राष्ट्रीय राजधानी के जहांगीरपुरी इलाके में हनुमान जयंती पर दंगों के बाद बुलडोजर और ध्वस्तीकरण अभियान एक बार फिर सुर्खियों में है, जहां उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने खासकर मुस्लिमों के स्वामित्व वाली संपत्तियों को निशाना बनाया. और बचाव में तर्क ये दिया कि केवल अतिक्रमण और अनधिकृत निर्माण ध्वस्त किए जा रहे हैं.
अब बात करें पूर्व सिविल सेवक, भाजपा के एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और राजधानी में डिमॉलिशन मैन—जो 1992 से 1995 के बीच दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के आयुक्त (भूमि) के पद पर सेवारत थे—के तौर पर ख्यात रहे के.जे. अल्फोंस की, जिन्होंने हमारे पॉलिटिकल एडिटर डी.के. सिंह और सीनियर एसोसिएट एडिटर नीलम पाण्डेय से बातचीत में कहा कि ध्वस्तीकरण अभियान केवल तभी प्रभावी होते हैं जब पहले कुलीन वर्ग के अवैध कब्जों को निशाना बनाया जाए. वे बताते हैं कि अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने एकाध ही अलग-थलग बसी झुग्गी-बस्ती ध्वस्त की है.
इसने मुझे 1999 में अपने नेशनल इंट्रेस्ट कॉलम के उस लेख की याद दिला दी जो मैंने उस समय लिखा था जब न्यायपालिका अतिक्रमणों पर संज्ञान ले रही थी. उस समय इसे दि इंडियन एक्सप्रेस में ‘रिपब्लिक ऑफ सैनिक फार्म्स’ शीर्षक के साथ छापा गया था.
यह एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है क्योंकि सामाजिक-आर्थिक ढांचे में सबसे निचले पायदान पर रहने वालों को निशाना बनाया जा रहा है और अमीर और ताकतवर लोगों को हमेशा की तरह इस सबसे खुली छूट मिली हुई है.
यह कोई मेरा पसंदीदा स्थल नहीं है, लेकिन यदि कोई दिल्लीवासी अपने आसपास ‘विदेशी इलाके’ को देखना चाहे तो शहर के इस बाहरी क्षेत्र में जा सकता है. अपनी सुविधा के लिए हम इसे ‘रिपब्लिक ऑफ सैनिक फार्म’ कह सकते हैं.
यह कभी दिल्ली का एक विशाल हरा-भरा इलाका था. इस पर सबसे पहले रिटायर्ड जनरलों की सेना की नजर पड़ी—और इसी वजह से ये नाम भी पड़ा—और देखते-देखते राजधानी का ये कवच तोड़कर इसे पूरी तरह कब्जा लिया गया.
इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि इसकी मालिबू-शैली की ज्यादातर अनधिकृत और अवैध हवेलियां दुनिया के कई विकसित देशों की तुलना में प्रति व्यक्ति आय की कहीं अधिक होने की गवाह बनी हुई हैं.
यहां पानी और बिजली की आपूर्ति की अपनी व्यवस्था है, सुरक्षा इंतजाम भी अपने हैं, इसकी अपनी टोल रोड है (केवल हम जैसे ‘विदेशियों’ को शुल्क देना पड़ता है), इसकी अपनी सिक्योरिटी है और निश्चित तौर पर यह भारत सरकार को ताक पर रखती है.
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यही नहीं, इसका हमारे साथ कुछ हद तक राजनयिक संबंध भी है, क्योंकि दिल्ली के कुछ राजदूतों ने अपने रहने का ठिकाना यहीं बनाया है और इससे उनके मकान मालिकों को भी दोहरा लाभ मिल गया है. किरायेदारों की राजनयिक सुरक्षा से उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा भी मिल जाती है.
यदि आउटलुक के संपादक विनोद मेहता अपने नवीनतम अंक (क्या हमें सरकार चाहिए?) में उठाए गए सवाल का जवाब ढूंढ़ रहे हैं, तो उन्हें रिपब्लिक ऑफ सैनिक फार्म से ‘न’ ही सुनाई देने वाला है.
लेकिन इस स्तंभकार जैसा कोई मुक्त-बाजार हिमायती शिकायत क्यों कर रहा है? क्योंकि यहां साफ नजर आ रहा है कि हमें सरकार की जरूरत है. दरअसल, लाइसेंस-कोटा राज की तुलना में एक मुक्त बाजार, नियंत्रण मुक्त, और उपभोक्ताओं को राजा मानने वाली समृद्ध अर्थव्यवस्था में तो सुशासन की आवश्यकता अधिक होती है.
कोई देश, खासकर जो भारत की तरह इतने ज्यादा उद्यमों से संपन्न हो, एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के बिना विकास के रास्ते पर नहीं बढ़ सकता. लेकिन वहां सरकार का होना जरूरी है, जो सम्राट के तौर पर नहीं, बल्कि एक अंपायर के रूप में होनी चाहिए. अंपायर को मजबूत और निष्पक्ष होने के साथ-साथ नियमों के उल्लंघन को लेकर संशकित रहना चाहिए और उसमें ऐसी स्थिति में दखल की इच्छा शक्ति भी होनी चाहिए.
क्या कभी सोचा है कि हमारे मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग, कुछ अतिरिक्त आय और इसलिए थोड़ी बचत कर पाने वाले लोग, आर्थिक सुधारों को लेकर इतनी नाक-भौं क्यों सिकोड़ते हैं? एक हालिया जनमत सर्वेक्षण ने यह क्यों दिखाया कि हमारे 70 फीसदी युवा संरक्षणवाद के पक्ष में हैं?
आप उस सवाल का जवाब अन्य सवालों के साथ दे सकते हैं. हर्षद मेहता उनकी नजर में क्या है? बहुत अधिक रेग्युलेशन का नतीजा, या फिर बहुत कम का? या फिर 1993-94 में बाजार में शुरुआती उछाल के दौरान रातोंरात उभरी सैकड़ों निजी कंपनियों की घटना का, जिसने इनीशियल पब्लिक ऑफरिंग (आईपीओ) के जरिये पेंशनभोगियों और वेतनभोगियों से 10,000 करोड़ रुपये से अधिक जुटाए, और फिर गायब हो गया?
यदि तथाकथित डिरेग्युलेशन का नतीजा इस तरह के झांसे के तौर पर ही सामने आता है तो क्या पुराने माई-बाप सरकार वाले दिन ज्यादा बेहतर नहीं थे जब उद्योग भवन के बाबू लाइसेंस पर कुंडली मारे बैठे रहते थे और शेयर से जुड़े पूंजीगत मुद्दों का नियंत्रण उनके हाथ में होता था?
भ्रमवश नॉन-गवर्नेंस को डिरेग्युलेशन मान लेना खतरनाक है. कोई भी मुक्त बाजार एक अच्छी सरकार और अच्छे, मजबूत कानूनों के बिना सफल नहीं हो सकता. आज हम केवल एक केस में हर्षद मेहता को सजा मिलने का जश्न मना रहे हैं, जो उसे सात साल से ज्यादा समय तक अकेले ही हमारे पूंजी बाजार को तबाह कर देने और हममें से तमाम लोगों या हमारे पेंशनभोगी माता-पिता को कंगाल कर देने के बाद मिली है. इस बीच, सिंगापुर में बैरिंग्स बैंक घोटाले का आरोपी निक लीसन पहले ही अपनी जेल की सजा काट चुका है और उसे भुलाया भी जा चुका है.
अमेरिकी अपने सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन (हमारे सेबी के समकक्ष), अपने एकाधिकार और एंटी-ट्रस्ट कानूनों और उपभोक्ता अधिकारों को इतनी गंभीरता से लेते हैं कि नियमित तौर पर शिकंजा कसे रहते हैं और इनका उल्लंघन करने वालों को जुर्माने या जेल की सजा होती रहती है.
वॉल स्ट्रीट जर्नल के दो पत्रकारों को, एक चर्चित मामले में, 18 साल की जेल हुई, और अपराध (!) यह था कि वे उन शेयरों की खरीद-फरोख्त कर रहे थे जिनके बारे में लिख रहे थे. यदि आप भारत में समान कानूनों को लागू कर दें तो तिहाड़ शायद दुनिया के पहले रेजिडेंशियल प्रेस क्लब के तौर पर गिनीज बुक में दर्ज हो जाएगा.
एक मुक्त बाजार को सरकार-संचालित अर्थव्यवस्था से भी अधिक कानूनों की आवश्यकता होती है. कानून अच्छे और निष्पक्ष होने चाहिए, लागू करने के लिहाज से डिरेग्युलेटरी होनी चाहिए, और फिर इन पर अमल और निगरानी सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए. यदि बाजार अपने आप में जवाबदेही की गारंटी होता, तो सबसे सफल मुक्त अर्थव्यवस्थाओं में इस तरह के मजबूत नियामक तंत्र नहीं होते.
बाजार, कानून और सरकारें मिलकर जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं. हमारे मंत्री, वित्त सचिव, सीबीआई प्रमुख और यहां तक कि सेबी के मुखिया भी इस बात की शिकायत करते हैं कि हमारे पैसे लेकर गायब हुई कंपनियों के प्रमोटरों का पता लगाना और उन्हें दंडित करना कितना मुश्किल काम है.
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सीधा-सा सवाल यह है कि देश के शीर्ष बैंकों और वित्तीय संस्थानों की तरफ से चलाई जा रही मूल्यांकन एजेंसियों के प्रभारी अधिकारियों को क्यों नहीं पकड़ा जाता, जिनके प्रमाणपत्र प्रमोटर बड़े गर्व से लहराते घूमते थे? आप और हम तो इसलिए ठगे गए न, क्योंकि हमने सोचा था कि इनका मूल्यांकन सम्मानित संस्थानों ने किया है. न्याय व्यवस्था या डि-रेग्युलेशन का कोई नतीजा नहीं निकलेगा, अगर उस पर ठीक से अमल न किए जाए.
दूरसंचार क्षेत्र में जारी तमाशा यह समझने के लिए एक अच्छा उदाहरण है कि कैसे हमने डिरेग्युलेशन को नो-रेग्युलेशन समझने की भूल कर दी है. सेवाएं बेहतर हुई हैं, अभूतपूर्व रूप से सस्ती भी हैं और इस सबका श्रेय निजीकरण को दिया जाना भी सही लगता है. लेकिन इस सबके बीच भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की भूमिका के बारे में सोचें, जिससे निजी ऑपरेटर्स के साथ-साथ पुराने खिलाड़ी एमटीएनएल और डीओटी भी चिढ़ते हैं. वे टैरिफ घटाते रहते हैं और कोई गलती दिखने पर अंपायर की तरह सीटी भी बजाते रहते हैं. अंपायरों को तो कोई भी पसंद नहीं करता लेकिन आप उनके बिना खेल भी नहीं खेल सकते.
हमें सरकार की जरूरत है या नहीं, यह बहस पुराने भारतीय ताने-बाने में ही उलझी हुई है, जहां हम किसी चीज से इतना ज्यादा प्रभावित हो जाते हैं कि आगे-पीछे सब भुला देते हैं. हम चुनाव अभियानों, मतदान, धांधली और परिणामों में इस कदर उलझ जाते हैं कि भूल जाते हैं कि यह सब किसलिए है—शासन के लिए.
हर चुनाव में हम मतदाताओं से वही सवाल पूछते हैं और वही जवाब पाते हैं, राजनेता बदमाश हैं, बेकार हैं, उन्होंने हमें कुछ नहीं दिया, हम पहले से भी बदतर स्थिति में हैं. तो वोट क्यों देते हैं?
कुछ भी नहीं बदलता सिवाय इसके कि हर चुनाव के साथ, हर नई सरकार के साथ हम और अधिक आलोचक हो जाते हैं. अलग-थलग होने, खुद को संप्रभु, स्वतंत्र घोषित करने की इच्छा, भले ही बहुत ज्यादा न हो, बढ़ ही जाती है. इसलिए हमें लगता है कि चूंकि हम एक अच्छी सरकार नहीं चुन सकते हैं, इसलिए समाधान यही है कि कोई भी सरकार न हो और यह सब बाजार पर छोड़ दें.
मुझे कई साल पहले इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट में मनमोहन सिंह के साथ हुई बातचीत याद है, जब वे वित्त मंत्री थे. वह अर्थव्यवस्था, और सामान्य तौर पर राष्ट्र की स्थिति पर चिंतित लग रहे थे. उन्होंने कहा, ‘हमारा तब तक कोई भविष्य नहीं है, जब तक हम अपने लोगों को उन सेवाओं के लिए उचित शुल्क का भुगतान करने के लिए राजी नहीं कर लेते जो सरकार उन्हें प्रदान करती है—जैसे बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा आदि.’
लेकिन ऐसी सरकारें हमें इसके लिए कैसे राजी कर सकती हैं जो दूसरों को मुफ्त बिजली की लूट, बिना टिकट यात्रा और आम तौर पर नियमों-कायदों की धज्जियां उड़ाने और हमारी नाक के नीचे सैनिक फार्म जैसे अवैध निर्माण करने की अनुमति देती हैं, वहीं, नगरपालिका के तमाम अधिकारी हाउस टैक्स के लिए हमें परेशान करते रहते हैं और पूरी तरह से कानूनी कॉलोनियों में हमारी कथित तौर पर बड़ी बाल्कनी ध्वस्त करने में जरा भी देर नहीं लगाते हैं?
हां, हमें सरकार की जरूरत है. लेकिन जब डिरेग्युलेट या निजीकरण करते हैं तो सरकार को खुद को फिर से परिभाषित करना होगा. यदि वह पुराने हुजूर-माई-बाप वाले भाव से ही चिपके रहने पर जोर देती है, तो हमें पहले से पता है कि क्या करना है, उसे दरकिनार करें और अपने खुद के सैनिक फार्म बनाएं.
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