एक साल पहले, यूरोपीय देश जर्मनी ने कबूल किया कि उसने नामीबिया में औपनिवेशिक नरसंहार किया था और वह इसकी क्षतिपूर्ति करेगा. लेकिन मुआवजे की रकम बेहद छोटी थी (30 साल में 1.1 अरब यूरो, जिसे विकास परियोजनाओं पर खर्च किया जाएगा) और इस फैसले में ‘क्षतिपूर्ति’ शब्द के प्रयोग से बचा गया था. इस फैसले का नामीबिया ने कड़ा विरोध किया और इस समझौते को रोक दिया.
एक अलग मामला अमेरिका के इलिनोइस राज्य के एवांस्टन शहर का है, जिसने अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों की 12,000 की आबादी में से कुछ चुनींदा लोगों को गुलामी की क्षतिपूर्ति के तौर पर कुल 1 करोड़ डॉलर का भुगतान देना पिछले साल से शुरू किया. यह रकम अतीत में भेदभावपूर्ण आवास नीतियों की क्षतिपूर्ति के तौर पर उन्हें आवास मुहैया कराने में मददगार होगी. आलोचकों का कहना है कि यह भी बहुत छोटी क्षतिपूर्ति है. जो बाइडन ने राष्ट्रपति चुनाव में प्रचार के दौरान इस मांग का समर्थन किया था कि अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों को क्षतिपूर्ति के मसले को सुलझाने के लिए एक आयोग का गठन किया जाए. अब कई गुट उनसे अपना वादा पूरा करने का दबाव डाल रहे हैं, लेकिन इस मसले पर कानून बनाने का विधेयक शायद ही पास हो पाए.
नामीबिया में जर्मनी का इतिहास बर्बरतापूर्ण था, लेकिन यह कोई एकमात्र घटना नहीं थी. स्थानीय कबीलों के लोगों को गोली मार दी जाती थी, यातनाएं दी जाती थीं, या कालाहारी रेगिस्तान में प्यास से मरने के लिए धकेल दिया जाता था. ऐसे कुछ तरीकों का बाद में नाजियों ने प्रयोग वहां किया जिसे जर्मन दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका कहा जाता था. ये तरीके यातना शिविरों में अपनाए गए. कैदियों को लगभग भ्हूखे रखकर भारी काम करवाए जाते थे, श्वेत नस्ल की श्रेष्ठता साबित करने के लिए मेडिकल प्रयोग किए जाते थे, और लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार किए जाते थे.
क्षतिपूर्ति की, खासकर युद्ध के मामले में क्षतिपूर्ति की मांग कोई नयी नहीं है. जर्मनी ने 1870-71 के फ्रांस-प्रूसिया युद्ध के लिए फ्रांस से मुआवजा वसूला था. इसकी रकम उतनी ही थी जितनी नेपोलियन ने उसी सदी के शुरू में जर्मनी से वसूल की थी. इसके बदले में मित्र देशों ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी से मुआवजा वसूला. जर्मनी ने ‘होलोकास्ट’ यानी सर्वनाश के दौरान यहूदियों की हत्या और लूट के लिए इजराएल को 14 साल में 3 अरब जर्मन मार्क का मुआवजा भुगतान किया. लेकिन उपनिवेशीकरण और गुलामी के मामले में विचित्र इतिहास यह है कि मुआवजा गुलामों से वसूला गया, गुलाम बनाने वालों से नहीं.
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आज के हैती में 1791 में गुलामों ने जो ऐतिहासिक क्रांति की थी (जिसने गुलामों के धंधे की दिशा उलट दी थी) उसके बाद उपनिवेशवादी शक्ति फ्रांस ने दशकों की लड़ाई के बाद बागियों को इस शर्त पर बने रहने दिया था कि वे गुलामों के मालिको को उनके ‘संपत्ति’ के नुकसान के एवज में उस द्वीप के वार्षिक उत्पादन के मूल्य के तीन गुने के बराबर मुआवजा भुगतान करेंगे. फ्रांस को भुगतान (मूलधन और ब्याज) 75 साल तक किया जाता रहा और आगे दो दशकों तक भुगतान अमेरिका को किया गया.
इस दोहन ने हैती को कंगाल बना दिया, और आज वह दुनिया का सबसे गरीब देश है. थॉमस पिकेटी ने अपनी ताजा किताब ‘अ ब्रीफ़ हिस्टरी ऑफ इक्वलिटी’ में सवाल उठाया है कि क्यों न फ्रांस अब हैती को वह रकम वापस कर दे? अर्थशास्त्री पिकेटी ने हिसाब लगाया है कि हैती की मौजूदा जीडीपी की तीन गुनी रकम करीब 30 अरब यूरो के बराबर होगी (जो फ्रांस की जीडीपी के मात्र 1 प्रतिशत के बराबर होगी). इस विषय पर कई किताबें आ चुकी हैं, और डॉ. पिकेटी कहते हैं कि इस मसले की अनदेखी नहीं की जा सकती.
गुलामी के खिलाफ चली बहस में यह धारणा फैली हुई थी कि गुलामों के मालिक अपराधी नहीं बल्कि भुक्तभोगी थे. उदाहरण के लिए मोंटेस्कु ने प्रस्ताव किया था कि गुलामों के मालिकों से गुलामों को मुक्त किए जाने से घाटा हुआ उसकी भरपाई करने के लिए मुक्त हुए गुलाम 10-20 साल तक उनके यहां कम मजदूरी पर काम करें. वास्तव में, ब्रिटेन और दूसरे देशों ने 19वीं सदी में जब गुलामी प्रथा खत्म की, तो गुलामों के मालिकों को मुआवज़े के भुगतान किए. अमेरिकी गृहयुद्ध में मुक्त हुए गुलामों को संघ की खातिर लड़ने के लिए इस वादे के साथ मजबूर किया गया कि युद्ध खत्म होने के बाद उन्हें 40 एकड़ जमीन और एक खच्चर दिया जाएगा लेकिन यह वादा कभी पूरा नहीं किया गया.
मुआवजे का भुगतान एक जटिल मामला होता है. मुआवज़े का हिसाब कैसे लगाया जाए? पैसा किसे खर्च होगा यह कौन तय करेगा? अगर उसे लोगों में बांटना है तो किस कितना दिया जाएगा—नकदी के रूप में होगा या मान लीजिए शिक्षा के रूप में? क्या इसका अंतिम नतीजा उतना ही असंतोषजनक होगा जितना भोपाल गैस हादसे में सरकार को दिए गए मुआवज़े के पैसे के वितरण में रहा, क्योंकि कई पीड़ितों को आज तक कष्ट भुगतना पद रहा है?
भारत और चीन जैसे बड़े देशों के साथ जो कुछ किया गया उसके एवज में कोई भी क्षतिपूर्ति पर्याप्त नहीं हो सकती. जलवायु संबंधी समझौते या व्यापार वार्ताओं में बड़ी अनीच्छा से छोटी रियायत दी जाती है उनके मामले में भी यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि भुगतान न्यायपूर्ण होगा. इसलिए, पूर्व उपनिवेशवादी शक्तियां अगर अपने स्कूलों-कॉलेजों के पाठ्यक्रम में यह कबूल करें कि वास्तव में वे कैसे और किसकी कीमत पर अमीर बन गए तो वह भी काफी हो सकता है. लेकिन आज इन मसलों को इतिहास से मिटाया जा रहा है.
विचार निजी हैं.
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