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Monday, 4 November, 2024
होममत-विमतसेना की तुलना किसी भी हालत में आईएएस और आईपीएस अधिकारियों से नहीं की जा सकती

सेना की तुलना किसी भी हालत में आईएएस और आईपीएस अधिकारियों से नहीं की जा सकती

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सेना, नौसेना और वायुसेना को अपने-अपने विभागों के दायरों से बाहर निकलना होगा, साम्राज्य निर्माण को रोकना होगा और सैन्य चिंताओं पर ध्यान देने के लिए संयुक्त योजना बनानी होगी।

सैन्य अधिकारियों ने आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के साथ समानता की माँग की है इसके लिए वे बार-बार शिकायत करते रहे हैं कि उनको पर्याप्त तेजी से पदोन्नत नहीं किया जाता। हालांकि प्रशासनिक सेवाओं पर सशस्त्र बलों का गुस्सा उनकी शिकायतों का समाधान नहीं है।

इसका समाधान खोजने के लिए किए गए नवीनतम प्रयासों के परिणामस्वरूप जो प्रस्ताव प्राप्त हुआ वह था सेना के ब्रिगेडियर पद की समाप्ति। कैडर पुर्नगठन में मदद करने के लिए पिछले महीने थलसेना प्रमुख बिपिन रावत ने एक अध्ययन का आदेश दिया था। इसमें सशस्त्र बलों को 30 सालों से अधिक समय से तंग कर रहे तीन मुख्य मुद्दों – रैंकों में गिरावट, कम वेतनमान और प्राथमिकता का अधिकार – पर ध्यान देने की माँग की गई थी।

सशस्त्र बलों, विशेष रूप से सेना की तैनाती में हुई घातांकीय वृद्धि के बाद से ही इन मुद्दों के कारण चिंता काफी स्पष्ट रही है। सैन्य कानून में, इसे ‘नागरिक प्राधिकरण की सहायता’ या सरकार तथा समाज की सहायता के लिए सशस्त्र बलों की तैनाती कहा जाता है। भारत में यह ‘सहायता’ काफी हद तक स्थायी हो गई है, वैसे ही रैंक, प्राथमिकता और वेतनमान भी।

ऐसा लगता है कि सेना प्रशासनिक सेवाओं के साथ समानता प्राप्त करने के लिए सेना की रैंकों में छंटाई का प्रस्ताव देकर अपने पड़ोसियों की नकलनवीसी कर रही है। कुछ भी हो यह एक अच्छी शुरूआत नहीं है। विशेषकर तब जब भारतीय सेना एक ऐसी वर्षों पुरानी संस्था है जिसमें संरचना, तैनाती और कार्यप्रक्रिया के मामले में यदा-कदा ही सुधार का प्रयास किया गया है।

यह बड़े पैमाने एक मुहिम संबंधी बल रहा है जिसे प्रथम विश्व युद्ध से पहले के युग में निर्मित किया गया था। इसलिए संरचना, कमांड और नियंत्रण के मामले में सशस्त्र बल आज भी मुहिम संबंधी हैं। लेकिन सेना को नियंत्रित करने वाला भारतीय राष्ट्र अब काफी हद तक संकुचित विचारों वाला है, और इसी जगह पर नागरिक-सैन्य जटिलाताएं अक्सर विकट हो जाती हैं।

बड़े पैमाने पर सशस्त्र बलों की आंतरिक तैनाती में, प्रेरित और तेजतर्रार अधिकारी अपने प्रशासनिक समकक्षों से मुलाकात करते हैं जो कलेक्टरों या पुलिस प्रमुखों के रूप में जिलों का नेतृत्व करते हैं। इनके बीच में तुलना तब प्रारंभ होती है जब सेवा में समान समय व्यतीत करने के बाद एक युवा कप्तान सेना में डिप्टी कमांडर की रैंक ग्रहण करता है जबकि एक पुलिस अधीक्षक तीन सितारों वाला अधिकारी बन जाता है।

चूंकि आईएएस और आईपीएस अधिकारी दोनों ही सेवा की रैंकों में तरक्की करते हैं, तो इनकी वरिष्ठता में अंतर तेज गति के साथ बढ़ता जाता है।

यह रोष ही सशस्त्र बलों में गुस्से और निराशा को जन्म देता है। समानता हासिल करने और दौड़ में फिर से शामिल होने के लिए और ज्यादा तेजी से प्रयास किए जाते हैं। लेकिन हर प्रयास में एक ही चीज गायब रहती है कि इसमें किसी भी दौड़ की आवश्यकता नहीं है।

सशस्त्र बलों को यूपीएससी द्वारा चुनी गई नागरिक या पुलिस सेवा के समान समझा जाना निश्चित रूप से संभव नहीं है। उनकी भूमिकाएं पूरी तरह से अलग हैं, और जो विभिन्न सेवाओं में सम्मिलित होकर स्वेच्छा से ऐसा कर चुके हैं वे जानते हैं कि किन योग्यताओं की जरूरत होती है।

जब सैनिक प्रशासन की बुनियादी आवश्यकता नागरिक प्रशासन से पूर्ण भिन्न होती है, तो सशस्त्र बलों को नागरिक प्रशासन से समानता की कोशिश करनी ही क्यों चाहिए? और यदि वे समानता की तलाश में हैं, तो इसका मतलब है कि वहां पदावनति होती रही है जिसके लिए समाज तथा सशस्त्र बलों की अगुवाई करने वाले लोग जिम्मेदार हैं।

रैंको में यह हस्र रातोंरात नहीं हुआ है बल्कि यह सब सियासी चूक, नागरिक हेरफेर, और शासन में काफी सैन्य अनभिज्ञताओं का नतीजा है। इसका समाधान सेना अकेले नहीं निकाल सकती बल्कि सरकार को भी साथ आना होगा।

आखिरकार अतीत की कैडर समीक्षायें कुछ रैंकों के लिए एक नियमित प्रक्रिया बन गईं और कुछ सालों तक तो ठीक चलता रहा लेकिन समय बीतने के साथ भारी बोझ लगने लगा। वर्तमान कैडर समीक्षा और इसमें परीक्षात्मक प्रस्ताव एक ही दिशा में आगे बढ़ते प्रतीत होते हैं। “साधारण शब्दों में कहें तो यह सिर्फ़ चीज़ें ख़राब कर रहा है ना कि इनको ठीक करने में मदद”.।

कुछ भी संतोषजनक घटित होने के लिए, सशस्त्र बलों को सबसे पहले किसी भी कैडर समीक्षा की निगरानी के लिए एक संयुक्त समिति स्थापित करनी होगी। इस मामले में केवल नौसेना, वायुसेना, या थलसेना अकेले ऐसा कर रही है तो साधारणतया समस्या बनी रहती है। अंततः, तीनों सेवाओं को किसी अन्य सरकारी निकाय के साथ कार्य करने के बजाय आपस में ही मिलकर काम करना होगा। जिसका मतलब है कि समाधान पर पहुँचने के लिए उन्हें समान वरिष्ठता प्राप्त होनी चाहिए। सेना की एक रैंक को खत्म करना समस्या को और जटिल करता है, क्योंकि, ज्यादा तनाव के अंतर्गत सैन्य प्रोटोकाल और वरीयता के साथ, नौसेना और वायु सेना में उनकी समकक्ष रैंकें बनी रहेंगी।

तीनों सेवाओं को अपने-अपने विभागीय दायरों से बाहर आना चाहिए, साम्राज्य निर्माण बंद करना चाहिए, और संयुक्त योजना तैयार करनी चाहिए। चूंकि विभागीय दायरों और साम्राज्यों को नष्ट करना आसान नहीं है, इसलिए तीनों सेवाएं पहले एक अलग सशस्त्र बल वेतन आयोग के लिए तैयारी कर सकती हैं। जिसकी सफलता से अधिक सहयोग, एकीकरण और उम्मीद है कि सैन्य संरचना के आधुनिकीकरण करने का मार्ग प्रशस्त हो।
इसके बाद सबमें वरीयता और समानता होगी।

मानवेंद्र सिंह डिफेंस एंड सेक्यूरिटी अलर्ट के मुख्य संपादक हैं। वह वर्तमान में राजस्थान विधानसभा में भाजपा के विधायक हैं और संसद के रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समिति के पूर्व सदस्य हैं।

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