राफेल सौदे को सार्वजनिक करने में कोई हर्ज नहीं है, खासकर जब पहले से ही इसके ठोस आँकड़े मौजूद हैं।
कांग्रेस 36 राफेल विमानों के सौदे को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए बोफोर्स मामले की तरह ही बनाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस चाहती है कि जिस तरह से राजीव गांधी बोफोर्स मामले में घिर गए थे वैसे ही इस बार नरेंद्र मोदी राफेल मामले में घिर जाएं, लेकिन लगता नहीं है कि ऐसा हो पायेगा। इसकी वजह यह सवाल नहीं है कि इस सौदे में रिश्वत का लेन देन हुआ कि नहीं हुआ। इस प्रकार के लगभग हर रक्षा सौदे में अलग-अलग स्तरों पर रिश्वत का लेनदेन होता है, यह बात हर किसी को पता है। इस प्रकार के मामलों में निर्णायक तथ्य एकत्र कर पाना बहुत ही मुश्किल होता है, फिर राफेल मामले में रिश्वत का कोई सबूत भी उपलब्ध नहीं है।
दोनों मामलों में एक अंतर यह है कि बोफोर्स काण्ड की शुरुआत एक स्वीडिश रेडियो प्रसारण से हुई थी और राजीव सरकार ने इससे निपटने में बहुत अधिक घबराहट दिखाई थी। घोटाले का यह मामला केवल भारत ही नहीं बल्कि स्वीडन में भी घोटाले में तब्दील हो गया और वहां भी अभियोजन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी। बिना इसके (और मीडिया की अच्छी तहकीकात के) रिश्वत की राशि और लाभ पाने वाले लोगों के नाम कभी सामने नहीं आते। फ्रांस में इस तरह का कुछ भी होता नहीं दिख रहा है।
राफेल मामले में सारा हो-हल्ला भारत तक ही सीमित है। यहाँ पर यह तथ्य स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि मोदी और उनकी सरकार ने जिस सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं उनमें से हर विमान के लिए उस राशि से अधिक कीमत चुकाई गई है जो पिछली कांग्रेस सरकार ने बातचीत में तय की थी। लेकिन ऐसे जटिल हथियारों के सौदों के मामले में तुलना करना असंभव है। और ऐसा भी होना बहुत मुश्किल है कि इनपर कोई विवाद न हो। इसी बीच काफी लंबा समय बीत चुका है मुद्रास्फीति भी एक पहलू है। विमानों की संख्या अलग है अनुबंध की प्रकृति भी अलग है, पहले केवल खरीद का सौदा किया गया था लेकिन अब खरीदने और बनाने की बात है। खरीद के बाद रखरखाव की शर्तें और गारंटी अलग है। मान लिया जाए कि अगर रिश्वत का लेनदेन हुआ है तब भी इसको साबित करना बहुत मुश्किल होगा।
ऐसे मामले में यह समझ पाना बहुत ही मुश्किल है कि सरकार इसकी कीमतों को गोपनीय क्यों रखना चाहती है? इसकी कीमतें सार्वजनिक करने में कोई हर्ज नहीं है। खासकर जब पहले से ही इसके ठोस आँकड़े हमारे सामने मौजूद हैं। बात यह भी है कि अगर सरकार लागत के विवरणों के बारे में पारदर्शिता बरतती तो भी इस सौदे के बारे में अधिकतर जानकारी को गोपनीय रखना होता और उचित तुलनात्मक आकलन की राह में यह बात भी आड़े आती।
इसी बीच एक तथ्य भी आता है कि देश में रक्षा-उपकरण खरीद को लेकर जो कुछ हो रहा है उससे सभी परिचित हैं। देश में 126 लड़ाकू विमानों की आवश्यकता सन् 2001 में सामने आई थी लेकिन विमान निर्माताओं से 2007 में इसके प्रस्ताव माँगे गए थे। सन् 2012 में राफेल को चुना गया था लेकिन रिपोर्टें बताती हैं कि वास्तविक लागत प्रारंभिक लागत से दोगुनी हो गई। मोलभाव करने में दो साल बीत गए और तब तक सरकार भी बदल गई। उसके एक साल बाद और प्रस्ताव आमंत्रित करने के आठ साल बाद मोदी ने द्विपक्षीय सौदा किया। यह सौदा मूल सात में से दो दस्तों के लिए था। बिना किसी स्पष्टीकरण के वायु सेना के पांच अतिरिक्त दस्तों की आवश्यकता को दबा दिया गया।
स्वाभाविक बात है कि वायुसेना के पास विमानों की कमी है। यानी पिछले चयन के एक दशक बाद उसी तरह के विमानों के लिए वही प्रक्रिया फिर शुरू होनी है। संभव है कि इसमें बोली लगाने वाले भी वहीं हों। अगर देश की किस्मत अच्छी रही तो पाँच साल में ऑर्डर दिया जा सकता है और उसके कुछ सालों के बाद विमान मिलने लगेंगे। यानी करीब 2025 तक, यह अनुबंध की कोशिश की लगभग एक चौथाई शताब्दी होगी।
यह एक इकलौता उदाहरण नहीं है। 2012 तक छह पनडुब्बियां प्रचलन में आनी थीं और बाकी उसके बाद में। लेकिन अभी तक यानी 2018 तक 12 के स्थान पर केवल एक पनडुब्बी ही परिचालन में है। सेना के साथ भी ऐसा ही मामला है, बोफोर्स के बाद पहली होवित्जर तोप पर हस्ताक्षर करने के लिए सेना को 30 साल इंतजार करना पड़ा। इसमें कोई भी बात छिपी नहीं है। सक्षम लेखकों द्वारा मीडिया में बार-बार इस खबर को उठाया जाता रहा लेकिन रक्षा खरीद प्रणाली एकदम अपाहिज और बदलाव में अक्षम नजर आ रही है। संसद इस मुद्दे पर सरकार को जवाबदेह क्यों नहीं ठहराती है?
बिजनेस स्टैंडर्ड के साथ विशेष व्यवस्था द्वारा।
Read in English: In the Rafale brouhaha, India has missed its real, bigger defence scandal