टेलीविजन चैनल पर बहस के दौरान एक सीधा-साधा सा लगने वाला विवाद अंतरराष्ट्रीय निंदा, बिना सोची समझी प्रतिक्रिया और सोशल मीडिया पर गर्मागर्म बहस का विषय बन गया है. अगर टेलीविजन पर होने वाली समसामयिक बहसों में दिखने वाली सभ्यता, जो कभी विजुअल मीडिया की पहचान होती थी, की तलाश करना इन दिनों थोड़ा मुश्किल है, तो शालीनता में आई कमी के लिए जिम्मेदार दोषी का पता लगाना और इसके लिए सीधे किसी अपराधी पर उंगली उठा देना तो और भी ज्यादा मुश्किल है. बीजेपी प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने उस डिबेट में शायद अपने प्रतिद्वंदी पर अपना गुस्सा निकालना ही उचित समझा हो, जो उनकी आस्था के प्रतीक (शिवलिंग) का उपहास कर रहा था. अगर वह मुसलमानों के श्रद्धा की वस्तु माने जाने इस्लामी धर्मग्रंथों का जिक्र कुछ नीरस तरीके से करने के मामले में गलत थीं, तो दूसरे पैनलिस्ट द्वारा हिंदू देवता पर की गR टिप्पणी भी समान रूप से अनुचित और अपमानजनक थी. दोनों पक्षो ने अपनी हद पार की और विदेश मंत्रालय को ओवरटाइम में काम करने के लिए मजबूर किया.
इस पूरे विवाद के बाद छह साल के लिए बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दी गई नूपुर शर्मा को जान से मारने की धमकियां मिलीं और सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ अभद्र टिप्पणियां पोस्ट की गई. यहां तक कि उनका सिर कलम करने के लिए इनाम की भी घोषणा की गई है. नतीजतन दिल्ली पुलिस को उन्हें सुरक्षा देनी पड़ी और उन्हें अपना पता न बताने के लिए सार्वजनिक अपील करनी पड़ी. इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा पेरिस स्थित मीडिया हाउस ‘चार्ली हेबदो’ के संपादक और पत्रकारों की भीषण हत्या और इस्लाम के नाम पर लोगों को मौत की सजा, फांसी और अन्य भयावह दंड देने वाली ऐसी कई घटनाओं को ध्यान में रखते हुए, शर्मा को सुरक्षा देने की वाकई जरूरत है, वरना ऐसा न हो कि वह धर्म के नाम पर इस तरह की अराजकता का एक और शिकार बन जाएं.
इस नुकसान की भरपाई के एक हिस्से के रूप में, नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने आप को इस विवाद से अलग कर लिया और बीजेपी ने शर्मा को निलंबित करने के साथ-साथ अपने दिल्ली मीडिया प्रभारी नवीन कुमार जिंदल को भी ट्विटर पर पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ इसी तरह की अपमानजनक टिप्पणी पोस्ट करने के लिए निष्कासित कर दिया. नव-हिंदूवाद के प्रणेताओं के एक बड़े वर्ग द्वारा बीजेपी की इस आनन-फानन में की गई प्रतिक्रिया को अनुचित रूप में देखा गया. एक समय था जब बीजेपी अपने काफी अच्छे से प्रशिक्षित, सौम्य, शांत और अच्छे व्यवहार वाले प्रवक्ताओं को गर्व से पेश किया करती थी जो उसके विरोधियों को नाराज किए बिना पार्टी के रुख को सामने रखने में बेहद प्रभावी हुआ करते थे. पार्टी को शायद अपने कुछ आजमाए और परखे हुए प्रवक्ताओं को वापस लाने की जरूरत है जो मुद्दों पर मुखर तो रहेंगें लेकिन मीडिया की बहस में आक्रामक नहीं होंगे, खासकर तब जब वह केंद्र और कई राज्यों में सत्ता में हो.
अरब देशों का दोमुंहापन
साथ ही, बीजेपी और उसकी सरकार को सतर्क रहना चाहिए था और इस्लामी देशों- संगठनों से प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहना चाहिए था. लगभग पांच अरब देशों ने शर्मा और जिंदल की टिप्पणियों का विरोध किया और इन्हें उनके पैगंबर और उनकी आस्था का अपमान बताया. इनमें से कतर, कुवैत और ईरान ने अपना विरोध दर्ज कराने के लिए भारतीय राजदूतों को बुलाया और ओमान के ग्रैंड मुफ्ती ने तो इस ‘फूहड़ टिप्पणी’ को इस्लाम के खिलाफ युद्ध ही बता दिया. इनमें से कई इस्लामी राजशाहियों, कुलीन वर्गों और संस्थानों ने अपने धर्म के अपमान का तो कड़ा संज्ञान लिया लेकिन उन्होनें हिंदू देवताओं और धार्मिक प्रतीकों के खिलाफ की गई अपमानजनक, घृणापूर्ण और निरादरपूर्ण ढंग से की गई टिप्पणियों को बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर दिया.
पाकिस्तान और इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) की उस गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी के रूप में साकार हुआ जिन्होंने इन टिप्पणियों को भारत में अल्पसंख्यकों के कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन से जोड़ने की कोशिश की थी. भारतीय विदेश मंत्रालय ने इन टिप्पणियों का जोरदार और सटीक तरीके से खंडन किया और पाकिस्तान में न केवल हिंदुओं बल्कि शियाओं और अहमदियों के खिलाफ हो रहे मानवाधिकारों के हनन की ओर भी इशारा किया. विडंबना यह है कि चीन द्वारा शिनजियांग प्रांत में मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों पर ओआईसी ने अब तक चुप्पी साधे रखी है. इनमें से कोई भी देश उन निकृष्ट देशों के बारे में कुछ नहीं बोलता है जहां मानवीय मर्यादा के व्यवस्थित और क्रूर दुरुपयोग के साथ-साथ मौलिक अधिकारों को पूरी तरह से नदारद होते देखा गया है.
साल 1990 में, ओआईसी ने इस्लाम में मानवाधिकारों के बारे में काहिरा घोषणापत्र (काइरो डिक्लरेशन ऑन ह्यूमन राइट्स इन इस्लाम) पेश किया था, जो और कुछ नहीं बल्कि ‘इस्लामिक शरीयत द्वारा परिभाषित’ मानव अधिकार’ थे जो पूरी तरह से संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई मानवाधिकारों से संबंधित घोषणा के विपरीत थे. इसी तरह, 1999 में, ओआईसी ने इस्लामोफोबिया से निपटने के लिए विभिन्न सरकारों से मांग करने वाले कई प्रस्तावों को पेश किया. पश्चिमी देशों की कई सरकारों ने इनका यह कहते हुए विरोध किया कि सुरक्षा का अधिकार धार्मिक लोगों को है, धर्मों का नहीं. वैसे भी अरब देशों और अन्य इस्लामी राजनैतिक व्यवस्थाओं को भारत के साथ अपने संबंधों को व्यापार, वाणिज्य, संस्कृति और आपसी संबंधो के अन्य पारस्परिक रूप से सहमत पहलुओं तक ही सीमित रखना चाहिए. उन्हें भारत की घरेलू सामाजिक- राजनीतिक मामलों पर टीका-टिप्पणी करने से दूर रहना चाहिए.
समय के साथ बदलाव
मुस्लिम समुदाय की आलोचना के प्रति असहिष्णुता, खासकर यूरोप में, कोई नई बात नहीं है. साल 2020 में, फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन ने ‘कट्टरपंथी इस्लामवाद से लड़ने, अलगाववाद को मिटाने और हर कीमत पर धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बनाए रखने’ के लिए की गई अपनी टिप्पणी के लिए खुद को स्थानीय इस्लामी समूहों के साथ आमने-सामने के विवाद में फंसा पाया था. वहां आतंकवादी हमलों की बाढ़ सी आ गई थी और पेरिस के एक स्कूल शिक्षक की बेरहमी से हत्या कर दी गई, जिसके बाद मैक्रों ने यह घोषणा की कि फ्रांस पर ही हमला किया जा रहा है. एक समानतावादी, एकीकृत, धर्मनिरपेक्ष और गणतांत्रिक समाज की तरह ‘एज ऑफ एनलाइटनमेंट (ज्ञान के युग)’ के आदर्शों के पक्ष में खड़े होने के लिए फ्रांस को ‘इस्लाम विरोधी’ करार दे दिया गया था.
‘ईसाई’ पश्चिमी जगत और ‘उदार’ यूरोप के विपरीत, भारत धर्मों को परस्पर विरोधी के रूप में नहीं देखता है लेकिन यह उन सभी को एक ही परम सत्य की तलाश में लगे अलग-अलग रास्तों के रूप में मानता है. अतीत के बारे में हमारे वार्तालाप को सांस्कृतिक या ऐतिहासिक सापेक्षवाद के आधार पर तर्कसंगत बनाने वाले तरीके के रूप में सीमित नहीं करने की एक स्वस्थ परंपरा रही है. हिंदू समाज ने कई सामाजिक रूप से विभाजनकारी और घृणित प्रथाओं को बदलने और त्यागने के लिए अनुकूलित किया है.
अन्य धार्मिक समूहों को भी समय के साथ बदलने की जरूरत है. किसी भी परिवर्तन या अकैडमिक रूप से की गई आलोचना के रूप में दिए गए किसी भी सुझाव को हिंदुओं द्वारा उनके धार्मिक अधिकारों के उल्लंघन या मुस्लिम नेतृत्व द्वारा इस्लामोफोबिया के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.
एक समान नागरिक कानून, शिक्षा का अधिकार, विरासत और अन्य मौलिक मानवाधिकार धार्मिक दायित्व का विषय नहीं हो सकते हैं या फिर उन्हें किसी प्रभावशाली धर्मसत्ता (हायरार्की) द्वारा बरती गई उदारता नहीं माना जा सकता है.
शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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