उड्डयन, दूरसंचार, ई-कॉमर्स/ डिजिटल कारोबार, सबमें कामयाबी की कहानियां लिखी जा रही हैं लेकिन इन तीनों क्षेत्रों में मुद्दा एक ही है- मुनाफ़े का
हर दशक में भारतीय व्यवसाय जगत कामयाबी की नई कहानियां प्रस्तुत करता रहा है- चैम्पियन सेक्टरों की कहानियां. आज चैम्पियन सेक्टर कौन से हैं? ज़ाहिर तौर पर तीन सेक्टर हैं जो चैम्पियन नज़र आ रहे हैं- उड्डयन, दूरसंचार, और ई-कॉमर्स/डिजिटल कारोबार. लेकिन एक विरोधाभास भी है- इन कारोबारों में संभवतः कोई नहीं है जो पैसा बना रहा है. मसलन, उड्डयन सेक्टर कुछ वर्षों से 20 प्रतिशत की बढ़िया दर से वृद्धि कर रहा है, जिसके चलते यह भविष्यवाणी की जाने लगी है कि एक दशक से कम समय में ही भारत दुनिया में उड्डयन का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार बन जाएगा. आज वह छठें-सातवें नंबर पर है.
लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि बाज़ार में 40 फीसदी कि हिस्सेदारी रखने वाली सबसे बड़ी एअरलाइन इंडिगो ने सबसे नई तिमाही में घाटा दर्शाया है. पिछली तिमाहियों में उसकी मार्जिन घटती जा रही थी. इसकी सबसे करीबी प्रतिद्वंद्वी जेट का हाल यह है कि वह बिलों का भुगतान नहीं कर पा रही है और बिकने के कगार पर पहुंच गई है, बशर्ते कोई खरीदार मिले. एयर इंडिया के बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर.
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दूरसंचार क्षेत्र का हाल इससे थोड़ा ही अलग होगा, हालांकि वह भारी वृद्धि दर्ज करता रहा है. बाज़ार में उतरने के बाद से रिलायंस जियो ने रफ्तार बढ़ाए रखी है. इसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी एयरटेल ने, जो मार्जिन को लेकर दबाव में है, जून में खत्म हुई तिमाही में डेटा ट्रैफिक वोल्युम में 350 प्रतिशत और वायस ट्रैफिक में 62 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज कराई. लेकिन यूनिट टैरिफ में भरी गिरावट है और कंपनी को पूंजी पर खराब लाभ मिला है, जबकि वह पहले से ही कर्ज़ के बोझ से दबी हुई है. वोडाफोन और आइडिया ने जान बचाने के लिए मजबूरन आपस में विलय कर लिया है. बाकी सबने भारी घाटा सहने के बाद मैदान ही छोड़ दिया है.
सवाल यह है कि वृद्धि दर बढ़ाने के लिए पैसा लगाने को जो मुनाफा चाहिए उसके बिना ये चैम्पियन सेक्टर अपनी मौजूदा वृद्धि दर को ही कैसे बनाए रखें? उपरोक्त दो सेक्टरों के खिलाड़ियों में केवल रिलायंस के पास ही रिफायनरी और पेट्रोकेमिकल के कारोबारों से हासिल मुनाफे के कारण इतना पैसा है कि निवेश जारी रख सके.
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इंडिगो हालांकि घाटे कि ओर लुढ़कती जा रही है, फिर भी उसके पास नकदी का भंडार है. ये दोनों कंपनियां लाभ को बढ़ाने की जगह ज़्यादा वर्चस्व के लिए खेल में बनी रह सकती हैं, जैसा कि ई-कॉमर्स और डिजिटल कारोबार की कंपनियां करती हैं. हालांकि वे भारी घाटे में हैं लेकिन वृद्धि जारी रखने के लिए ताज़ा पूंजी उगाहने के लिए ग्रोथ साइकल में आगे-आगे बनी रहती हैं. लेकिन लागत अगर आमदनी से दोगुनी हो, जैसी कि ई-कॉमर्स/डिजिटल कारोबार की कुछ नई कंपनियों की है, तो राष्ट्रीय अकाउंटिंग के नज़रिये से कहानी मूल्य ह्रास की ही है. मार्केट वैल्युएशन के खेल में इसे अलग तरह से पेश किया जाता है लेकिन जब तक नकदी का वर्चस्व बना रहता है, तीनों सेक्टरों का मुद्दा एक ही रहेगा- टिके रहने का.
पहले और अब में यही फर्क आया है. पहले नए चैंपियन सेक्टर बनते थे जो मुनाफे वाले भी होते थे. उनमें से अधिकतर फलफूल रहे हैं लेकिन उनकी रफ्तार धीमी हो गई है. टेक कंपनियों की शुरुआत नई सदी की शुरुआत के साथ हुई थी लेकिन बिज़नेस मॉडल में बदलाव के साथ उनकी भी गति धीमी हो गई है. दूरसंचार कारोबार ने असाधारण अच्छा कारोबार किया, लेकिन यहां भी तस्वीर में एक परिवर्तनकारी पहलू है. आॅटोमोबाइल उद्योग की वृद्धि टिकाऊ रही है, चाहे वह दुपहियों में हो या सवारी गाड़ियों में, लेकिन इसमें भी उधारी में कमी या ऊंची लागत के कारण मंदी का खतरा पैदा हो गया है.
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नई सदी में दवा उद्योग को एक अच्छा दशक मिला, लेकिन अब यह अगुआ नहीं रह गया है. निर्माण उद्योग का भी यही हाल है, हाउसिंग मार्केट भी ढह गया है तो हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों को तरलता की समस्या का सामना करना पड़ रहा है. बुनियादी ढांचा भी समस्या से जूझ रहा है, कर्ज़ से दबा है. बिजली उत्पादन सेक्टर में भारी निवेश तो किया गया है लेकिन बंद हो चुके या अक्षम बिजली संयंत्रों की संख्या अच्छी-ख़ासी है.
पुराने समय के कई ग्रोथ सेक्टरों में जो चैम्पियन हैं वे कर्ज़ भुगतान पर ज़ोर दे रहे हैं. कभी पावर हाउस माने गए फाइनेंस सेक्टर में भी खराब लोन के मसले के उभरने के बाद 2015 से संकट छाया है. इस बीच, उपभोक्ता केन्द्रित सेक्टर की औसत रफ्तार बनी हुई है. निर्यातों ने कभी ग्रोथ को ज़ोरदार बढ़ावा दिया था लेकिन अब नहीं.
कुल मिलकर निजी क्षेत्र अच्छा पैसा बना रहा है. जीडीपी के बरअक्स इसका सरप्लस बढ़ता रहा है. लेकिन जीडीपी में इसका शेयर घट रहा है. पिछले पांच साल में प्राइवेट कॉर्पोरेट सेक्टर के निवेश और बचत के बीच का अंतर जीडीपी के बरअक्स 17.5 प्रतिशत से नाटकीय रूप से घटकर 10 प्रतिशत पर पहुंच गया. यह संकेत करता है कि अतीत में कर्ज़ से तो पेट भर लिया गया मगर अब हाज़मा खराब हो रहा है.
(‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ के साथ विशेष व्यवस्था के अंतर्गत. इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)