जनवरी 1985 से पहले आठवीं लोकसभा के लिए चुनाव होने वाले थे. इधर राज्य स्तर पर भिंडरांवाले की काबिलीयत का अंदाजा पहले ही लगाया जा चुका था, जब सन् 1980 में कांग्रेस पार्टी दोबारा सत्ता में आई थी. इसलिए इस बार खालिस्तान के मसले में उसका इस्तेमाल करके चुनावी समीकरण को अपने पक्ष में करने का निर्णय लिया गया था. यहीं से ऑपरेशन-2 की शुरुआत होने वाली थी. डिपार्टमेंट में अपने कार्य के दौरान मेरा जो अनुभव रहा और उसके आधार पर मैंने जो निष्कर्ष निकाला, वह इस प्रकार है—
पंजाब में हिंदू व सिख समुदाय के बीच सामुदायिक अविश्वास और असुरक्षा का माहौल पैदा किया जाए और उसके बाद पंजाब तथा उसके पड़ाेसी राज्य हरियाणा में भिंडरांवाले की हिंसात्मक गतिविधियों को पहले प्रोत्साहित किया जाए और बाद में उसे नजरअंदाज किया जाए. इसमें मीडिया को अपने पक्ष में करके उसका लाभ उठाया जाए. साथ ही, ऐसी स्थिति पैदा की जाए, जिससे हिंदुओं को लगे कि खालिस्तान की मांग को लेकर पंजाब और देश के बाहर रहनेवाले सिख सक्रिय हो रहे हैं, जिससे देश की अखंडता को खतरा है.
इसके पीछे यह अपेक्षा थी कि ऐसे विषाक्त माहौल में हिंदुओं को लगेगा कि वे देश की कुल जनसंख्या में 2 प्रतिशत का हिस्सा रखनेवाले अल्पसंख्यक सिखों—जिनके हितों को आसानी से नजरअंदाज किया जा सकता है—की हिंसात्मक गतिविधियों का शिकार हो सकते हैं. इससे बहुसंख्यक समुदाय के लोगों के मन में ऐसा भावनात्मक प्रवाह आएगा कि खालिस्तान की मांग के समर्थन में प्रचार करनेवाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के कारण राज्य की शांति और देश की अखंडता खतरे में है; क्योंकि वे विदेशी तत्त्वों की मदद से और उसके बिना भी राज्य के खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं. ऐसे में, हिंदू समुदाय के लोगों के मन में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होगी और वे देश-हित में सिखों के खिलाफ कठोर-से-कठोर कार्रवाई की मांग करेंगे.
दूसरी ओर, इसके साथ-ही-साथ पंजाब में माहौल गरम रखना और अंतिम कार्रवाई के लिए स्थिति के अनुकूल होने तक भिंडरांवाले को निश्चिंत होकर काम करने के लिए यह भी जरूरी था कि अकाली दल के नरमवादी नेताओं से बातचीत के जरिए उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता कि प्रधानमंत्री का रवैया उनकी मांग को लेकर सहानुभूतिपूर्ण है. लेकिन इस बातचीत को लंबा खींचने की जरूरत थी, ताकि राज्य में समय से पहले सामान्य स्थिति बहाल न होने पाए. इससे भिंडरांवाले को कोई मौका नहीं मिलेगा. अगर अकाली दल के नेता समस्या के हल की अपनी उम्मीद खोते हुए आंदोलन को 1, अकबर रोड ग्रुप द्वारा तय किए गए समय से पहले वापस भी लेना चाहेंगे तो भी भिंडरांवाले को स्वर्ण मंदिर परिसर में रखे रहने का कोई कारण या औचित्य बचा नहीं रह जाएगा. इस प्रकार, उस पर सब ओर से दबाव पड़ेगा कि वह स्वर्ण मंदिर परिसर खाली करके वापस मेहता चौक गुरुद्वारा चला जाए. 1, अकबर रोड ग्रुप वालों को यह भी स्वीकार्य नहीं था.
ऐसे में, विपक्षी पार्टियों को मजबूर होकर सिख उग्रवादियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जनता की मांग को स्वीकृति देनी पड़ेगी और फिर इंदिरा गांधी के लिए ऐसी अनुकूल स्थितियां तैयार की जाएंगी, जिसमें वह इन हिंदू-विरोधी, राष्ट्र-विरोधी उग्रवादी गतिविधियों को रोकने के लिए कठोर कार्रवाई कर सकें और इस प्रकार जनता की नजर में वह एक मजबूत व निर्णायक नेता के रूप में उभरकर आ सकें. इसमें एक समस्या यह थी कि यह कार्रवाई अगले आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए सही समय पर संपन्न हो जानी थी; क्योंकि समय का हेर-फेर होने की स्थिति में चुनाव में उसका उपयुक्त लाभ नहीं उठाया जा सकता था.
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भिंडरांवाले की बढ़ती प्रभावशीलता
वर्ष 1980 में पंजाब में प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में बनी शिरोमणि अकाली दल एवं जनता पार्टी के गठबंधन वाली सरकार बरखास्त कर दी गई और राज्य में दोबारा चुनाव कराए गए, जिसमें कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में वापस आ गई. इंदिरा गांधी ने जैल सिंह के प्रतिद्वंद्वी दरबारा सिंह को पंजाब का मुख्यमंत्री नियुक्त किया. जैल सिंह, जो केंद्रीय मंत्रिमंडल में गृह मंत्री के पद तक पहुंच चुके थे, उनके सामने अब 1, अकबर रोड ग्रुप के सक्रिय सदस्य के रूप में अपना आधार बचाए रखने की चुनौती आ गई थी. पंजाब के इन दोनों सिख कांग्रेसी नेताओं के बीच व्यक्तिगत राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के साथ-साथ विचारधारा का अंतर भी था. दरबारा सिंह पुराने कांग्रेसी नेता थे, जो धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के थे, जबकि जैल सिंह सांप्रदायिक ताकतों के प्रति सहनशीलता और समझौतावादी विचार रखते थे. अपने और पार्टी के हित के लिए उन्हें सांप्रदायिक एजेंडा भी स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं था.
केंद्र एवं पंजाब राज्य में सरकार बदलने के बाद राज्य में हिंसा और बढ़ गई. खालिस्तानी गतिविधियां जोर पकड़ने लगीं. अप्रैल 1980 में प्रकाशित रिपोर्टों में बताया गया कि फजिल्का तहसील के जंदुआ भीमशाह गांव का दौरा करते समय भिंडरांवाले ने घोषणा की है कि ‘बचा’ (निरंकारियों के प्रमुख गुरबचन सिंह) ने 25 लोगों को मारा है, जबकि उन्होंने सिर्फ 3 लोगों को मारा था. इसलिए अभी वह 22 और निरंकारियों को मारेंगे. 24 अप्रैल, 1980 को गुरबचन सिंह को नई दिल्ली स्थित उनके घर में गोली मार दी गई.
इस मामले में संदेह में आए लोगों में एक नाम भिंडरांवाले का था. अपनी गिरफ्तारी से डरकर भिंडरांवाले ने गुरु नानक निवास (स्वर्ण मंदिर परिसर के पास स्थित एस.जी.पी.सी. द्वारा प्रबंधित एक गेस्टहाउस) में जाकर शरण ली और अंत में, जब जैल सिंह ने यह घोषणा की कि भिंडरांवाले का गुरबचन सिंह की हत्या से कोई संबंध नहीं है, तब जाकर वह बाहर निकला.1 उसके बाद भिंडरांवाले ने घोषणा की कि गुरबचन सिंह के हत्यारों को अकाल तख्त के जत्थेदार द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए. उसने कहा कि अगर वे (हत्यारे) उसे मिलें तो वह स्वयं उन्हें सोने में तौलेगा.
मार्च 1981 के मध्य में चीफ खालसा दीवान, जो पंजाब में सिख शैक्षिक संस्थाओं को बढ़ावा देनेवाला एक गैर-राजनीतिक संगठन है, द्वारा चंडीगढ़ में एक सिख शैक्षिक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता वाॅशिंगटन डी.सी. स्थित गुरु नानक फाउंडेशन के प्रमुख गंगा सिंह डिल्हों द्वारा की गई. उस समय तक पंजाब में गंगा सिंह डिल्हों का कोई खास प्रभाव नहीं था; लेकिन कुछ प्रभावशाली अमेरिकी सीनेटरों और कांग्रेस के सदस्यों के साथ-साथ पाकिस्तानी राष्ट्रपति जिया-उल-हक के साथ भी उनके करीबी संबंध थे.
चंडीगढ़ सम्मेलन में यह घोषणा की गई कि ‘सिख एक अलग राष्ट्र है.’ डिल्हों ने स्वयं एक प्रस्ताव रखा कि ‘सिखों को संयुक्त राष्ट्र के एक संबद्ध सदस्य के रूप में माना जाए, क्योंकि वे हिंदू समुदाय की मुख्यधारा में नहीं हैं और उनकी एक अलग पहचान है. डिल्हों के इस दौरे के बाद वरिष्ठ भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में बोलते हुए पंजाब के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह को यह कहते हुए उद्धृत किया कि जैल सिंह करनाल में गंगा सिंह डिल्हों से मिले थे.2
10 अगस्त, 1981 को इंदिरा गांधी ने नई दिल्ली में आयोजित एक प्रेस काॅन्फ्रेंस में कहा, ‘खालिस्तान का अस्तित्व सिर्फ कनाडा में है और शायद अमेरिका में भी; लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम सतर्कता नहीं बरतेंगे या किसी तरह की ढील देंगे.’ यह सवाल पूछना धृष्टता होगी कि गंगा सिंह डिल्हों की पृष्ठभूमि को देखते हुए इस प्रकार चंडीगढ़ काॅन्फ्रेंस की अध्यक्षता करने के लिए देश में क्यों घुसने दिया गया.
भिंडरांवाले के बढ़ते प्रभाव की बराबरी करने के लिए मई 1981 में नरमपंथी अकाली नेताओं ने अमृतसर के पवित्र शहर में तंबाकू के इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग की. इस मांग के समर्थन और विरोध दोनों में प्रदर्शन किए गए. अकालियों ने पटियाला के पवन कुमार शर्मा के नेतृत्ववाली हिंदू सुरक्षा समिति के खिलाफ भड़कानेवाले नारे भी लगाए.
बताया जा रहा था कि पवन कुमार अमरिंदर सिंह और हरियाणा के मुख्यमंत्री भजन लाल के बहुत करीबी थे. लाला जगत नारायण और कांग्रेसी नेताओं का एक वर्ग भी इसमें हिंदू सुरक्षा समिति का समर्थन कर रहा था. अमृतसर में 31 मई, 1981 के तंबाकू विरोधी प्रदर्शन के बाद पंजाब सरकार ने लोगों को अपने हथियारों के लाइसेंस जमा कराने को कहा.
9 सितंबर, 1981 को लाला जगत नारायण, जो जालंधर से प्रकाशित एक समाचार-पत्र शृंखला के मालिक थे, की लुधियाना के निकट गोली मारकर हत्या कर दी गई. लाला जगत नारायण का दैनिक अखबार ‘पंजाब केसरी’ भिंडरांवाले का आलोचक था और जगत नारायण, जो सिखों और निरंकारियों के बीच हुए संघर्ष के दौरान वहां उपस्थित थे, ने भिंडरांवाले के खिलाफ कोर्ट में सबूत दिया था. ‘पंजाब केसरी’ पर आरोप लगाया जा रहा था कि वह निरंकारियों का पक्ष ले रहा है. मार्क टली और सतीश जैकब के अनुसार—’जगत नारायण का रवैया अलगाववादी था.’ वस्तुतः, पूरे पंजाब का मीडिया सांप्रदायिकता के आधार पर बंट गया था.
जिस दिन लाला जगत नारायण की हत्या हुई थी, उस दिन भिंडरांवाले हरियाणा के हिसार जिले में चंदो कलां नामक गांव में प्रवचन कर रहा था. हत्या के बाद दर्ज की गई एफ.आई.आर. में उसके साथ दो अन्य सहयोगियों का नाम था. मुख्यमंत्री दरबारा सिंह के निर्देश पर डी.आई.जी. डी.एस. मंगत के नेतृत्व में पंजाब पुलिस की एक टीम भिंडरांवाले को गिरफ्तार करने के लिए चंदो कलाँ पहुंची. इधर भिंडरांवाले अपने कुछ समर्थकों के साथ चौक मेहता स्थित गुरुद्वारा दर्शन प्रकाश के लिए निकल चुका था.
हरियाणा और पंजाब होते हुए वह 300 कि.मी. की यात्रा करके 13-14 सितंबर, 1981 की रात चौक मेहता पहुंचा. कुलदीप नैयर के अनुसार, जैल सिंह ने स्वयं हरियाणा के मुख्यमंत्री भजन लाल को फोन करके कहा कि भिंडरांवाले को गिरफ्तार न किया जाए. ‘एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने सतीश जैकब को बताया कि हरियाणा के मुख्यमंत्री ने भिंडरांवाले को वापस गुरुद्वारा ले जाने के लिए एक सरकारी कार चंदो कलां भेजी है.’
मेरे बैचमेट दिवाकर दास गुप्ता (आई.पी.एस. 1964, मध्य प्रदेश), जो उस समय नई दिल्ली स्थित सी.आर.पी.एफ. हेडक्वार्टर में डी.आई.जी. थे, ने मुझे बताया कि उनकी फोर्स भिंडरांवाले को हर चेक पोस्ट पर रोकने की कोशिश कर रही थी; लेकिन उन्हें गृह मंत्री से निर्देश मिला कि भिंडरांवाले को जाने दिया जाए. चूंकि भिंडरांवाले को जल्दी में निकलना पड़ा था, इसलिए उसके उपदेशों या प्रवचनों के लिप्यंतरण वहीं छूट गए. बाद में पता चला कि पंजाब पुलिस की छापा मारनेवाली टीम ने गुस्से में उन्हें जला दिया था.
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रॉ (R&AW) के नए मिशन
जैसा पहले उल्लेख किया गया है, सिख उग्रवाद और पाकिस्तान की आई.एस.आई. के साथ उसकी कड़ी को सुलझाने के लिए रॉ (RAW) में एक नया विभाग वर्ष 1980 के अंत तक बन चुका था. वर्ष 1981 की शुरुआत की बात है, निदेशक (आर) सुनटूक ने मुझसे पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में भारतीय मिशनों (दूतावास और कॉन्सुलेट) में सात रॉ (RAW) स्टेशन बनाने के लिए प्रस्ताव तैयार करके विदेश मंत्रालय को भेजने को कहा. इन मिशनों को उन क्षेत्रों में स्थापित किया जाना था, जहां सिख आप्रवासियों की संख्या अच्छी-खासी थी. सुनटूक ने कहा कि प्रस्ताव में यह बात विशेष रूप से दरशाई जाए कि हमने सिख समुदाय के कुछ वर्गों में सिख उग्रवादी झुकाव को बढ़ते देखा है और सबकुछ देखते हुए ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में खालिस्तान की मांग जोर पकड़ सकती है. इसे देखते हुए रॉ (RAW) उन क्षेत्रों की गतिविधियों पर नजर रखने और उपयुक्त कदम उठाने में सरकार की मदद करने के लिए इन मिशनों में अपने अधिकारियों को तैनात करना चाहता है.
चूंकि मैं जानता था कि उत्तरी अमेरिका के सिख समुदाय में उस समय तक ऐसी कोई भावना नहीं थी, इसलिए मुझे खालिस्तानी विचारधारा वाले एक व्यक्ति, जो ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद में खुलकर खालिस्तान के समर्थन में आ गया था, ने जो कुछ मनगढ़ंत बातें बताई थीं, उन्हें थोड़ा-बहुत आधार बनाकर मैंने डेढ़ पेज के प्रस्ताव तैयार कर दिए. रॉ (RAW) ने जल्दी ही उन्हें अपना स्रोत बना लिया और पंजाब में खालिस्तानी गतिविधियों में आई.एस.आई. की संलिप्तता का पता लगाने के लिए डबल एजेंट के रूप में इस्तेमाल करने लगा. बाद में उस स्रोत को संभालनेवाले एक वरिष्ठ रॉ अधिकारी ने मुझसे उनके आत्मसमर्पण में मदद करने के लिए कहा. मैंने उन्हें यह आभास कराए बिना कि मैं उनके उस स्रोत और अपने विभाग के बीच मौजूद कड़ी के बारे में जान चुका हूं, इस ऑपरेशन में संलग्न होने से विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया.
मैंने सोचा था कि सिख अलगाववादियों पर नजर रखने के लिए सात विदेशी मिशन तैयार करने का प्रस्ताव विदेश मंत्रालय द्वारा स्वीकार नहीं किया जाएगा, क्योंकि कई अन्य प्रस्ताव वहां पहले से ही लटके पड़े थे. प्रस्ताव के महत्त्व को जताने के लिए मैंने उनमें से चार प्रस्तावों पर संयुक्त निदेशक ए.के. वर्मा (बाद में रॉ के सचिव) से हस्ताक्षर करा लिये. लेकिन तब मुझे बहुत खुशी हुई, जब सातों प्रस्ताव तुरंत ही विदेश मंत्रालय द्वारा स्वीकार कर लिये गए. मुझे ऐसा लग रहा था कि मैंने एक असंभव काम को संभव कर दिखाया है.
बाद में, मेरे मन में यह बात आई कि चूंकि डिपार्टमेंट सीधे प्रधानमंत्री के प्रति उत्तरदायी है, इसलिए प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव द्वारा विदेश सचिव से बात किए बिना इन प्रस्तावों को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा. कुछ समय तक मैं यही सोचता रहा कि आखिर इन पोस्टों में ऐसा क्या खास था, जो प्रधानमंत्री ने स्वयं हस्तक्षेप किया? प्रस्ताव अत्यावश्यक थे, यह जानते हुए भी कुछ कारणवश हमें उन्हें भरने में कुछ समय लगा. पहला कारण यह कि डिपार्टमेंट अभी तक उस चोट को नहीं भुला पाया था, जो मोरारजी देसाई ने उसे पहुंचाई थी. जिन अधिकारियों को सुरक्षित रूप से स्पेशल सर्विस ब्यूरो जैसे संगठनों में लगाया जा चुका था, उन्हें वापस बुलाना था और कुछ नए अधिकारियों को भी भरती किया जाना था. यह भी महसूस किया जा रहा था कि कम-से-कम अमेरिका और कनाडा की पोस्टों के लिए अगर यथासंभव सिख अधिकारियों को तैनात किया जाए, यह ज्यादा अच्छा होगा, क्योंकि वे स्थानीय सिख समुदाय के मन को आसानी से पढ़ सकेंगे. इसके अलावा, अलग-अलग कार्यों में उनकी तैनाती से जुड़ी आवश्यक औपचारिकताएं भी पूरी की जानी थीं.
अंततः, वर्ष 1981 के अंत तक हम इन पोस्टों को भरने के लिए तैयार थे. अधिकारियों को विदेश मंत्रालय में भरती करने से पहले विदेश मंत्रालय के डायरेक्टर (इस्टैब्लिशमेंट) से उनका परिचय कराना था. अगस्त 1982 तक सब ठीक-ठाक चला और इस दौरान हमने एक-दो पोस्ट बिना किसी मुश्किल के भर ली थीं. उसके बाद विदेश मंत्रालय में डायरेक्टर (इस्टैब्लिशमेंट) का कार्यभार भारतीय विदेश सेवा के एक सिख अधिकारी एस.जे. सिंह जो बाद में अंबेस्डर रिटायर हुए, ने संभाल लिया. पहला रॉ अधिकारी, जिसका उनके साथ परिचय कराया जाना था, वह महाराष्ट्र का था, जिसे पंजाब के मामलों की ही जानकारी नहीं थी, सिख समुदाय और खालिस्तान जैसे संवेदनशील मामले की तो बात ही अलग थी.
अतः एस.जे. सिंह के साथ मीटिंग से पहले मैंने उस अधिकारी को व्यक्तिगत रूप से थोड़ा-बहुत बता दिया था. इसके बावजूद खालिस्तान के विषय पर कुछ खास बोल पाने का आत्मविश्वास नहीं दिखाई दे रहा था. मीटिंग की शुरुआत में ही एस.जे. सिंह ने उससे पूछ लिया कि क्या उसे वास्तव में लगता है कि पंजाब में खालिस्तान का कोई मसला है, जिसे हल किए जाने की जरूरत है; और उसे उस पोस्ट पर तैनात करने से डिपार्टमेंट को क्या कुछ मदद मिलेगी? सवाल भारी-भरकम था और जैसा कि हमें पहले ही लगा था, मेरा वह सहकर्मी इसका उपयुक्त जवाब नहीं जानता था.
तब सिंह ने इस विषय पर मेरी राय मांगी. मैं जानता था कि उनके द्वारा पूछा गया प्रश्न (कि क्या वास्तव में खालिस्तान जैसा कोई मसला है) सचमुच उपयुक्त था. इसलिए मैंने अपने प्रस्ताव के पक्ष में अपनी बात कही. वह सहमत नहीं थे. अंत में, मैंने उन्हें बताया कि विदेेश मंत्रालय और रॉ (RAW) में अंतर यह है कि ‘विदेश मंत्रालय को किसी समस्या के बारे में तब पता चलता है, जब वह मीडिया तक पहुंच जाती है; जबकि रॉ उसके बारे में तभी जान लेती है, जब उसकी भूमिका बननी शुरू होती है.’ मेरे उत्तर से वह ज्यादा खुश नहीं थे. मैंने उनसे कहा कि अगर आपको ऐसा विश्वास है कि ऐसी कोई समस्या नहीं है और निकट भविष्य में इसके उभरने की कोई आशंका नहीं है तो आप फाइल पर ऐसा ही लिख दीजिए, मैं अपने अधिकारी को वापस ले जाऊंगा.
वह ऐसा नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह उन विशेष परिस्थितियों से अवगत थे, जिनमें इन पोस्टों को अनुमति दी गई थी. बाद में मुझे पता चला कि उस समय विदेश मंत्रालय में यह विश्वास था कि रॉ (RAW) खालिस्तान मसले का पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए विदेश में अतिरिक्त पोस्ट बना रहा है. बाद में, मैंने अपने बेबाक उत्तर के लिए एस.जे. सिंह से क्षमा मांगी. लेकिन मुझे क्या पता था कि ऑपरेशन-2 के कारण तेजी से बदलती स्थितियां मेरे प्रस्ताव को सच साबित कर देंगी.
(जीबीएस सिद्धू 1964 बैच के रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी और पूर्व रॉ ऑफिसर हैं. उनकी किताब खालिस्तान षड्यंत्र की इनसाइड स्टोरी प्रभात प्रकाशन से छपी है.)
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