नई दिल्ली: साल 2012 में पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह के दावे कि ‘तैयारियों के लिहाज से सेना की स्थिति बहुत खराब है’ और संसदीय स्थायी समिति द्वारा इस ‘गंभीर कमी’ को स्वीकार करने से लेकर अब तक भारत के सशस्त्र बलों ने एक लंबा सफर तय किया है.
पिछले आठ सालों में रक्षा और सैन्य मामले नरेंद्र मोदी सरकार का एक प्रमुख फोकस क्षेत्र रहा है. और इसमें कोई संदेह नहीं है कि 2014 की तुलना में सेना, नौसेना और वायु सेना के पास बेहतर सुसज्जित और अधिक हथियार हैं और वह पहले से ज्यादा ताकतवर हुई है.
मोदी सरकार ने न केवल सालों से लंबित पड़े कई प्रमुख सौदों को हरी झंडी दिखाई है बल्कि वह इसके साथ-साथ रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता पर भी जोर दे रही है. पैदल सेना के लिए अमेरिका से नई SiG 716 राइफलें हो या वायु सेना के लिए फ्रांस से राफेल जेट या चिनूक हैवी लिफ्ट और अपाचे अटैक हेलीकॉप्टर या फिर रूस से S 400 एअर डिफेंस सिस्टम, मोदी सरकार ने बेहतर उपकरणों पर जोर दिया है.
इसके अलावा बड़ी स्वदेशी खरीद में K9 वज्र बंदूकें शामिल हैं, जिसने आर्टिलरी की मारक क्षमता में इजाफा किया है. वहीं दूसरी तरफ परमाणु और पारंपरिक दोनों तरह की मिसाइल क्षमताओं को भी तवज्जो दी गई.
सरकार ने लालफीताशाही से भरी लंबी और जटिल खरीद प्रक्रिया से गुजरे बिना सेना के लिए जरूरी हथियारों को खरीदने के लिए सर्विस हेडक्वार्टर को दी गई वित्तीय शक्तियों को भी बढ़ा दिया.
सरकार इस दशक का सबसे बड़ा बदलाव भी लेकर आई- सेना के तीनों अंगो के मामले में एक संयुक्त सशस्त्र बल के लिए चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के पद का निर्माण किया.
हालांकि सेना को मजबूत बनाने के लिए सैन्य उपकरणों की ये खरीद, सरकार के धीरे-धीरे आगे बढ़ने के नजरिये को रेखांकित करती हैं. हो सकता है कि ये सशस्त्र बलों को बेहतर ढंग से सुसज्जित कर दें, लेकिन वे अभी भी और अधिक की तलाश में हैं.
जैसा कि पूर्व सेना कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एच.एस. पनाग (सेवानिवृत्त) ने दिप्रिंट के लिए अपने हालिया कॉलम में उल्लेख किया, ‘मोदी सरकार के शासनकाल में सीधे तौर पर सेना के सुधारों के बारे में सोचा तो गया लेकिन अनजान कारणों से इस पर अमल नहीं किया गया है.’ लेकिन यूपीए 2 सरकार के दौरान निर्णय लेने की क्षमता का जो अभाव था सेना अब उससे उबर गई है.
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राफेल से चिनूक: बहुत कम और बहुत देर से
जब मोदी 2014 में सत्ता में आए, तब भी सेना 1980 और उससे पहले के सिस्टम पर बहुत अधिक निर्भर थी. लड़ाकू हेलीकॉप्टर, नई पनडुब्बी, लड़ाकू विमान और हॉवित्जर जैसे प्रमुख प्रोजेक्ट पर लिए जाने वाले फैसले अधर में लटके पड़े थे.
इस लिहाज से मोदी सरकार का चिनूक, अपाचे, रोमियो का ऑर्डर देना विकास के लिहाज से एक स्वागत योग्य कदम था. हालांकि यह संख्या अभी बहुत छोटी है.
सेना को छह अपाचे मिलना भूसे के ढेर में सुई के समान है. आदर्श रूप से, भारतीय वायुसेना के 22 अपाचे और सेना के लिए फिर से ऑर्डर किए गए छह को एक साथ जोड़कर अकेले आर्मी को दिए जाने चाहिए थे.
हालांकि स्वदेशी हल्का लड़ाकू हेलीकाप्टर भी एक विकल्प है, लेकिन वे अपाचे के समान नहीं हैं. और जब तक हम इस पर काम कर रहे हैं, स्वदेशी हेलीकॉप्टरों के लिए बड़े ऑर्डर दिए जाने चाहिए. 15 बहुत छोटी संख्या है.
The Cabinet Committee on Security (CCS) has today approved procurement of 15 Light Combat Helicopter (#LCH) Limited Series Production at the cost of Rs. 3,887 Cr along with Infrastructure sanctions worth Rs. 377 Cr. @ThePrintIndia pic.twitter.com/mRW5sBCtww
— Snehesh Alex Philip (@sneheshphilip) March 30, 2022
अपाचे और चिनूक के निर्माता बोइंग और अधिक हेलीकाप्टरों के लिए सशस्त्र बलों के साथ बातचीत कर रहे हैं, ये कुछ ऐसा है जो बहुत पहले किया जाना चाहिए था.
राफेल की भी कुछ ऐसी ही कहानी है. इंडियन एअरफोर्स एक दशक से ज्यादा समय से ऐसे 126 लड़ाकू विमानों को देख रहा था, लेकिन उन्हें सिर्फ 36 से ही संतोष करना पड़ा.
वायु सेना अभी भी 114 नए लड़ाकू विमानों की तलाश में है, जिसके लिए टेंडर लंबित पड़े हैं. राफेल सौदे को लेकर चल रहे विवाद से परेशान होने के बजाय, मोदी सरकार को जल्दी से आगे बढ़ते हुए वायु सेना के लिए और अधिक लड़ाकू विमानों के बारे में फैसला करना चाहिए.
इस तरह के धीरे-धीरे किए गए सौदे वास्तव में भारत जैसे बड़े सशस्त्र बल के लिए काम नहीं करते हैं. इसके लिए सख्त निर्णय लेने की जरूरत है और नौसेना के लिए नए लड़ाकू विमानों या पनडुब्बियों जैसे प्रोजेक्ट को समय पर नहीं टाला जा सकता है.
सेना मल्टी- बिलियन डॉलर के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से गुजर रही हैं, जिसमें नए लड़ाकू विमानों, पनडुब्बियों, विमान वाहकों, हवा में ईंधन भरने वाले, टैंक, सशस्त्र यूएवी, हॉवित्जर, असॉल्ट राइफल, हेलीकॉप्टर शामिल हैं. इसलिए सरकार को दृढ़ रहना होगा और बड़े आर्डर पर फैसले लेने होंगे.
नीतिगत मोर्चे पर भी ‘निर्णय लेने की क्षमता के अभाव’ के संकेत नजर आ रहे हैं – छह महीने से ज्यादा समय से एक नए सीडीएस की नियुक्ति न होना इसका एक उदाहरण है. आदर्श रूप से, सरकार को सीडीएस बिपिन रावत की मौत के एक सप्ताह के भीतर निर्णय ले लेना चाहिए था क्योंकि यह ‘खाली जगह’ सुधार के लगातार चल रहे कार्यों में बाधा डालती है, विशेष रूप से थिएटर कमांड बनाने में.
सरकार को एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति भी लानी थी, जो 2018 से लंबित है.
इसके पक्ष में यह तर्क दिया जा सकता है कि हर चीज में समय लगता है. मोदी सरकार के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है और रातोंरात चीजों को बदलने की उम्मीद नहीं की जा सकती है. यह सच भी है. लेकिन एक यह भी सच है कि मोदी को सत्ता में आए आठ साल हो चुके हैं. हालांकि रक्षा तैयारियों में सुधार हुआ है लेकिन भारतीय सेना अपने अपेक्षित मुकाम पर नहीं पहुंच पाई है. इसमें तेजी से बदलाव की जरूरत है.
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