भारत की सड़कें दुनिया में सबसे खतरनाक और सर्वाधिक मौतों की वजह हैं. महामारी के दौरान दुर्घटनाओं में गिरावट के बावजूद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले कुछ साल से सड़क दुर्घटना में मृत्यु के आंकड़े सालाना करीब 1,50,000 के आसपास रहे हैं.
2019 में एनसीआरबी में भारतीय सड़कों पर 1,54,732 मौतें दर्ज हुईं. इनमें 83.2 फीसदी मौतें तेज रफ्तार या ‘उटपटांग और खतरनाक’ ड्राइविंग की वजह से हुईं. एनसीआरबी की रिपोर्ट में सड़कों पर मृत्यु की तीसरी बड़ी वजह ‘अन्य कारण’ की श्रेणी में दर्ज हैं. ड्राइवर को दोष देना और कुछ नहीं, बल्कि ठीक से जांच न करने जैसा है क्योंकि इसका खास सबूत नहीं मिल पाता कि गाड़ी खराब ढंग से चलाई जा रही थी. यह एक संभावना भर है, जो भारत के लोगों के गाड़ी चलाने के तरीकों के मद्देनजर विश्वसनीय-सी लगती है.
इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट की सड़क सुरक्षा पर समिति ने जोर दिया है कि सभी बड़ी सड़क दुर्घटनाओं की जांच सही से की जाए, ताकि मूल वजह का पता चले. यह बेहद जरूरी है क्योंकि लगभग हर रोज अमूमन अखबार के पांचवे या छठे पन्ने पर किसी दुर्घटना में दस या ज्यादा लोगों की मौत की खबर पढ़ने को मिलती है.
हर रोज सड़कों पर 500 मौत के साथ भारत सड़क दुर्घटनाओं के प्रति असंवेदनशील बन गया है. सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी इस बारे में कुछ ठोस करने के प्रति प्रतिबद्ध जान पड़ते हैं. उनके मंत्रालय ने सड़क सुरक्षा और दुर्घटनाओं को लेकर मौजूदा दिशानिर्देशों में कुछ बदलाव का आदेश दिया है. मसलन, बीमा को लेकर बदलाव, ताकि घायल या मृत्यु के शिकार पीड़ित परिवार को बीमा का कवरेज हासिल हो. सभी वाहनों के लिए नए सुरक्षा उपायों के भी निर्देश दिए गए हैं. यात्री वाहनों में जल्दी ही छह एयरबैग होंगे और मोटरसाइकिलों में संयुक्त ब्रेक की व्यवस्था होगी.
ये कदम तो स्वागतयोग्य हैं लेकिन काफी कुछ ऐसा है, जो नजरों से छुपा हुआ है. बुनियादी सुरक्षा उपायों के बगैर ई-रिक्शा को बढ़ावा देना, स्कूली बच्चों को ढोने वाले भीड़ भरी ओमनी बसें और हेलमेट तथा सीट बेल्ट लगाने जैसे मूल सुरक्षा उपायों पर अमल करवाने में सरकारी नाकामी इन नए सुरक्षा मानकों को भोथरा बना देंगे.
यह भी पढ़ें: सूफीवाद शांतिपूर्ण इस्लामी संप्रदाय नहीं है जैसा आपको लगता है, यह भी तलवार की आड़ लेकर बढ़ा है
कमजोर आंखों और सड़क दुर्घटनाओं का नाता
बड़ी संख्या में दुर्घटनाओं की एक और वजह है लेकिन एनसीआरबी और मंत्रालय उसकी चर्चा नहीं करता. इसे कोई भी अनुभव कर सकता है. जरा अपने आसपास देखिए. आपके वयस्क परिजनों और दोस्तों में कितने सही चश्मे या लेंस पहनते हैं? शायद तीन में एक और कुछ मामलों में आधे या उससे ज्यादा.
दरअसल, इंडिया विजनस्प्रिंग फाउंडेशन के प्रबंध निदेशक अंशु तनेजा के मुताबिक, बैकलिट इलेक्ट्रॉनिक्स के प्रसार के कारण हम दृष्टि कमजोर होने की महामारी के दौर में हैं और तकरीबन हर दो में से एक वयस्क को किसी तरह का चश्मा चाहिए.
कितने व्यावसायिक वाहनों के ड्राइवर चश्मे पहनते हैं? अगर आपका कोई ड्राइवर है तो उसकी आंखों की जांच कितनी बार होती है? कुछ साल पहले एक अग्रणी वाहन कंपनी ने दिल्ली हवाई अड्डे पर आंख जांच कैंप लगाया. कंपनी ने पाया कि हर तीन में से एक ड्राइवर को फौरन आंख की इलाज कराने की दरकार है. उसके एक साल पहले एक अन्य वाहन कंपनी ने सुरक्षा जांच के मद में ट्रक ड्राइवरों के टेस्ट कराए. उसमें पाया गया कि न सिर्फ आधे ड्राइवरों को चश्मे की दरकार थी, बल्कि उनमें पांच फीसद को मोतियाबिंद हो रही थी. लिहाजा, इस कंपनी ने ट्रक ड्राइवरों की सालाना आंख जांच और जरूरत पड़ने पर चश्मा पहनना अनिवार्य कर दिया.
तनेजा के मुताबिक, समस्या मोटे तौर पर मनोवैज्ञानिक है. विजनस्प्रिंग ने पिछले कुछ वर्षों में सालाना करीब 25 लाख आंख जांच में पाया कि इनमें 40 फीसदी को सही चश्मे की दरकार थी. तनेजा ने कहा, ‘हमारा मिशन यह है कि रोजाना 4 डॉलर से कम आमदनी वाले ज्यादा से ज्यादा लोग सही चश्मा पा सकें. लेकिन यह जेब के मुनासिब होने का मामला नहीं है, क्योंकि 300-350 रुपए में आप बुनियादी चश्मा पा सकते हैं. समस्या यह है कि ड्राइवरी का काम करने वाले ज्यादातर लोगों को लगता है कि चश्मा पहनना कमजोरी की निशानी है.’
व्यावसायिक लाइसेंस वाले ड्राइवरों को हर तीन साल में अपने लाइसेंस का नवीकरण कराने की जरूरत होती है और लाइसेंस नवीकरण के दौरान निजी वाहन वालों को भी डॉक्टर से आंख जांच करवाना जरूरी है लेकिन इस पर शायद ही अमल होता है.
बकौल तनेजा, उनका फाउंडेशन कॉरपोरेट सेक्टर के साथ इस दिशा में काम कर रहा है कि उनके बस और ट्रक चलाने वाले डॉक्टर ही नहीं, उनके कर्मचारियों की आंख जांच नियमित हो. ‘हमने देश भर में दस लाख लोगों को चश्मे बांटे हैं. दरअसल हम फ्रेम और लेंस दोनों ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के तहत करने की दिशा में बढ़ रहे हैं.’
लेकिन इस बारे में आप अपने आसपास के लोगों से भी कह सकते हैं. चाहे आपका ऑटो या टैक्सी ड्राइवर ही क्यों न हो, अगर वह स्टीयरिंग पकड़े आंखों पर जोर डाल रहा है या रात में हाई-बीम लाइट से चौंधिया जाता है, तो उसे आंख जांच करवाने को कहिए. राज्य सरकारें जरूर यह आश्वस्त करें कि क्षेत्रीय ट्रांसपोर्ट दफ्तरों के लाइसेंस केंद्रों में आंख जांच की व्यवस्था हो और सरकार बसों के ड्राइवरों की आंख की जांच नियमित हो. शायद सुप्रीम कोर्ट समिति फॉरेंसिक अध्ययन पर जोर दे रही है. यानी दुर्घटना के शिकार ड्राइवरों के शव की आंख की जांच भी हो.
(कुशान मित्रा नई दिल्ली स्थित ऑटोमोटिव पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: संगीत की चमकदार दुनिया के धुंधलके में भी कृष्णकुमार कुन्नथ (केके) ने अपनी चमक बरकरार रखी