‘दक्षिणपंथियों ने पटेल का इस्तेमाल नेहरू पर आक्रमण करने के लिए किया है, वामपंथियों ने उन्हें चरम दक्षिणपंथी के सांचे में दिखाया है. हालांकि, ये दोनों गलत हैं.’
आज भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के ‘लौह पुरुष’ सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज सरदार पटेल की ‘दुनिया की सबसे ऊंची’ मूर्ति का अनावरण करने वाले हैं. इस मूर्ति के निर्माण में 3000 करोड़ का खर्च बताया जा रहा है.
सरदार पटेल को लेकर हो रही राजनीति में ऐसा लगता है कि सरदार पटेल थे तो बहुत कर्मठ और योग्य नेता, लेकिन उन्हें बहुत बेचारा बना दिया गया. इस राजनीति से अलग, जब हम इतिहास की किताबों में झांकते हैं तो हमें दूसरे ही सरदार पटेल नज़र आते हैं.
हालांकि, उनके साथ यह हमेशा हुआ है. इतिहासकार बिपिन चंद्र आज़ादी के बाद भारत में लिखते हैं, ‘स्वतंत्र भारत ने जब अपने नवनिर्माण का शुभारंभ किया तो उसके पास सिर्फ समस्याएं ही नहीं, कई बेशकीमती दौलत भी थी. एक सबसे बड़ी दौलत थी उच्च क्षमता और आदर्श वाले समर्पित नेताओं की एक लंबी कतार. आम तौर पर माना जाता है कि जवाहरलाल नेहरू महान नेता थे परंतु उनके पीछे ऐसे नेताओं का एक विशाल समूह खड़ा था जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में यादगार भूमिकाएं निभाई थीं. उनके उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल दृढ़ इच्छाशक्ति के स्वामी तथा प्रशासनिक कार्यों में निपुण थे.’
वे लिखते हैं, ‘स्वतंत्र भारत के नेतागण पूर्णत: व्यक्तिगत रूप से ईमानदार थे और सादा जीवन बिताते थे. उदाहरण के लिए, सरदार पटेल का नाम लिया जा सकता है जो अमीरों से कांग्रेस के लिए धन जमा करने का कठिन काम करते हुए भी अपना हाथ पवित्र रखने में माहिर थे.’
आज भाजपा कांग्रेस नेताओं में पटेल के बरअक्स नेहरू को खड़ा करके यह बताने की कोशिश करती है कि सरदार पटेल के बहुत अन्याय हुआ. उनको वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे. लेकिन यह सोची समझी राजनीति का हिस्सा है. भारत के रजवाड़ों को भारत मिलाने का श्रेय हो या अमीर भारतीयों से पैसा जुटाने का काम हो, बारदोली सत्याग्रह की अगुआई करनी हो, या धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण की मज़बूत नींव रखनी हो, सरदार पटेल के बगैर यह संभव नहीं था.
बिपिन चंद्र लिखते हैं, ‘सभी कांग्रेसी नेताओं के स्वप्न में स्वतंत्र भारत की तस्वीर एक समान ही थी. वे सभी तीव्र सामाजिक और आर्थिक रूपांतरण तथा समाज और राजनीति के जनवादीकरण के प्रति पूर्णत: समर्पित थे. राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा दिए गए आधारभूत मूल्यों के प्रति उनकी एक मौलिक सहमति थी जिसके आधार पर स्वतंत्र भारत का निर्माण किया जाना था. इन मूल्यों के प्रति नेहरू की प्रतिबद्धता तो जगज़ाहिर है लेकिन वस्तुत: सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और सी. राजगोपालाचारी भी जनवाद, नागरिक स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और स्वतंत्र आर्थिक विकास, साम्राज्यवाद विरोध, सामाजिक सुधार और गरीबी उन्मूलन की नीतियों के प्रति उतने ही समर्पित थे. इन नेताओं का नेहरू के साथ असली मतभेत समाजवाद और समाज के वर्गीय विश्लेषण को लेकर था.’
‘इस संदर्भ में अतीत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्रशंसकों और आलोचकों दोनों के द्वारा पटेल को गलत समझा और गलत प्रस्तुत किया गया है. जहां दक्षिणपंथियों ने उनका इनका इस्तेमाल नेहरू के दृष्टिकोणों और नीतियों पर आक्रमण करने के लिए किया है, वहीं वामपंथियों ने उन्हें एकदम खलनायक की तरह चरम दक्षिणपंथी के सांचे में दिखाया है. हालांकि, ये दोेनों गलत हैं.’
बारदोली सत्याग्रह
सूरत के बारदोली तालुके में 1928 में लगान न देने का आंदोलन असहयोग आंदोलन की देन था. यहां से ही गांधी जी अहसयोग आंदोलन की शुरुआत करने वाले थे. लेकिन 1922 में चौरीचौरा कांड के चलते यह नहीं हो सका. हालांकि, यहां पर सविनय अवज्ञा आंदोलन की तैयारियां शुरू हो गईं. 1922 से ही बारदोली राजनीतिक गतिविधियों और आंदोलन का केंद्र बन गया था. गांधी जी की सलाह पर स्थानीय नेताओं ने यहां पर आदिवासी और अछूत जातियों के बीच काम करना शुरू कर दिया था.
यहां के सूदखोर और ज़मींदार गरीबों का बहुत शोषण करते थे. 1926 में जब लगान में 30 प्रतिशत बढ़ोत्तरी कर दी गई तो कांग्रेस नेताओं ने फौरन इसका विरोध किया. यह मामला विधान परिषद में भी उठाया गया तो लगान 21.97 प्रतिशत कर दिया गया लेकिन जनता को संतुष्टि नहीं मिली. यहां के कांग्रेसियों का मानना था कि किसान लगान देना बंद कर दें.
इसी बीच कांग्रेस नेताओं ने वल्लभभाई पटेल से संपर्क किया और उनसे आंदोलन की अगुआई करने का अनुरोध किया. किसानों की बैठकों में सरदार पटेल के नाम पर सहमति बनी और जनवरी 1928 में किसानों समिति के सदस्य पटेल को निमंत्रण देने अहमदाबाद गए. पटेल ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया. उन्होंने 5 फरवरी, 1928 को बारदोली आने का आश्वासन दिया. उनकी अगुआई को गांधी जी ने समर्थन दिया.
पटेल 4 फरवरी को बारदोली पहुंचे और वहां पर किसानों को आंदोलन के बारे में समझाया, साथ ही गवर्नर को पत्र लिखकर चेतावनी दी. 12 फरवरी को वे फिर बारदोली आए और किसानों को शपथ दिलाई कि वे लगान नहीं देंगे, सरकार से निष्पक्ष जांच करवाकर उचित लगान दर लागू करने की मांग की गई.
बिपिन चंद्र लिखते हैं, ‘वल्लभभाई पटेल ही इस आंदोलन के मुखिया हो सकते थे. खेड़ा सत्याग्रह, वलसाड सत्याग्रह और नागपुर फ्लैग सत्याग्रह के माध्यम से वे गुजरात के बहुचर्चित नेता हो चुके थे. वे संगठनकर्ता, वक्ता, संघर्षशील व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते थे. बारदोली सत्याग्रह में ही उन्हें वहां की औरतों ने ‘सरदार’ की उपाधि दी. बारदोली के किसान आज भी याद करते हैं कि ‘उनके भाषण तो मुर्दों को भी ज़िंदा करने वाले थे.’
सरदार पटेल ने समितियां बनाईं और जनता को लगान न देने के लिए मनाने लगे. अधिकारियों का बहिष्कार किया गया. धीरे धीरे जनमत सरकार के विरुद्ध एकजुट होता गया. 2 अगस्त, 1928 को गांधी जी भी बारदोली पहुंच गए कि अगर सरदार पटेल गिरफ्तार होते हैं तो वे खुद आंदोलन की कमान संभालेंगे. सरकार के पास अब कोई चारा नहीं था. अंतत: सरकार मजबूर हो गई और बढ़ी हुई लगान को वापस ले लिया गया.
रजवाड़ों का विलय
सरदार वल्लभभाई पटेल स्वतंत्रता आंदोलन के समय गुजरात में गांधी के बाद दूसरे सबसे बड़े नेता थे. यह न सिर्फ भारत की जनता को पता है, बल्कि इतिहास में दर्ज है कि ‘बहुत कुशलता और दक्षतापूर्ण राजनयिकता के साथ प्रलोभन और दबाव का प्रयोग करते हुए सरदार वल्लभभाई पटेल सैकड़ों रजवाड़ों और रियासतों को भारतीय संघ में दो चरणों में विलय करने में सफल हुए.’
लेकिन ‘कुछ रियासतों ने अप्रैल 1947 की संविधान सभा में शामिल होकर समझदारी और यथार्थता के साथ प्राय: कुछ हद तक देशभक्ति दिखाई. परंतु अधिकांश राजा इससे अलग रहे. कुछ राजाओं ने जैसे त्रावणकोर, भोपाल और हैदराबाद के राजाओं ने सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया कि वे स्वतंत्र दर्जा का दावा पेश करना चाहते हैं.’
बिपिन चंद्र लिखते हैं, ’27 जून, 1947 को सरदार पटेल ने नवगठित रियासत विभाग का अतिरिक्त कार्यभार सचिव वीपी मेनन के साथ संभाल लिया. इन रियासतों के शासकों द्वारा संभावित राजनीति दुराग्रहता से उत्पन्न भारतीय एकता के खतरे के प्रति पटेल पूरी तरह परिचित थे. उन्होंने मेनन को उस समय कहा कि इस परिस्थिति में खतरनाक संभावनाएं भी छुपी हुई हैं और यदि इन्हें शीघ्र ही प्रभावी तरीके से संभाला नहीं गया तो हमारी मुश्किल से अर्जित आज़ादी इन रजवाड़ों के दरवाज़ों से निकल कर गायब हो जा सकती है. इसलिए वह आनाकानी कर रहे रजवाड़ों को संभालने के लिए तेज़ी से काम पर लग गए.’
पटेल ने पहला कदम उठाया कि भारत के अंदर पड़ने वाले रजवाड़ों से यह अपील की कि वे तीन विषयों पर भारतीय संघ को स्वीकृति प्रदान करें जिनसे पूरे देश का हित जुड़ा है. जैसे- विदेश संबंध, सेना और संचार.
उन्होंने दबे छुपे तौर पर यह चेतावनी भी दी कि ‘वे रिसासत की बेकाबू हो रही जनता को नियंत्रित करने में मदद के लिए समर्थ नहीं हो पाएंगे तथा 15 अगस्त के बाद सरकार की शर्तें और कड़ी होती जाएंगी. रियासतों में जनता के आंदालन और कठोर कार्यक्रम लागू करने के दबाव और पटेल की दृढ़ता, यहां तक कि कठोरता की ख्याति के कारण इन राजाओं ने पटेल की अपील को तुरंत मान लिया.’
’15 अगस्त 1947 तक सिवाय जूनागढ़, जम्मू और कश्मीर तथा हैदराबाद के, सभी रजवाड़े भारत में शामिल हो गए. हालांकि, 1948 के अंत तक आनाकानी कर रहे इन तीन रियासतों को भी इस प्रकार बात मानने के लिए बाध्य होना पड़ा.’
बिपिन चंद्र लिखते हैं, ‘जूनागढ़ सौराष्ट्र के तट पर एक छोटी सी रियासत थी जो चारों ओर से भारतीय भूभाग से घिरी थी और इसलिए पाकिस्तान के साथ उसका कोई भौगोलिक सामीप्य नहीं था. फिर भी इसके नवाब ने 15 अगस्त 1947 को अपने राज्य का विलय पाकिस्तान के साथ घोषित कर दिया हालांकि राज्य की जनता, जो सर्वाधिक हिंदू थी, भारत में शामिल होने की इच्छुक थी.’
‘नेहरू और पटेल इस बात पर सहमत थे कि अंतिम निर्णय जनता का होना चाहिए. वे जनमत संग्रह के पक्षधर थे, लेकिन इस निर्णय के विरुद्ध जाकर पाकिस्तान ने जूनागढ़ के विलय को स्वीकार कर लिया, जबकि जनता इसके लिए तैयार नहीं थी. जनता ने आंदोलन छेड़ दिया और नवाब को राज्य छोड़कर भागना पड़ा. इसके बाद भारतीय सेना राज्य में प्रवेश कर गई. फरवरी 1948 में रियासत के अंदर जनमत संग्रह कराया गया जो व्यापक तौर से भारत विलय के पक्ष में गया.’
सरदार पटेल न तो बेचारे थे जिन्हें हमेशा दरकिनार किया गया, न ही वे उस वैचारिक खांचे में थे जिन्हें धार्मिक उन्माद का स्टार प्रचारक बनाकर पेश किया जाए. सरदार पटेल आज़ाद भारत के ऐसे सर्वमान्य नेता थे जिन्होंने आज़ादी के लिए संघर्ष किया था तो आज़ादी के बाद भारत की मज़बूत नींव की आधारशिला भी तैयार की थी. सरदार पटेल की सादगी के चर्चे वैसे ही होते हैं, जैसे उनकी दृढ़ता और नेतृत्व के. आज अगर सरदार पटेल होते तो खुद पर 3000 करोड़ खर्च से बनी सबसे ऊंची प्रतिमा का विरोध ही करते.