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Friday, 22 November, 2024
होमहेल्थमोदी सरकार की कोविड वैक्सीनेशन नीति ‘दुरुस्त’ लेकिन किसी को वैक्सीन के लिए मजबूर नहीं कर सकते: SC

मोदी सरकार की कोविड वैक्सीनेशन नीति ‘दुरुस्त’ लेकिन किसी को वैक्सीन के लिए मजबूर नहीं कर सकते: SC

यह फैसला टीकाकरण पर राष्ट्रीय तकनीकी सलाहकार समूह के एक पूर्व सदस्य द्वारा दायर याचिका पर आया है. उन्होंने कोविड वैक्सीन परीक्षण से जुड़े डेटा का खुलासा करने और 'वैक्सीन मैंडेट्स' पर रोक लगाए जाने की मांग की थी.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी भी व्यक्ति को कोविड-19 वैक्सीन लेने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता क्योंकि यह अनुच्छेद 21 के तहत उनके निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करेगा, जो प्रत्येक नागरिक को सम्मान के साथ जीने का अधिकार देता है.

हालांकि, जस्टिस एल.एन. राव और बी.आर. गवई की पीठ ने मोदी सरकार की टीकाकरण नीति, जिसमें बच्चों के लिए भी टीके शामिल है, को दुरुस्त और डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों के अनुरूप बताते हुए इसे बरकरार रखा’.

इसके अलावा पीठ ने राज्यों और निजी संस्थाओं से उन लोगों पर प्रतिबंध अथवा रोक-टोक लगाने से बचने के लिए कहा जो कोविड का टीका लगवाने से इनकार करते हैं.

अदालत ने कहा कि यदि कोई भी प्रतिबंध लगाए जाते हैं तो वे इस बात की पड़ताल के लिए संवैधानिक जांच के अधीन होंगे कि क्या वे 2017 के निजता के अधिकार के फैसले के अनुरूप व्यक्तियों के अधिकारों में घुसपैठ न करने से संबंधित आवश्यकता को पूरा करते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से यह भी कहा कि इन टीकों के कारण मरीजों को होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के परिणामों को सार्वजनिक डोमेन में रखा जाए, ताकि यह नागरिकों को एक जानकारी भरा विकल्प चुनने और पूरी जानकारी के साथ सहमति देने में सक्षम बना सके.

यह फैसला नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप ऑन इम्यूनाइजेशन (एनटीएजीआई) के पूर्व सदस्य जैकब पुलियेल द्वारा दायर एक याचिका पर आया. एनटीएजीआई वह सर्वोच्च तकनीकी निकाय है जो नए और आने वाले टीकों के डेटा का मूल्यांकन करता है या जब भी आवश्यकता होती है तो पहले से शुरू किए गए टीकों के डेटा की समीक्षा करता है.

पुलियेल ने कोविड वैक्सीन परीक्षण से संबंधित डेटा का खुलासा करने और ‘वैक्सीन मैंडेट्स’ (टीकों को अनिवार्य बनाये जाने वाले आदेश) पर रोक लगाए जाने की मांग की थी.

अदालत ने माना कि किसी व्यक्ति की शारीरिक अखंडता और चिकित्सकीय इलाज से इनकार करने के अधिकार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है. इसलिए, ‘किसी भी व्यक्ति को टीकाकरण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है.’ लेकिन इसमें यह भी कहा गया कि, ‘सामुदायिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के हित में सरकार कुछ सीमाएं लगाते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधी मुद्दों को विनियमित करने का हक रखती है.’

पीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘जब तक बीमारी के फैलने का खतरा है, तब तक व्यापक जनहित में व्यक्तियों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है.’

पीठ ने कहा, ‘शारीरिक स्वायत्तता को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 21 के तहत शारीरिक अखंडता की रक्षा की जाती है और किसी को भी टीकाकरण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है. (लेकिन) सरकार शारीरिक स्वायत्तता के क्षेत्रों में नियमन कर सकती है.‘

अपनी याचिका में, पुलियेल ने विभिन्न राज्यों द्वारा गैर टीकाकृत व्यक्तियों पर लगाए गए प्रतिबंधों को चुनौती दी थी, जिसमें दावा किया गया था कि किसी भी लाभ या सेवाओं तक पहुंच के लिए लगाई गई कोई भी पूर्व शर्त नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन है और इसी वजह से असंवैधानिक है.

पुलियेल ने आरोप लगाया कि वर्तमान में लगाए जा रहे टीकों का सुरक्षा या प्रभावकारिता के लिए पर्याप्त रूप से परीक्षण नहीं किया गया था और फिर भी उनके परीक्षण डेटा को सार्वजनिक किए बिना उन्हें ‘आपातकालीन उपयोग के अधिकार’ के तहत लाइसेंस दे दिया गया था.

अपनी ओर से, केंद्र ने टीकाकरण नीति का बचाव किया और याचिकाकर्ता के रुख को स्वीकार करने के खिलाफ अदालत को आगाह किया क्योंकि इससे ‘वैक्सीन के प्रति हिचकिचाहट (वैक्सीन हेज़िटन्सी) हो सकती है’. हालांकि, केंद्र ने टीकों को अनिवार्य बनाये जाने की बात से इनकार किया और कहा कि यह पूरी तरह से ‘स्वैच्छिक कार्यक्रम’ है.

क्लिनिकल डेटा और वैक्सीन वायल मॉनिटर के संबंध में केंद्र ने बताया कि उन्हें रियल टाइम बेसिस (वास्तविक समय के आधार) पर अपडेट किया जाता है. केंद्र के अनुसार यदि पुलियेल की दलील स्वीकार कर ली जाती है, तो यह वायरस के खिलाफ टीकाकरण के संबंध में आम नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन होगा.

हालांकि, पीठ ने बच्चों के लिए टीकाकरण नीति को मंजूरी दे दी, मगर यह आदेश भी दिया कि इस से संबंधित क्लिनिकल परीक्षण के आंकड़े जल्द-से-जल्द सार्वजनिक किए जाएं.

अदालत ने कहा कि उसके सामने पेश किए गए आंकड़ों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि वयस्कों के बीच कोविशील्ड और कोवैक्सिन के लिए प्रतिबंधित आपातकालीन-उपयोग की मंजूरी ‘प्रासंगिक डेटा की गहन समीक्षा के बिना किसी प्रकार की जल्दबाजी में दी गई थी’.

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि विचाराधीन टीकों के तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल्स के परिणाम प्रकाशित कर दिए गए हैं.


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‘राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंध समानुपातिक नहीं हैं’

पुलियेल की याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि केंद्र की टीकाकरण नीति ने के.एस. पुट्टस्वामी मामले वाले फैसले, जिसने निजता के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अंतर्भूत घोषित किया था, के तहत वर्णित त्रि-स्तरीय आवश्यकताओं को पूरा किया है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि 2017 के दिए गए इस फैसले ने शारीरिक अखंडता और गोपनीयता की अवधारणा को प्रतिपादित किया था लेकिन इसमें यह भी कहा गया था कि सरकार इस अधिकार पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून भी ला सकती है. हालांकि, ऐसा कोई भी कानून संवैधानिक अदालतों द्वारा जांच-पड़ताल के लिए खुला होगा.

इस तरह के किसी कानून की संवैधानिक वैधता का परीक्षण करने के लिए अगर वह न्यायिक जांच के तहत आता है तो, 2017 के फैसले ने ‘एक आनुपातिकता का परीक्षण’ (टेस्ट ऑफ प्रोपॉर्शनलिटी) निर्धारित किया था जिसके तहत यह पता लगाना होगा कि क्या राज्य के पास इसे लाने का वैध उद्देश्य है और क्या यह कानून या जो साधन इसे लागू करने के लिए अपनाया गया है, वह अपने उद्देश्य के समानुपात में है.

पुलियेल के मामले में इसी कानूनी सिद्धांत को लागू करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि हालांकि कोई भी व्यक्ति चिकित्सकीय इलाज से इनकार कर सकता है और उसे टीकाकरण के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है, मगर सरकार भी कुछ सीमाएं लगाते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को विनियमित करने के लिए समान रूप से हकदार है.

इस फैसले में कहा गया है, ‘कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए शुरू किए गए टीकों और अन्य सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों के आलोक में विचार करते हुए व्यक्ति की शारीरिक अखंडता और व्यक्तिगत स्वायत्तता के संबंध में, हमारी राय है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत शारीरिक अखंडता की रक्षा की जाती है और किसी भी व्यक्ति को टीकाकरण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है.’

अदालत ने कहा, ‘इसके अलावा, किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वायत्तता, जो अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत सुरक्षा का एक मान्यता प्राप्त पहलू है- के तहत व्यक्तिगत स्वास्थ्य के क्षेत्र में किसी भी चिकित्सा उपचार से इनकार करने का अधिकार भी शामिल है.’

इस सवाल पर कि क्या वर्तमान टीकाकरण नीति, जिसने कोविड के टीकों को आपातकालीन मंजूरी की अनुमति दी थी, ने पुट्टस्वामी के फैसले में निर्धारित परीक्षण पर खरी उतरी है, शीर्ष अदालत का जवाब सकारात्मक था.

अदालत ने अपने 115 पृष्ठों वाले फैसले में कहा, ‘इस अदालत के समक्ष पेश की गयी पर्याप्त सामग्री, जिसमें इस संक्रमण से गंभीर बीमारी का सामना करने में टीकाकरण से जुड़े लाभों पर विशेषज्ञों के लगभग सर्वसम्मति के विचारों को दर्शाया गया है, के आधार पर यह अदालत इस बात से संतुष्ट है कि भारतीय संघ की वर्तमान टीकाकरण नीति प्रासंगिक विचारों से अवगत है और इसे अनुचित या स्पष्ट रूप से मनमाना नहीं कहा जा सकता.’

हालांकि, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा बिना टीकाकरण वाले व्यक्तियों पर लगाए गए प्रतिबंधों के बारे में अदालत ने कहा कि वे ‘आनुपातिक’ नहीं हैं.

इसमें कहा गया है कि केंद्र और राज्यों ने ऐसा कोई भी डेटा पेश नहीं किया जो याचिकाकर्ता द्वारा पेश डेटा का खंडन करता हो जो ‘एक उभरती हुई वैज्ञानिक राय के रूप में’ पेश किया गया है और जो यह दर्शाता है कि बिना टीकाकरण व्यक्तियों से वायरस के संचरण का जोखिम लगभग टीकाकृत व्यक्ति के बराबर ही है.

अदालत ने कहा, ‘इसके आलोक में, राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा लगाये गए प्रतिबंधों को आनुपातिक नहीं कहा जा सकता है.’

इसलिए, इसने सुझाव दिया कि देश भर के अधिकारी संस्थान, निजी संगठनों और शैक्षणिक संस्थानों सहित, जिन्होंने इस तरह के मैंडेट (अनिवार्य आदेश) को लागू किया है, वे उनकी तब तक के लिए समीक्षा करें ‘जब तक संक्रमण दर कम रहती है अथवा अनुसंधान से कोई ऐसा नया घटनाक्रम उभरता है जो बिना टीकाकरण वाले व्यक्तियों के अधिकारों पर समानुपातिक प्रतिबंध लगाए जाने के औचित्य को उचित ठहरता है …’

अदालत ने कहा कि ‘कोविड-19 महामारी की तेजी से बदलती स्थिति के संदर्भ में, राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा लगाए गए ‘वैक्सीन मैंडेट’ की समीक्षा करने का हमारा सुझाव केवल वर्तमान स्थिति से संबंधित है और इसे संक्रमण की रोकथाम और वायरस के संचरण पर लगाम लगाने के लिए उपयुक्त उपाय करने हेतु कार्यपालिका द्वारा अपनी शक्ति के वैध प्रयोग में किसी प्रकार के हस्तक्षेप के रूप में नहीं माना जाना चाहिए.’

अदालत ने यह भी कहा कि राज्यों द्वारा ‘प्रतिबंध’ नहीं लगाने के उसके सुझाव के दायरे में केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा जारी किए गए कोविड-उपयुक्त व्यवहार के रखरखाव की आवश्यकता वाला कोई भी अन्य निर्देश नहीं आता है.

बच्चों के टीकाकरण पर अदालत ने कहा कि वह मानता है कि  भारतीय संघ द्वारा इस देश में बच्चों का टीकाकरण करने का निर्णय वैश्विक आधार पर बनी वैज्ञानिक सहमति के अनुरूप है. और यह इस अदालत के लिए समीक्षा के दायरे से बाहर है कि वह विशेषज्ञों की राय- जिसके आधार पर सरकार ने अपनी नीति तैयार की है- के बारे में कोई भी अनुमान लगाए.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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