दलित नेता कांशीराम का निधन 9 अक्टूबर, 2006 को हुआ था. वे बहुजन समाज पार्टी की रीढ़ थे और भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सत्ता के अहम भागीदार भी थे.
नई दिल्ली: “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.” ये नारा सरल और स्पष्ट शब्दों में कांशीराम की व्यवहारिक राजनीति का चित्रण करता है.
पर उससे भी पहले कांशीराम एक सामाजिक कार्यकर्ता थे जिनकी नज़र में राजनीति वर्ण व्यवस्था में हो रहे दलितों पर अत्याचार से मुक्ति का एक माध्यम भर थी. मान्यवर- जिस नाम से कांशीराम को संबोधित किया जाता था, ने उत्तर भारत के दलितों को एक स्वतंत्र राजनीतिक पहचान दी.
शुरु से ही नेता
कांशीराम के प्रारंभिक जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. पर बद्रीनारायण की किताब ‘कांशीराम: लीडर ऑफ द दलित्स,’ में जो जानकारी उनके परिजनों और समकक्षों से बातचीत में जुटाई गई है उसके अनुसार कांशीराम, 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ ज़िले के पिर्थीपुर बंगा गांव में पैदा हुए थे.
वे चमार जाति के थे और सिखों के चौथे गुरु रामदास के समय उनके परिवार ने सिख घर्म अपना लिया था. उनका परिवार खेती किसानी करता था, जिसके पास थोड़ी ज़मीन थी और चमड़े का काम करते थे. उनके पास पट्टे पर एक आम का बागान भी था. उत्तर भारत के उनके जात भाइयों की तुलना में उनके बेहतर आर्थित हालात थे.
कांशीराम की शुरुआती शिक्षा सरकारी प्राथमिक स्कूल में हुई. वे बाद में रोपड़ के डीएवी पब्लिक स्कूल में पढ़ने गए और उन्होंने स्थानीय सरकारी कॉलेज से बीएससी की डिग्री प्राप्त की.
1957 में, उन्होंने सर्वे ऑफ इंडिया की परीक्षा पास की पर वहां नौकरी नहीं की. उन्होंने 1960 में पूना स्थित एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैबोरेटरी में नौकरी की.
जातिगत आधार पर कांशीराम ने पहले भी भेदभाव देखा और झेला था पर यहां हुई एक घटना ने इस समस्या की गंभीरता को उनतक पहुंचाया. जिस लैब में वो काम करते थे वो अंबेडकर और बुद्ध जयन्ती को बंद रहती थी. पर अचानक प्रशासन ने इसकी जगह बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले की जन्मतिथियों पर छुट्टी घोषित कर दी. जब एक कर्मचारी ने अंबेडकर जयन्ती पर काम पर न आने का फैसला किया तो उसे नौकरी से निकाल दिया गया.
कांशीराम को इस घटना ने बहुत क्रोधित किया और उन्होंने उस कर्मचारी के लिए आवाज़ उठाने का फैसला किया. कानूनी लड़ाई के लिए पैसा इकट्ठा करना, बाकी कर्मचारियों को लामबंद करना और यहां तक कि इसके लिए उन्होंने प्रतिरक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण से मुलाकात भी की.
एक जांच के आदेश दिए गए और उस कर्मचारी की नौकरी बहाल की गई. बुद्ध जयन्ती और अंबेडकर जयन्ती की छुट्टियां भी बहाल की गईं.
1964 में कांशीराम ने अपनी नौकरी छोड़ दी और परिवार को पत्र लिख कर बताया कि वो उनसे सारे संबंध तोड़ रहे हैं क्योंकि उनका मानना था कि किसी भी जुड़ाव का उनका दलितों के प्रति दायित्व पर असर पड़ेगा. इसी कारण उन्होंने कभी भी विवाह न करने का फैसला भी लिया.
दबे कुचलों की जागृति
अपनी नौकरी के दौरान ही कांशीराम ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के साथ काम करना शुरू कर दिया था. उनके इस्तीफे के कुछ समय बाद तक ये सहयोग रहा पर शीध्र ही उनका आरपीआई के कामकाज से मोहभंग हो गया.
1971 में उन्होंने एससी/एसटी/ओबीसी माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लॉय एसोसिएशन (एसएमसीइए) का गठन किया, जिसे बाद में बामसेफ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लॉईज फेडरेशन का नाम दिया गया. इस संगठन का ध्येय देश भर के शिक्षित, पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों को एक गैर राजनीतिक छत्रछाया में लाना था. संगठन का नारा था शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो.
1981 में कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की जिसका ध्येय दलितों को उनके उत्पीड़न के बारे में आगाह करना था. इसके सदस्यों का काम था साइकिलों में बैठकर गांव गांव जा दलितों को एकजुट करना और कांशीराम के विचार पहुंचाना. इस संगठन ने कांशीराम द्वारा 1984 में बहुजन समाज पार्टी गठित करने की ज़मीन तैयार की.
पार्टी के बनने के एक दशक के भीतर वो समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 1993 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब हुई पर दोनों में मतभेद उभरे और 1995 में गठबंधन टूट गया. बीएसपी ने फिर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश किया.
कांशीराम बुरी तरह बीमार हो गए और उनकी उत्तराधिकारी मायावती राज्य की मुख्यमंत्री बनीं. ये सरकार भी 136 दिन ही चली और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया.
पर कांशीराम हार मानने वालों में नहीं थे. उन्होंने फिर बीजेपी के साथ 1996 औप 2002 में गठबंधन किया, एक ऐसी पार्टी जिसके साथ उनका राजनीतिक विरोध था. दोनों मौकों पर मायावती मुख्यमंत्री बनीं. दोनों बार गठबंधन टूटा और फिर 2007 में बसपा पूर्ण बहुमत वाली सरकार उत्तर प्रदेश में गठित कर पायीं.
पर कांशीराम अपनी पार्टी की सरकार का पूरा कार्यकाल देखने के लिए जीवित नहीं रहे.
2003 में हुए पक्षाघात के बाद कांशीराम सार्वजनिक जीवन से दूर होते चले गए और उन्होंने पार्टी की कमान मायावती के हाथ सौंप दी. उन्होंने 9 अक्टूबर, 2006 को अंतिम सांस ली.
दलितों के मसीहा
कांशीराम वामपंथियों समेत सभी राष्ट्रीय दलों के मुखर आलोचक थे. उनका मानना था कि वामपंथी वर्ग संघर्ष पर इतना ध्यान केंद्रित करते थे कि वो जाति की सच्चाई को नज़रअंदाज़ करते थे.
वे दलितों के आरक्षण के पक्षधर थे पर मानते थे कि ये नौकरशाही में ही प्रतिनिधित्व देता था राजनीति में नहीं.
कांशीराम ने बौध धर्म अपनाने का मन बना लिया था. 2002 में उन्होंने घोषणा की थी कि वो 14 अक्टूबर, 2006 को बौद्ध बन जायेंगे, जोकि अंबेडकर के बौध धर्म को अपनाने की 50सवी वर्षगांठ थी. हालांकि उनकी मृत्यु इस धर्मांतरण के पहले हो गई पर उनका अंतिम संस्कार बौद्ध रीति रिवाज़ के हिसाब से किया गया.
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