लाल बहादुर शास्त्री की पुण्य तिथि पर, उनके बेटे अनिल उनके व्यक्तिगत और राजनीतिक किस्सो को याद कर रहे है.
मेरे पिता लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के साथ अपनी जयंती साझा करते हैं. उन्होंने अपने गुरु, महात्मा गांधी से सादगी, व्यक्तिगत अखंडता, बौद्धिक ईमानदारी और देश के प्रति प्रतिबद्धता सीखी.
कई लोगों को एक ऐसे प्रधानमंत्री की कल्पना करना मुश्किल हो सकता है, जिन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से अपने परिवार के लिए फिएट कार खरीदने के लिए 5,000 रुपये का ऋण लिया था. उन्हें यह भी विश्वास करना मुश्किल हो सकता है कि एक प्रधानमंत्री निर्धनता में मर गया. पाकिस्तान के साथ शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 को शास्त्री जी के ताशकंद में निधन हो जाने के बाद मेरे बड़े भाई हरी शास्त्री केवल एकमात्र कमाने वाले सदस्य थे. यदि मेरी मां, ललिता शास्त्री को पेंशन और सरकारी आवास नहीं मिलता, तो परिवार सड़क पर होता.
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शास्त्रीजी की पुण्य तिथि पर, उन्हें याद रखने का सबसे अच्छा तरीका है उनके कुछ व्यक्तिगत और राजनीतिक किस्सों के ज़रिए उन्हें याद किया जाये.
कार बनाम टाँगा
जब मेरे पिता केंद्रीय गृह मंत्री थे, उस समय मैं और मेरे दो छोटे भाई सेंट कोलंबिया स्कूल, नई दिल्ली में पढ़ रहे थे. तब हम टाँगा (घोड़े की गाड़ी) में स्कूल जाते थे, जबकि हमारे दोस्त कारों में आते थे. उनके पिता सरकारी अधिकारी थे और उनमें से कई गृह मंत्रालय में मेरे पिता के अधीन काम करते थे. हमें यह बुरा लगा हमने सोचा कि हमें ये बात उठानी चाहिए.
शास्त्रीजी शाम देर से घर लौटे, तो वह हमें जागते हुए देखकर आश्चर्यचकित थे. हमने उनसे पूछा कि गृहमंत्री के बच्चे होने के बावजूद हम कार से स्कूल क्यों नहीं जाते. उन्होंने हमें बताया कि उनके पास कार नहीं है और वह वे हमें सरकारी कार दिलवा सकते थे. लेकिन उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि कार तभी तक उपलब्ध होगी जब तक वह मंत्री है. एक बार जब वह कार्यालय से बाहर हो जायेंगे, तो हमें फिर से एक टाँगे से स्कूल जाना होगा.
हमने महसूस किया कि एक बार कार से जाने के बाद फिर टाँगे से जाना और भी बदतर होगा. और, हमने अंततः टाँगे से स्कूल जाने का फैसला किया.
कैडिलैक में यात्रा क्यों करें
जब भी यात्रा करने की बात आती तो, पंडित जवाहरलाल नेहरू एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो आम तौर पर भारत निर्मित कार में यात्रा करते थे. यह हिंदुस्तान 14 और बाद में हिंदुस्तान एंबेसडर थी. हालांकि, जब विदेश से कोई गणमान्य व्यक्ति आता तो वे उन्हें हवाई अड्डे से लाने के लिए अपनी कैडिलैक निकला करते थे.
शास्त्रीजी ने मुझे बताया कि उन्होंने नेहरू जी से पूछा कि आप हवाई अड्डे पर विदेशी गणमान्य व्यक्तियों को लेने जाते है तो कार क्यों बदल लेते है. पंडितजी ने जवाब दिया कि वह उन्हें यह बताना चाहते हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री भी कैडिलैक में चल सकता है.
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जब लाल बहादुर शास्त्री 1964 में प्रधानमंत्री बने तो वह सभी कामों के लिए एंबेसेडर का उपयोग किया करते थे. विदेशी प्रमुखों का स्वागत करने के लिए कैडिलैक का उपयोग नहीं किया.
मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने पंडित नेहरू के विचारों का पालन क्यों नहीं किया. शास्त्रीजी ने कहा, “पंडित नेहरू एक महान व्यक्ति थे और उनका अनुकरण करना मुश्किल है. इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि विदेशी गणमान्य व्यक्ति क्या सोचते हैं जब तक वे ये जाने कि भारतीय प्रधानमंत्री भारत में बनाई गई कार में यात्रा कर रहे हैं.
लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री थे जब नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित संसद सदस्य थीं. वह पंडित नेहरू की मौत के बाद इलाहाबाद ज़िले के फूलपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुनी गयी थी.
वह सीधी बात करती थी जो उनको सही लगता था उसको कहती थी. सरकार के ढ़ीले कामकाज पर एक बार उन्होंने आक्रोश में आकर कहा था कि शास्त्रीजी ‘फैसले लेने में असक्षम’ है. शास्त्रीजी आहत हुए और उन्होंने कहा कि चूंकि वह पार्टी के निर्वाचित नेता है, इसलिए उन्हें उनको सहन करना होगा.
हालांकि, भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान शास्त्रीजी के नेतृत्व के गुणों को सभी ने देखा था. जिस तेज़ी से उन्होंमे सेना को पूरे दम खम के साथ लड़ने का आदेश दिया, हमले का पूरी ताकत से नए युद्ध क्षेत्र खोलकर, जिनमें लाहौर भी शामिल था, जवाब देने के आदेश दिए उसने न केवल उनके मित्रों और साथियों पर सेना को भी चकित कर दिया.
भारतीय सशस्त्र बल उनके नेतृत्व में बहुत प्रेरित था.
पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान विजय लक्ष्मी पंडित शास्त्रीजी के नेतृत्व से बहुत प्रभावित थी. लक्ष्मी पंडित ने एक संवाददाता से कहा कि “एक उत्कृष्ट और असाधारण क्षमता के नेता को कम कर के आंका गया था”. इसे पढ़ने के बाद, शास्त्रीजी उनको धन्यवाद देने उनके घर गए.
रूसी ओवरकोट और सुपर कम्युनिस्ट
लाल बहादुर शास्त्री अपनी टीम में काम करने वालों को तवज्जो देते थे. 3 जनवरी 1966 को, वह पाकिस्तान के साथ दीर्घकालिक शांति समाधान करने के लिए ताशकंद गए. उस समय ताशकंद बहुत ठंडा था और शास्त्रीजी अपने सामान्य खादी ऊनी कोट ले जा रहे थे. रूसी नेता एलेक्सेई कोसीजिन ने महसूस किया कि उन्होंने जो कोट पहना था वह मध्य एशिया की बर्फीली सर्द हवाओं से लड़ने के लिए पर्याप्त नहीं था.
कोसिजिन शास्त्री जी को रूसी ओवरकोट देना चाहते थे लेकिन यह समझ नहीं पा रहे थे की कैसे दिया जाए. अंत में एक समारोह में, उन्होंने आशा करते हुए एक रूसी कोट प्रधानमंत्री को उपहार के रूप में दिया कि वह ताशकंद में पहनेंगे. अगली सुबह, कोसिजिन ने देखा कि शास्त्री जी अब भी खादी कोट पहने हुए थे. उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि क्या उन्हें ओवरकोट पसंद आया. शास्त्रीजी ने कहा, “यह वास्तव में गर्म और मेरे लिए बहुत आरामदायक है. हालांकि, मैंने अपने साथ आए कर्मचारी में से एक को दिया है जो इस भयानक ठंडी में पहनने के लिए गर्म कोट नहीं लाया था. मैं निश्चित रूप से आपके उपहार का उपयोग ठंडे देशों में भविष्य के दौरे के दौरान करूंगा”.
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कोसिजिन ने इस घटना को भारतीय प्रधान मंत्री और पाकिस्तानी राष्ट्रपति के सम्मान में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में उनके स्वागत भाषण के दौरान सुनाया. कोसिजिन ने टिप्पणी की, “हम कम्युनिस्ट हैं लेकिन प्रधानमंत्री शास्त्री एक सुपर कम्युनिस्ट हैं”.
एक दुर्भाग्यपूर्ण ताशकंद यात्रा
कुछ ही लोग जानते होंगे कि मैं अपने पिता के साथ ताशकंद जा रहा था क्योंकि मेरी मां किसी कारण से नहीं जा रही थी. मुझे नहीं पता कि क्या हुआ लेकिन मेरा कार्यक्रम अचानक प्रस्थान से एक दिन पहले रद्द कर दिया गया. मुझे बहुत बुरा लगा क्योंकि मैंने अपने दोस्तों से कहा था कि मैं सोवियत संघ जा रहा हू.
शास्त्रीजी ने मुझे बुलाया और मुझे संयुक्त राज्य अमेरिका की आगामी यात्रा में साथ ले जाने का वादा किया. मैं दुखी था और उन्हें हवाई अड्डे पर जाते हुए नहीं देखा. मेरा पूरा परिवार ताशकंद में सफलता की कामना करने के लिए पालम हवाई अड्डे गया था.
शास्त्रीजी 3 जनवरी 1966 को सुबह 7 बजे अपनी दुर्भाग्यपूर्ण ताशकंद यात्रा पर जाने वाले थे. मैं जगा और मेरे बिस्तर पर ही था. वह मेरे बिस्तर के पास से गुज़रे, मुझे मुस्कुराते हुए प्यार किया. वही आखिरी समय था जब मैंने अपने पिता को देखा था.
लेखक लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र हैं, और एक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं
Read in English : Ambassador not Cadillac: How Lal Bahadur Shastri defied Nehru’s tradition