भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं में से एक सेना है, लेकिन मतदाता सूची में पूर्व सैनिकों और उनके परिवार की कुल 0.6 प्रतिशत ही भागीदारी है।
भारत के अगले संसदीय चुनावों में भारतीय सेना के राजनीतिकरण पर फिर से चर्चा होने की उम्मीद है। 2014 चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी द्वारा वन रैंक वन पेंशन के मुद्दे को लेकर भारतीय सेना के सेवानिवृत्त जवान विशेष रूप से संगठित हो गए थे। लेकिन जब पार्टी ने योजना के कार्यान्वयन में कमी की तब 2015 में विरोध प्रदर्शन किया गया। 2018 में, नागरिक यातायात के लिए छावनी की सड़कों को खोलने के सरकार के निर्णय पर सोशल मीडिया पर पूर्व सैनिकों के बीच की आंदोलनात्मक राजनीति को देखा गया।
राजनीति के अधिकांश अतिरिक्त संस्थागत रूपों जैसे कि दबाव समूह और विरोध आंदोलनों को लोकतंत्र में चिंता का विषय माना जाता है क्योंकि उन्हें औपचारिक, संस्थागत राजनीति की विफलता के रूप में गिना जाता है। जब पूर्व सैनिक इस प्रकार का विरोध करते हैं तब यह चिंता चेतावनी में बदल जाती है। पूर्व सैनिक सेवारत कर्मियों और विरोधों से जुड़े हुए होते हैं, तब यह डर रहता है कि सेना का राजनीतिकरण ना हो जाए। जिस समय भी वरिष्ठ सैनिक सेना से संबंधित मुद्दों के लिए एक जुट होते हैं, वे भारत में विरोध-भरे लोकतंत्र में अन्य दबाव समूहों के समान प्रतीत होते हैं लेकिन देश के लोकतंत्र के लिए कोई खतरा उत्पन्न नहीं करते हैं। एक पक्षतापूर्ण झुकाव विकसित करके पूर्व सैनिकों के पास खोने के लिए बहुत कुछ है।
सम्मानित लेकिन संस्थागत रूप से कमजोर
संस्थागत रूप से, भारत की तीन सेवाओं के लिए सत्ता के गलियारे से अपने हितों को पूरा करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं है। दि इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्रकाशित लोकप्रिय शक्तिशाली लोगों की सूची में प्रधानमंत्री द्वारा चुने गए सेना प्रमुख की स्थिति पर गौर करें। 2018 में 100 सबसे शक्तिशाली भारतीयों की सूची में एक सेना प्रमुख को 41वें स्थान पर रखा गया जबकि दो अन्य सेना प्रमुखों को तो सूची में शामिल ही नहीं किया गया था।
विधायिक में देखा जाए तो यह भी इनको प्रोत्साहित करने वाली नहीं है। पूर्व सैनिक बड़ी मुश्किल से ही संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाते हैं। सेना के दो पूर्व अधिकारियों, जनरल वी.के. सिंह और कर्नल आर.एस. राठौर की मंत्री मंडल में सदस्यता एक ख़राब रिकॉर्ड को दर्शाता है। 16वीं संसद में 543 भारतीय सदस्यों में से केवल 3 सदस्यों ने सेना में अपनी सेवा प्रदान की है जो कि केवल 1 प्रतिशत है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स से प्राप्त डेटा पर किए गए हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि 2014 के संसदीय चुनावों में कुल 8794 सदस्यों में से कुल 28 सदस्यों ने स्वयं को एक पूर्व सैनिक के रूप में सूचीबद्ध किया था।
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इस संख्या की दो अन्य लोकतंत्रों से तुलना करें जिनमें एक स्वयंसेवी बल है, जहाँ सेना नागरिक सर्वोच्चता स्वीकार करती है और एक सम्मानित संस्था बनी हुई है। वर्तमान में, संयुक्त राष्ट्र कांग्रेस के 535 सदस्यों में से 100 सदस्य यानी 19 प्रतिशत और ब्रिटिश संसद के 650 सदस्यों में से 51 सदस्यों यानी 8 प्रतिशत ने सेना में अपनी सेवा प्रदान की है। भारतीय लोकतंत्र में हितधारकों के रूप में अपनी भूमिका को सीमित करने के अलावा, भारतीय संसद में पूर्व सैनिकों की उपस्थिति विधायिका में सूचित समर्थकों से सशस्त्र बलों को वंचित करती है और नीति निर्माण तथा पर्यवेक्षण जिम्मेदारियों के लिए उपलब्ध सैन्य विशेषज्ञता की कमी में योगदान देती है।
पूर्व सैनिकों के संकीर्ण चुनावी पदचिन्ह भी सैन्य समुदाय के प्रभाव को बाधित करते हैं। 14 लाख जांबाज सैंनिकों के साथ भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं में से एक सेना है लेकिन 814 मिलियम मतदाताओं में से पूर्व सैनिकों और उनके परिवारी जनों का वोट प्रतिशत केवल 0.6 प्रतिशत है। हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड (रक्षा मंत्रालय के अनुसार यह राज्य अपने निवासियों की एक बड़ी संख्या सेना में भेजता है और 35 प्रतिशत पूर्व सैनिकों का घर है) जैसे उत्तरी भारतीय राज्यों के बाहर पूर्व सैनिक अपने दम पर बड़ी मात्रा में वोट प्राप्त करने की अपनी क्षमता में सीमित हैं। फिर भी, अन्य लोकतंत्रों में अपने समकक्षों की तरह, पूर्व सैनिकों को सामूहिक रूप से दबाव समूह के रूप में कार्य करने के लिए रखा जाता है और विरोध प्रदर्शन के लिए संख्यात्मक भागीदारी की तुलना में सफलतापूर्वक चुनाव लड़ना काफी बड़ी बात है।
एक तैयार दबाव समूह
सेना के कमजोर संस्थागत के बावजूद, पूर्व सैनिक अन्य समूहों की तुलना में अधिक संगठित है। इसके सदस्य सैन्य समरूपता में दृढ़ता से समाजीकृत है। पूर्व सैनिक संगठनों, रेजीमेंट नेटवर्क, और अलग आवासीय समुदायों से सेवानिवृत्ति के बाद भी सैन्य सेवा के साथ संबंध कायम रखा जाता है। कई सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर भी पूर्व सैनिकों के साथ संबंध कायम रखे जाते हैं। भारत के किसी भी कोने से व्हाट्सएप पर पोस्ट लिखने वाला एक अधिकारी टेलीविजन चैनल या समाचार पत्र की सहायता के बिना पूर्व सैनिकों के राष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचने में सक्षम है। वे पूर्व सैनिकों के रूप में सामान्य हितों को साझा करते हैं।
विरोध का महत्व
पूर्व सैनिकों के विरोध और सिफारिशें तीन महत्वपूर्ण कार्यों में मदद करती हैं। पहला, विरोध प्रदर्शन प्रशासन संरचना के साथ असंतोष का संकेत करता है और इसे पूर्व सैनिकों की शिकायतों से सतर्क करता है। दूसरा, प्रतियोगी पार्टी प्रणाली में विरोध प्रदर्शन संस्थागत चैनलों के माध्यम से प्रतिनिधित्व के हितों की संभावना को प्रदर्शित करता है। आख़िरकार,विरोध ऐसे नेताओं को उत्पन्न करते हैं जो या तो चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दलों में शामिल हो सकते हैं या सहानुभूतिपूर्ण दलों और उम्मीदवारों का समर्थन कर सकते हैं। उदाहरण के लिए,ओआरओपी आंदोलन भाजपा द्वारा नहीं चलाया गया था। नीति को लागू करने के अपने वादे के बदले में आंदोलन ने पार्टी का समर्थन किया।
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तीसरा, इस प्रकृति का संगठन एक जाँच उद्देश्य भी प्रदान करता है। समर्थन की भूमिका के लिए सैन्य नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया जाना ही इसका उद्देश्य है,इसे संगठन की श्रेणी और फाइल के साथ-साथ पूर्व सैनिकों के बड़े समुदाय की तरफ से सौंपा गया है। 2015 में ओआरओपी स्टैंडऑफ के शिखर पर, पूर्व सैनिकों के विरोध से पूर्व सेवा प्रमुख ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा और राष्ट्रपति ने उन्हें विवाद को फटाफट हल करने के लिए कहा। इसी प्रकार, छावनी मुद्दे पर सोशल मीडिया-आधारित विरोध ने सेना कल्याण संघ के प्रतिनिधियों को सेना बंधुत्व के सदस्यों से मिलकर उनके असंतोष को कम करने पर मज़बूर किया। इस अर्थ में, पूर्व सैनिकों के हितों की तलाश में पूर्व सैनिकों के दबाव समूह के रूप में आंदोलन नियमित लोकतांत्रिक राजनीति का प्रतिनिधित्व करता है।
राजनीतिकरण का जोख़िम
यह कहना उचित नहीं है कि पूर्व सैनिकों की आंदोलन राजनीति सेवारत सेना के राजनीतिकरण के खतरे को प्रदर्शित नहीं करती है जिसके परिणामस्वरूप एक पक्षपातपूर्ण आलोचना हो जैसा कि श्रीनाथ राघवन ने चेतावनी दी है। प्रतियोगी पार्टी प्रणाली में एक पक्षपातपूर्ण संरेखण सेना तथा सेवानिवृत्तों को नुकसान पहुँचाता है और इसलिए यह एक पूर्वचिंतित परिणाम नहीं है।
वर्ष 2000 से रक्षा मंत्रालय पर उठाए गए पार्लियामेन्ट के प्रश्न प्रदर्शित करते हैं कि समूचे वैचारिक स्पेक्ट्रम से राष्ट्रीय और साथ ही क्षेत्रीय दल रक्षा मुद्दों तथा सेवानिवृत्त मामलों से जुड़ गए हैं। इस अवधि में, लोकसभा सदस्यों ने रक्षा मंत्रालय से कुल 7,505 प्रश्न किए। इनमें से 30.5 प्रतिशत भाजपा द्वारा, 23.5 प्रतिशत कांग्रेस द्वारा और 45.7 प्रतिशत प्रश्न विभिन्न क्षेत्रीय दलों के सदस्यों द्वारा पूछे गए। विशेष रूप से पूर्व सैनिकों से संबंधित प्रश्नों का पैटर्न भी ऐसा ही है। यह उल्लेखनीय है कि ये प्रश्न अधिकतर इन पार्टियों से संबंधित सांसदों की संख्या के अनुपात में हैं। तालिका 1 में प्रस्तुत सबूत स्पष्ट रूप से सुझाव देते हैं कि एक पक्षपातपूर्ण समरूपता के साथ समर्थन देना पूर्व सैनिकों को रास नहीं आ रहा है,खासकर जब पार्टियों का इतना बड़ा समूह पूर्व सैनिक मामलों में रुचि लेता हो।
तालिका 1
ऐसा करके, वे अपने वोट के लिए प्रतिस्पर्धा के कारण अपनी सौदा-शक्ति खो देते हैं। एक राष्ट्रीय संस्थान के पूर्व सदस्यों के रूप में, पक्षपातपूर्ण तटस्थता भी सैन्य भूतपूर्व सैनिकों को व्यापक सार्वजनिक समर्थन बनाए रखने में मदद करती है।यदि सेना या भूतपूर्व सैनिकों को किसी विशेष पार्टी के स्थायी सहयोगी के रूप में देखा जाने लगा, तो संस्था में सामाजिक भरोसा घट सकता है।
संस्थागत रूप से अपने हितों के लाभ के लिए विवश, सैन्य भूतपूर्व सैनिकों को दबाव समूह के रूप में कार्य करने के लिए अच्छी तरह से तैनात किया गया है।यह देखा जाना बाकी है कि इस दबाव समूह की राजनीति सेना की अप्राकृतिक छवि को नुकसान पहुँचाती है या नहीं।
अमित आहुजा एक सह -प्राध्यापक हैं और राजकमल सिंह यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया-सांता बारबरा के राजनीति विज्ञान विभाग में डॉक्टरेट छात्र हैं।
Read in English : Not even 1% of Indian MPs have served in the military. And that’s concerning