ता और सशक्त सांसद के रूप में जाना जाता है.


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प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मनीबेन को एक संदेश में लिखा, ‘हम संसद में एक पुराने दोस्त और सहयोगी की कमी महसूस करेंगे.’ पार्टी के सदस्य उनके जीवन को ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ने वाली और स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र और मुक्त उद्यम की हिमायती के रूप में याद रखेंगे. (टाइम्स ऑफ इंडिया, 12 अगस्त 1 9 73)

मनीबेन अविवाहित रहीं. दहयाभाई के दो बेटे है : विपिन और गौतम. वे दोनों राजनीति, मीडिया से दूर है. वे नहीं चाहते है कि उनके नाम का इस्तेमाल राजीनीतिक बदनामी के लिए किया जाये. 1999 में अपने मुंबई फ्लैट में दुर्लभ साक्षात्कार में (जहां सरदार पटेल अपनी मुंबई यात्राओं के दौरान रहा करते थे), गौतम पटेल ने मुझे बताया कि सरदार के नाम के राजनीतिक दुरुपयोग उनके परिवार ने कभी नहीं किया. (संदेश, सरदार ना वारसदारो, 2 नवंबर 1999).

गौतम पटेल और उनकी पत्नी नंदिता पटेल अमेरिका में अपने बेटे केदार के साथ रहते हैं, और समाचार रिपोर्टों के मुताबिक वे गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा स्टेचू ऑफ़ यूनिटी के उद्घाटन समारोह में शामिल नहीं होंगे.

(उर्विश कोठारी अहमदाबाद स्थित वरिष्ठ स्तंभकार और लेखक हैं)

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