एक टाइल बनाने वाली कंपनी में काम करने जाने से पहले वंदना जाधव हर दिन बिंदी लगाती हैं और अपना मंगलसूत्र भी पहनती हैं. दो बच्चों की इस 36 वर्षीय मां ने अगस्त 2021 में अपने पति को खो दिया था. वे कहती हैं, ‘उन्हें सर्दी-खांसी और सीने में दर्द था.’
वंदना महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले की हटकनंगले तहसील के एक छोटे से गांव मानगांव में रहती हैं. यदि वह भारत के किसी भी अन्य गांव में रह रही होतीं, तो उन्हें शायद एक हिंदू महिला द्वारा विवाह बाद पहने जाने वाले तमाम प्रतीकों (सुहाग चिन्हों) को त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ता. उनके माथे से सिंदूर मिटा दिया गया होता, उनके मंगलसूत्र और पैर के अंगूठे पर लगे छल्लों (बिछिया) को हटा दिया होता, उनकी कलाई पर सजी चूड़ियों को तोड़ दिया गया होता.
लेकिन हवा में अब बदलाव की आहट है. महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के दो छोटे गांवों ने सामाजिक परिवर्तन लाने की जुगत में एक बड़ी छलांग लगाई है. इसी 4 मई को, हेरवाड़ की ग्राम सभा ने सर्वसम्मति से महिलाओं के आत्मसम्मान को तार-तार करने वाली इस प्रतिगामी (पीछे धकेलने वाली) प्रथा को समाप्त करने के लिए से एक प्रस्ताव पारित किया. इसके कुछ दिनों बाद, लगभग 20 किलोमीटर दूर मानगांव नाम के गांव ने भी इसी निर्णय का अनुसरण किया.
इससे भी आगे बढ़ते हुए मानगांव की ग्राम सभा इस फैसले का पालन करने वाले परिवारों को आर्थिक रूप से और साथ ही करों में कटौती के साथ ‘पुरस्कृत’ कर रही है.
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प्रतिबंध को प्रोत्साहन
मानगांव के सरपंच राजू मगदुम मानते हैं कि लोगों को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है ताकि अपने पति को खोने वाली महिलाओं को बहिष्कृत करने की प्रथा को हर घर से बाहर किया जा सके.
वे कहते हैं, ‘ये परंपराएं बहुत पुरानी हैं और अगर लोगों को अपने तौर-तरीके बदलने के लिए जबरदस्ती मजबूर किया जाता है, तो वे विद्रोह कर सकते हैं.’
कोई भी घर जो इस तरह की प्रथाओं को लागू करने की लीक से अलग हो जाता है, उसे एक साल के लिए संपत्ति या जल कर का भुगतान नहीं करना होगा. मगदुम कहते हैं, ‘हमने ऐसे परिवारों को 5,000 रुपये प्रशंसा की निशानी के रूप में दिए हैं और 15 अगस्त को हमारे स्वतंत्रता दिवस समारोह के दौरान उन्हें सम्मानित भी करेंगे.’
इस ग्राम पंचायत के सभी 17 सदस्य स्टांप पेपर पर शपथ पत्र लिख रहे हैं कि वे इस नए संकल्प को अपने-अपने घरों में लागू करेंगे. पुनर्विवाह की इच्छा रखने वाली युवा विधवाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किये जाने की भी योजना है.
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घर से ही शुरू होता है बदलाव
हेरवाड़ और मानगांव, दोनों गांवों में ग्राम पंचायत के सदस्य शुरू में उनके इस प्रस्ताव के प्रति ग्रामीणों की प्रतिक्रिया को लेकर चिंतित थे. हेरवाड़ की एक ग्राम पंचायत सदस्य मुक्ता पुजारी ने कहा कि उन्होंने छह महीने पहले इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाने का फैसला किया था. वे बताती हैं, ‘लेकिन हमें डर था कि कोई भी उन्हें स्वीकार नहीं करेगा. हालांकि, 4 मई को हमने इसे ग्राम सभा के सामने रखा और इसे सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया.’
गांव के नेता अब यहां के निवासियों को जागरूक करने की दिशा में काम करने की योजना बना रहे हैं. हेरवाड़ ग्राम पंचायत की एक और सदस्य सुषमा राणे ने कहा, लोगों को यह सब समझाना एक चुनौती है, लेकिन हमें इसे पहले अपने-अपने घरों में शुरू करना होगा. हमें अपनी बहू के साथ भी अपनी बेटी की तरह ही व्यवहार करना होगा.‘
महिलाओं के अधिकारों के लिए इस लड़ाई की अगुवाई करने वाली ग्राम पंचायत सदस्य और वंदना की भाभी संध्यारानी जाधव इस प्रतिबंध की मुखर समर्थक हैं. वह कहती हैं कि बदलाव की शुरुआत घर से होनी चाहिए. संध्यारानी कहती हैं, ‘विधवा प्रथा महिलाओं के मनोबल को गिरा देती है. जब मेरे देवर का निधन हुआ तो पूरे परिवार ने वंदना का साथ देने का फैसला किया. हमने उस पर ऐसा कोई नियम नहीं थोपा.’
आम तौर जिन महिलाओं ने अपने पति को खो दिया होता है, उन्हें बाकी की जिंदगी समाज के हासिये पर जीने के लिए मजबूर किया जाता है. उन्हें नजरअंदाज किया जाता है और भुला दिया जाता है. हालांकि, कोविड महामारी ने, या यों कहें कि इस जिले में इसकी वजह से हुई तबाही ने, युवा विधवाओं की दुर्दशा को सबसे आगे ला खड़ा किया है.
संध्यारानी ने कहा, ‘कई सारी जवान औरतों ने कोविड के दौरान अपने पति खो दिए. उनके सामने उनका पूरा जीवन पड़ा है.’ 2 जून तक के सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि कोल्हापुर जिले में इस महामारी से 5,904 लोगों की मौत हुई थी.
वंदना इन ‘अपमानजनक’ प्रथाओं को ख़त्म करने के लिए दृढ़संकल्पित हैं. वे कहती हैं, ‘किसी महिला के पति की मृत्यु के बाद, उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है. अगर पति मर जाता है, तो इसमें महिला का क्या दोष है?’
इस बीच, महाराष्ट्र सरकार ने इन दोनों गांवों की खूब सराहना की है और विधवापन से जुडी प्रथाओं पर इस आधार पर प्रतिबंध लगा दिया है कि वे मानवाधिकारों और महिलाओं की गरिमा का उल्लंघन करते हैं. ग्रामीण विकास मंत्री हसन मुशरिफ ने 17 मई को एक आधिकारिक आदेश जारी कर सभी ग्राम पंचायतों से इस बारे में जन जागरूकता अभियान चलाने और इसी तरह के प्रस्ताव पारित करने का आग्रह किया.
एक प्रगतिशील विरासत
मगदम को इस बात का गर्व है कि ग्रामीणों ने यह कदम उठाया है. उन्होंने कोल्हापुर के राजर्षि शाहू छत्रपति (1874-1922) के शासनकाल को याद करते हुए कहा, ‘हम कोई आम गांव नहीं हैं.’ शाहू महाराज, जैसा कि ग्रामीण उन्हें बुलाते हैं, ने 26 जुलाई 1902 को उस समय एक नया इतिहास रच दिया था, जब उन्होंने पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के लिए सरकारी पदों का 50 प्रतिशत आरक्षित कर दिया था.
मगदूम का दावा है, ‘हम हमेशा से प्रगतिशील रहे हैं. यह वही गांव है जहां बाबासाहेब अम्बेडकर साल 1920 में शाहू महाराज के अनुरोध पर अस्पृश्यता (अछूत प्रथा) पर एक बैठक के लिए आगे थे.’
हालांकि, शाहू महाराज के निधन के 90 साल बाद, और 25 जुलाई 1856 को विधवा पुनर्विवाह की क़ानूनी रूप दिए जाने के 156 साल भी विधवाएं अभी भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं.
बहुतों के लिए जन्नत अभी काफी दूर है
कोल्हापुर जिले के गांवों में जहां भी दिप्रिंट ने दौरा किया, महिलाओं ने बताया कि जिस दिन उनके पति का निधन हुआ, उस दिन उनका जीवन किस तरह से बदल गया. हर एक विधवा का बस एक ही सवाल था: ‘ऐसा क्यों? क्या मैंने अपने पति को मार डाला है?’ यहां तक किमानगांव में भी, हर विधवा वंदना की तरह भाग्यशाली नहीं है.
41-वर्षीय आंगनवाड़ी कार्यकर्ता भारती कोली ने कोविड की दूसरी लहर के दौरान अपने पति को खो दिया था. चूंकि उनका साथ देने के लिए उनका अपना कोई परिवार नहीं है, इसलिए वह समाज के ‘नियमों’ का पालन करती है. वे बताती हैं, ‘मेरे समुदाय में, जब किसी के पति की मृत्यु हो जाती है, तो उसके तीसरे दिन एक और विधवा आती है और उसका सिंदूर पोंछती है, चूड़ियाँ तोड़ती है और पैर की बिछिया निकाल देती है. गहने उतारते समय उसे अपना दुख-दर्द कैसे याद नहीं रहता? एक महिला को दूसरे के साथ ऐसा क्यों करना चाहिए?’
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कोली का कहना है कि हालांकि उन्होंने अब लाल बिंदी लगाना शुरू कर दिया है, मगर समाज अभी भी उन्हें एक विधवा के रूप में ही देखता है. पहले महिलाओं को माथे पर सिर्फ काली बिंदी लगाने की इजाजत थी. कोली बताती हैं, ‘मैं हरे रंग का कपड़ा नहीं पहन सकती या फिर सामाजिक अथवा धार्मिक समारोहों में शामिल नहीं हो सकती क्योंकि मुझे बहिष्कृत कर दिया जाएगा.’
हेरवाड़ गांव में, तीन साल की 49 वर्षीय मां, अनीता कांबले, छह साल पहले अपने पति की मौत के बाद से किसी भी सभा-समारोह में शामिल नहीं हुई हैं. उन्होंने कहा, ‘वे कहते हैं कि हम मनहूस हैं. जब मेरे अपने बेटे की शादी हुई तब भी मुझे तमाम रीति-रिवाजों से दूर रखा गया. हमें आम औरतों के रूप में नहीं देखा जाता है. इसलिए मुझे बहुत खुशी है कि इस तरह की प्रथाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन लोगों को इसे स्वीकार करने में समय लगेगा.‘
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