सरकार ने हाल में जो दो बिक्री की है, आइए उस पर विचार करें. एयर इंडिया को पूरी तरह टाटा ग्रुप को बेचा, तो जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के शेयर खुदरा निवेशकों को बेचे. एलआईसी के शेयर की कीमत निजी क्षेत्र के प्रतिद्वंद्वियों के शेयर की कीमत (सन्निहित कीमत के संदर्भ में) की कसौटी के मुक़ाबले कम रखी गई. फिर भी लिस्टिंग के बाद उसके शेयर की कीमत गिर गई.
ऐसा सरकारी कंपनियों के मामले में पहले भी हो चुका है. उदाहरण के लिए, कोल इंडिया. एलआईसी के, जिसका 96.5 प्रतिशत हिस्सा सरकार के हाथ में है, विपरीत एयर इंडिया का पूर्ण निजीकरण कर दिया गया है. पहले बिक्री की पेशकश यह की गई थी कि सरकार के पास कुछ शेयर रहेंगे लेकिन ऐसे में कोई खरीदार नहीं मिला. सारे शेयर की पेशकश के बावजूद बिक्री तब हुई जब सरकार ने उसके करीब 50,000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ कर दिए. अब उम्मीद की जा रही है कि यह एयरलाइन बेहतर कारोबार करेगी.
यह द्वंद्व कोई नया नहीं है. जिन कंपनियों का निजीकरण हुआ (मुख्यतः वे जिन्हें अरुण शौरी ने वाजपेयी सरकार के दौर में बेचा, मसलन जिंक और तांबे का उत्पादन करने वाली) उन्होंने बेचे जाने के बाद, सरकार द्वारा चलाई जा रहीं अधिकतर कंपनियों (जिनमें निजी शेयरधारक अल्पमत में थे) के मुक़ाबले अच्छा कारोबार किया. ऐसी कई ‘विनिवेशित’ कंपनियों को उनके अधिकतम मूल्य के आधे या एक तिहाई मूल्य पर कोट किया जा रहा है, जबकि शेयर बाज़ार में उनके अधिकतम मूल्य के बमुश्किल 10 फीसदी के बराबर कोट किया जा रहा है. इस कहानी में तब भी कोई फर्क नहीं आया जब सरकार ने सरकारी बैंकों में खरबों की नयी पूंजी झोंकी, या बीएसएनएल और एमटीएनएल को भारी-भरकम कर्जमाफ़ी के रूप में परोक्ष पूंजी दी.
निजीकरण के विपरीत ‘विनिवेश’ का तर्क यह है कि निजी निवेशक अल्पमत में भी हों तो भी वे कंपनी पर बेहतर काम करने और सरकार को दूर रखने का दबाव डालेंगे. मान्यता यह थी कि सार्वजनिक क्षेत्र के प्रबंधकों को सरकारी दखल से आज़ादी दी गई तो वे अच्छा काम करेंगे. यह तर्क कुछ मामलों में तो काम आया, कुछ में नहीं. हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स और भारत इलेक्ट्रोनिक्स जैसे उपक्रमों को काम करने की काफी आज़ादी हासिल है और उनके शेयरों की कीमत उच्चतम स्तर पर है. लेकिन ये अर्द्ध-एकाधिकार वाली हैं. प्रतिस्पर्द्धी हालत में लार्सेन ऐंड टूब्रो के बन्दरगाह ने दिखा दिया है कि वह लागत के अंदर और समय सीमा में पोत बनाकर दे सकता है, जबकि दूसरा उपक्रम मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स ऐसा नहीं कर पाया है.
हकीकत यह है कि सार्वजनिक उपक्रमों में निर्णय प्रक्रिया बाधित होती है. इसीलिए एलआईसी और सरकारी बैंक निजी क्षेत्र के प्रतिस्पर्द्धियों से पिछड़ जाते हैं. इसके अलावा यह धारणा कि समस्या सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबंधक नहीं बल्कि सरकार है, सरकारी कंपनियों की लिस्टिंग की मांग को खारिज कर देती है क्योंकि उनमें से कई सरकारी मनमानी की शिकार होती हैं.
इसीलिए पूर्ण निजीकरण की मांग की जाती है, जैसा कि एअर इंडिया के मामले में हुआ, जिसे मंत्रियों की दखलंदाजियों ने बरबाद कर दिया था.
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सार्वजनिक क्षेत्र का पक्ष लेने वाले कहेंगे कि निजी क्षेत्र में भी असफलता उतनी ही मिलती है जितनी सार्वजनिक क्षेत्र में मिलती है. ग्लोबल ट्रस्ट, सेंचूरियन जैसे कई निजी बैंकों को लाइसेन्स दिया गया मगर आज उनका नामोनिशान नहीं है, जबकि कुछ (यस बैंक) तो घोटालों के शिकार हो गए. यही हाल अधिकतर टेलिकॉम और निजी एयरलाइन्स को लाइसेन्स देने का हुआ है. लेकिन प्रतिस्पर्द्धा का मामला यह है कि नाकाम होने वाले रास्ते से हट जाएंगे जबकि सरकारी कंपनियों में करदाताओं का पैसा झोंकते रहने की प्रवृत्ति होती है.
भारत में निजीकरण के खिलाफ तर्क यह दिया जाता है कि किसी बड़ी कंपनी बिक्री के बाद भारत के बड़े घरानों की गोद में पहुंच जाएगी. कोई भी समझदार आदमी नहीं चाहेगा कि वे जितनी ताकतवर हैं उससे ज्यादा ताकतवर बन जाएं. इसलिए भारत में बाजार (विमानन, टेलिकॉम, बैंकिंग, बीमा) के निजीकरण का मॉडल ही सफल रहा है, न कि उन बाज़ारों की कंपनियों का. लेकिन प्रतिस्पर्द्धी नाकाम होने वाले सरकारी उपक्रमों से निबटने की समस्या बनी रहती है.
अगर एयर इंडिया वाला समाधान अपनाया जाता है तो कंपनी के दिवालिया होने का इंतजार किया जाएगा और उसके बाद उसे कोई लेने को तैयार हो तो बिना दाम के दे दिया जाएगा. या सरकारी कंपनियों के दिवालिया होने की प्रक्रिया का विस्तार किया जाएगा और उसे खुली नीलामी में बेच दिया जाएगा, भले ही किसी बड़े घराने ने दूसरे दावेदारों को दारा दिया हो (क्योंकि भारत में पारदर्शी प्रक्रिया को अपारदर्शी बनने में देर नहीं लगती).
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