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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतबग्गा हो या मेवाणी, विरोधियों की प्रताड़ना है गैरकानूनी: इससे ही कानून का राज बचेगा

बग्गा हो या मेवाणी, विरोधियों की प्रताड़ना है गैरकानूनी: इससे ही कानून का राज बचेगा

आप तेजिंदर सिंह बग्गा जैसों से कैसे निपटेंगे ? अच्छा यही है कि उसकी अनदेखी की जाये. ऐसे किरदारों को नकारने के जुगत कीजिए प्रतिकार कीजिए और आपका यह नकार ही उनके लिए जीवनदायिनी शक्ति बन जायेगा.

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अजी सिद्धांत गया भाड़ में, बस ये देखिए कि आप किस ओर हैं ! लगता है, आज यही सोच हमारे सार्वजनिक जीवन का नियामक दर्शन बन चला है. हम सब सिद्धांतों की बातें करते हैं, मान-मूल्यों की दुहाइयां देते हैं, नियमों के हवाले देते हैं- लेकिन हम ये सब यह तय कर लेने के बाद में करते हैं कि दरअसल अपना समर्थन किसको देना है. शायद ही कोई अवसर ऐसा होगा जब हम अपने प्रिय सिद्धांतों, कसौटियों और नियमों की तुला पर तौलकर ये फैसला करते हों कि कौन सही है और कौन गलत. अगर हालत ऐसी है तो क्या अचरज कि सिद्धांतों की ऐसी दुहाइयों को अब कोई गंभीरता से नहीं लेता.

नियम-कायदे का दामन थाम कर चलने वाले एक व्यक्ति के रुप में मुझे हमेशा ही सार्वजनिक जीवन के इस तकलीफदेह पहलू का सामना करना पड़ा है. कोई साईत-संयोग भी ये सोचने को तैयार नहीं कि अगर मैंने कुछ कहा है तो इसलिए कि वो बात सही और सच्ची होगी, हक की बात होगी.

ऐसा कत्तई नहीं कि आज सिर्फ हमारा राजनीतिक जीवन ही भावावेगों से भरा हो. मुझे शिक्षा-जगत, सरकारी संस्थान और सामाजिक आंदोलनों में भी समान रूप से इसी भावावेगी स्थिति का सामना करना पड़ा है. आप किसी दोस्त के प्रस्ताव पर आपत्ति उठाते हैं क्योंकि वह प्रस्ताव लचर किस्म का है लेकिन फिर ऐसा करके अपनी दोस्ती को गंवाने का जोखिम मोल लेने के लिए तैयार रहिए.

मान लीजिए, परली खेमे के किसी ने कोई सही काम किया, कोई ठीक बात कही और आपने समर्थन कर दिया तो फिर लोगों की जीभ पर चटखारे फूटने लगते हैं कि अरे, जरुर कुछ सेटिंग हो रखी है! लाल किले पर 26 जनवरी के दिन धर्म-विशेष का झंडा फहराने के खिलाफ मैंने आवाज उठायी तो दरअसल यही मंजर पेश आया था, सिंघु बार्डर पर कुछ निहंगों ने एक दलित सिख को पीट-पीट कर मार डाला था और इस घटना के खिलाफ भी मेरे बोलने पर ऐसा ही देखने को मिला.

लखीमपुर खीरी की घटना में एक बीजेपी कार्यकर्ता के मारे जाने पर उसके शोक-संतप्त परिवार से मैं मिलने गया था. इस बात को एक प्रमाण के तौर पर पेश करके आज दिन तक कहा जाता है कि देखा! यह इनके उद्देश्य से भटकने का सबूत है.

इसी नाते, जब मैंने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के इस आदेश का कि तेजिंदर पाल सिंह बग्गा को 6 जुलाई तक गिरफ्तार ना किया जाये, स्वागत करते हुए ट्वीट किया तो अपने ट्वीट को लेकर उठने वाली प्रतिक्रियाओं के लिए मन ही मन तैयार हो चुका था. मेरे ट्वीट में बस इतना भर कहा गया है: ‘व्यक्ति को लेकर हमारी राय चाहे जो भी हो, आदेश स्वागत-योग्य है. मात्र किसी ट्वीट की बिनाह पर किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस भेजना चाहे वह व्यक्ति जिग्नेश मेवाणी हों, राणा दंपत्ति हों या फिर अलका लांबा या दिशा रवि ठीक नहीं है. अपने राजनीतिक विरोधी को हलकान करने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करना अनैतिक और गैर-कानूनी है.’

आप मेरे टाइमलाइन पर जाकर देख सकते हैं कि इस ट्वीट पर मुझे क्या जवाब मिले. आम तौर पर जो ट्रोलिंग हुआ करती है, उसमें आप-समर्थक भी शामिल हो गये और जहां तक नफरत भरे डंक मारने का सवाल है, ये आप समर्थक बीजेपी वालों से रत्ती भर भी कम नहीं.

ट्रोलिंग पर उतारु इन आप-समर्थकों ने मान लिया कि मैं अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ अपनी खुंदक निकाल रहा हूं.(और मैं जब आम आदमी पार्टी के किसी काम की प्रशंसा कर दूं तो इसे पार्टी में लौटने की मेरी ख्वाहिश के रूप में देखा जाता है)


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बग्गा के लटके-झटकों से परे एक मुद्दे की बात…

कई आलोचकों ने ठीक बात कही कि बीजेपी की सरकार अपने आलोचकों के साथ जो बरताव करती है उसकी तुलना बग्गा के साथ जो कुछ हुआ उससे नहीं की जा सकती, कि जहां तक बग्गा सरीखे अन्य पीड़ितों को बचाने का सवाल है, कोर्ट का रुख वैसा सधा और संतुलित ना था. कुल आलोचकों ने मान लिया कि मैं बग्गा के अतीत को भुला बैठा हूं, खासकर इस बात को कि उसने मेरे मित्र प्रशांत भूषण पर हुए हमले की अगुवाई की थी. कुछ आलोचकों का तर्क था कि बग्गा जिस घटिया दर्जे की ट्रोलिंग किया करता है उसे देखते हुए पंजाब पुलिस ने अगर उसपर अपना मशहूर नुस्खा आजमाया है तो ऐसा करके ठीक ही किया है.

इसमें कोई शक नहीं कि तेजिन्दर सिंह बग्गा के किरदार के वर्णन में अगर भाषा का पूरा संयम बरता जाये तो यही कहा जायेगा कि ऐसे आदमी से कभी सहमत नहीं हुआ जा सकता. यों शब्दकोश में बग्गा जैसे चाल-चरित्र के लोगों के वर्णन के लिए जो शब्द मिलते हैं उनमें ऐसा संयम नहीं है, जैसे किः अशिष्ट, दुष्ट, नामुराद, नागवार और ओछा आदि.

इससे ज्यादा खराब बात ये कि हमें बिल्कुल नहीं पता कि क्या बग्गा अपने वास्तविक जीवन में वैसा ही है जैसा कि सोशल मीडिया पर उसकी हरकतों से जाहिर होता है? हम बस इतना भर जानते हैं कि उसने अपना सियासी करिअर और धंधा लोगों पर हमलावर होकर बनाया है— लोगों पर उसने शब्दों से भी हमला किया है और लाठी-डंडों से भी और उसका हमला उन लोगों पर हुआ है जिन्हें बीजेपी ने निशाने पर ले रखा था.

हमलोग उसे कार्टून-कथाओं से निकले एक गढ़े-गढ़ाये किरदार के रूप में जानते हैं जो हमारे सार्वजनिक जीवन में बढ़ती नफरत(चाहे यह वास्तविक हो या काल्पनिक) की मांग को देखते हुए दाखिल हुआ है.

आप तेजिंदर सिंह बग्गा जैसों से कैसे निपटेंगे ? अच्छा यही है कि उसकी अनदेखी की जाये. ऐसे किरदारों को नकारने के जुगत कीजिए प्रतिकार कीजिए और आपका यह नकार ही उनके लिए जीवनदायिनी शक्ति बन जायेगा. वे अपने नकार में उठने वाली ऐसी आलोचनाओं के भूखे हैं.

ऐसे किरदारों पर ध्यान देना बंद कर दीजिए और वे खत्म हो जायेंगे. या फिर, आप ऐसे किरदारों को मीम में बदल सकते हैं जैसा कि सोशल मीडिया के एक व्यंग्यकार @roflGandhi ने किया है जिसे देखकर मुझे खुशी हुई. या फिर, आप प्रति-निन्दा अथवा प्रति-तथ्य के जरिए ऐसे किरदारों के कहे के खंडन करने का तरीका अपना सकते हैं जो कि मेरे जानते एक बेअसर और बेवकूफाना विकल्प है. लेकिन, ऐसे तरीकों को तजकर क्या आप ऐसे किरदारों के पीछे पुलिस भेजने का उपाय अपना सकते हैं ? मामले में मुद्दे का असल सवाल यही है.

जरा आप मामले से जुड़े तथ्यों पर विचार कीजिए. अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में सवाल उठाया कि आखिर बीजेपी कश्मीर फाइल्स नाम की फिल्म को बढ़ावा देने के उद्यम क्यों कर रही है और इस सवाल के मद्देनजर इस साल मार्च के महीने में बग्गा ने एक निहायत नागवार ट्वीट किया, (बाद को इस ट्वीट को मिटा भी दिया) कि ‘जब 10 लाख ***** पैदा होते हैं तो एक केजरीवाल का जन्म होता है.’ निश्चित ही यह निहायत घिनौने पोस्ट का नमूना था. लेकिन क्या आप इस पोस्ट की व्याख्या करते हुए ये कहेंगे कि ये पोस्ट `आपराधिक धमकी` अथवा `समुदायों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने` की हरकत है? पंजाब में आम आदमी पार्टी के एक स्थानीय कार्यकर्ता की शिकायत पर पंजाब पुलिस ने इन्हीं आरोपों के आधार पर बग्गा पर मामला बनाया.

बग्गा को पुलिस ने पूछताछ के लिए पंजाब आने का समन भेजा. सम्मन क्या था यों कहें कि `शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना` का एक न्यौता था. बग्गा ने इस समन की अनदेखी की और बस इस एक एफआईआर के इर्द-गिर्द चक्कर काटने के लिए समय निकाल लेने वाली पंजाब पुलिस बग्गा को गिरफ्तार करने के लिए सीधे दिल्ली आन पहुंची.

इसके बाद पंजाब, दिल्ली और हरियाणा पुलिस के बीच जो ड्रामा पेश आया वह तो बग्गा के लटके-झटके से भी गये गुजरे प्रहसन का नमूना कहा जायेगा. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, जिसके मुंह से मुस्लिम-जन के घर और दुकानों पर बुलडोजर चलते देख एक लफ्ज तक नहीं फूटे, इस बात को लेकर बड़ा व्यथित नजर आया कि बग्गा को उसकी पगड़ी बांधने की अनुमति नहीं दी जा रही. फिर आधी रात को अदालत के दरवाजे खुलवाये गये और इस तरह भारत का क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (दांडिक न्याय प्रणाली) एक मजाक में तब्दील हुआ. पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का आदेश इस लंबे और हद दर्जे की भौंडी नौटंकी का पटाक्षेप करने के नाते एक स्वागत-योग्य कदम था.

एक देशव्यापी चलन

ऐसी नौटंकी देश भर में चल रही है. शेखर गुप्ता इसे ही म्युचुअली एश्योर्ड डिटेंशन (मतलब, आपसी सिर फुटौव्वल ताकि तयशुदा तौर पर जकड़बंदी दोनों की हो जाये) की संज्ञा देते हैं. वैसे तो बीजेपी विभिन्न एजेंसियों, मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया के मार्फत अपने आलोचकों को निशाना बनाने में सबसे अव्वल रही है लेकिन विपक्षी दलों की अगुवाई में चल रही सरकारें भी अब पीछे नहीं हैं, उन्होंने भी बीजेपी के व्याकरण का आधार लेकर अपने बरताव की समान भाषा बना ली है.

विपक्षी पार्टियों की सरकारें भी समान नुस्खा आजमा रही हैं: कोई टुच्ची सी शिकायत दर्ज कराइए, एफआईआर में निहायत सख्त और संगीन आरोप लगाइए, अपने शिकार के पीछे पुलिस दौड़ा दीजिए और इस तरह अपने विरोधी को सबक सिखाइए. मामले के अदालत में पहुंचने से पहले ही सारा काम निपटा दिया जाता है.

इसी कारण मैंने यहां लेख में जिग्नेश मेवाणी मामले का हवाला दिया है. बेशक यहां जिग्नेश मेवाणी की इंसाफ की लड़ाई और उनकी सत्यनिष्ठा की तुलना बग्गा जैसों की हरकतों से करना बेमानी है. लेकिन, मेरी कोशिश यहां इस प्रसंग पर ध्यान दिलाने की है कि मेवाणी के मामले में बीजेपी ने जैसी छल भरी चाल से काम लिया वह बग्गा के मामले में आम आदमी पार्टी द्वारा अपनाये गये तरीके से अलग नहीं है. आम आदमी पार्टी को पहली बार पुलिस पर अख्तियार करने का (पंजाब में) मौका हाथ लगा है और आम आदमी पार्टी खुश है कि वह भी बाकी सरकारों की तरह पुलिस का दुरुपयोग कर पा रही है. उसने भी कुमार विश्वास और अलका लांबा को मनगढ़ंत आरोपों की बिनाह पर निशाना बनाया है.

जैसा कि सांसद नवनीत राणा और उनके पति, विधायक रवि राणा के हाल के मामले से जाहिर होता है, महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी सरकार भी इस चलन से दूर नहीं. राणा दंपत्ति ने एक नौटंकी रची कि मुख्यमंत्री के निजी आवास के बाहर जुटकर हनुमान चालीसा का पाठ करना है और ऐसी नौटंकी को रोकने के लिए हद से हद नजरबंदी के कदम उठाना ठीक माना जायेगा. लेकिन राणा दंपत्ति को राजद्रोह और समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने के आरोप लगाकर गिरफ्तार करना निश्चित ही हास्यास्पद कहा जायेगा.

बदले की भावना से उठाये गये ऐसे कदमों की छाया आप अन्य मामलों पर भी देख सकते हैं- जैसा कि टीवी एंकर अमन चोपड़ा का मामला- जहां समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने का आरोप सचमुच संगीन जान पड़ रहा था और इस नाते अदालती कार्रवाई का मुस्तहक था.

इसलिए, मेरी यह अर्जी उन लोगों के नाम है जिन्हें संविधानी पंखों वाली उस सोनचिरैया की फिक्र सताया करती है जिसे `विधि का शासन` कहा जाता है, कि: क्या हम सिद्धांतों पर अडिग रह सकते हैं, भले ही सामने खड़ा व्यक्ति कोई भी हो ? या फिर, मेरी यह अर्जी एक अरण्य-रुदन भर है?

(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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