मध्य अवधि में वाणिज्यिक निर्यात में आई गतिहीनता पर ध्यान देने की ज़रूरत है
इस कैलेंडर वर्ष में अब तक रुपये के डॉलर मूल्य में 13 फीसदी की गिरावट आई है. इस बात ने देश के वस्तु एवं सेवा व्यापार में बढ़ते घाटे की ओर हमारा ध्यान केंद्रित किया है. कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से भी इस घाटे में नाटकीय इजाफा हुआ है. विदेशों से होने वाले धनप्रेषण को शामिल कर लें तो भी वर्ष 2017-18 में इसके जीडीपी का 2.6 फीसदी रहने की उम्मीद है. यह वर्ष 2012-13 के बाद का उच्चतम स्तर है. सरकार ने प्रतिकिया के अनुरूप निर्यात को बढ़ावा देने और गैर- ज़रूरी आयात कम करने की बात करनी शुरू कर दी है.
निर्यात में आयी स्थिरता पर विचार करना ज़रूरी है. आमतौर पर इससे तात्पर्य है वाणिज्यिक वस्तुओं के निर्यात का. तेल कीमतों में होने वाले तेज़ी से बदलाव के कारण को ध्यान में रखा जाए तो निराश करने वाली बात यह है कि इस दशक में गैर-तेल निर्यात में बहुत धीमी गति से बढ़ोतरी दर्ज की गई है. यह वर्ष 2010-11 में 21,000 करोड़ डॉलर से बढ़कर 2017-18 में 26,500 करोड़ डॉलर तक ही पहुंचा है. यानी सात वर्ष में केवल 26 फीसदी की बढ़ोतरी और सालाना 3 फीसदी की औसत वृद्धि दर दर्ज़ की. यह वर्ष 2011 तक के निर्यात प्रदर्शन के बिलकुल विपरीत है. सन 1990 के दशक में गैर तेल निर्यात 140 फीसदी बढ़ा था. अगले दस वर्ष के बीच तो 395 फीसदी की शानदार वृद्धि दर्ज की गई. मौजूदा दशक के दौरान गैर तेल निर्यात में 40 से 50 फीसदी की वृद्धि देखने को मिल सकती है जो तेज़ी से मंदी को दर्शाता है.
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उसी अवधि में गैर तेल आयात की गति धीमी हो गयी. वर्ष 2010-11 में 28,800 करोड़ डॉलर से बढ़कर 2017-18 में यह 35,000 करोड़ डॉलर हुआ. यानी मात्र 21 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी . यह दर उस समय की निर्यात वृद्धि की दर के आसपास ही है. ऐसे में कोई सवाल पूछ सकता है कि चिंता की क्या बात है? वास्तविक संदर्भ में भी देखें तो वस्तु व्यापार में गैर तेल क्षेत्र का घाटा सात वर्ष में 5,500 करोड़ डॉलर से बढ़कर 6,200 करोड़ डॉलर हुआ है. यह मामूली बढ़ोतरी है। यानी सारा मामला तेल का है.
कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि भारतीय सॉफ्टवेयर निर्यात तेल की कमी पूरी कर देगा क्योंकि सॉफ्टवेयर निर्यात में कम से कम उतनी ही बढ़ोतरी देखने को मिल रही थी जितना की तेल आयात का बिल था. वास्तव में ऐसा हुआ भी. सॉफ्टवेयर निर्यात वर्ष 2000-01 के 630 करोड़ डॉलर के मामूली स्तर से बढ़कर 2010-11 में 4,760 करोड़ डॉलर तक पहुंचा. अगले वर्ष तो यह 16,000 करोड़ डॉलर हो गया. जबकि उसी वर्ष में तेल आयात का बिल 10,900 करोड़ डॉलर का था.
हालांकि रिज़र्व बैंक ने सेवा व्यापार को लेकर जो मासिक रिपोर्ट जारी की है उसमें असंगत आंकड़े नज़र आते हैं. यह सही तस्वीर पेश नहीं करता. उदाहरण के लिए आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011-12 में कुल सेवा निर्यात 13,700 करोड़ डॉलर था. यह सॉफ्टवेयर निर्यात से दोगुना था. यद्यपि रिज़र्व बैंक के 2017-18 के आंकड़ों को देके देखे तो सेवा निर्यात 16,300 करोड़ डॉलर था. यह राशि सॉफ्टवेयर निर्यात से तो कम है ही, यह सभी सेवा निर्यात में धीमेपन को दर्शाता है. वर्ष 2011-12 से अब तक क्षेत्र में 19 फीसदी की ही वृद्धि देखने को मिली. इन आंकड़ों को उद्योगों द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों से मिलाकर देखना होगा.
ध्यान देने वाली बात यह है कि सेवा व्यापार पर संपूर्ण बचत अपेक्षाकृत धीमी गति से बढ़ी है. वर्ष 2011-12 में कुल सेवा आयात 8,600 करोड़ डॉलर का था यानी 5,100 करोड़ डॉलर की शुद्ध बचत. पिछले साल सेवा आयात 10,200 करोड़ डॉलर रहा. इसमें 1,000 करोड़ डॉलर से अधिक की बढ़ोतरी देखने को नहीं मिली यानी छह वर्ष में करीब 20 फीसदी वृद्धि. यह सॉफ्टवेयर निर्यात को लेकर उद्योग जगत के आंकड़ों से काफी कम है।
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सेवा व्यापार के शुद्ध बचत में स्थिरता का अर्थ यह है कि यह तेल व्यापार में घाटे से कमतर रहने लगा. पिछले साल यह 6,100 करोड़ डॉलर के सेवा बचत की तुलना में 8,500 करोड़ डॉलर था. सन 2010-11 में दोनों आंकड़े काफी करीब थे. इस वर्ष यह अंतर और बढ़ जायेगा.
संक्षेप में कहें तो सेवा निर्यात, देश के तेल आयात के संकट का जवाब नहीं बन पाया. हमें वस्तु व्यापार में आई स्थिरता पर ध्यान केंद्रित करना होगा. वस्त्र एवं औषधि जैसे क्षेत्रों को देखते हुए यह बात खासतौर पर ध्यान देने लायक है.
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