भले भारत को आजादी 1947 में मिली हो लेकिन भीमराव आंबेडकर भारत के उन सच्चे सपूतो में से एक हैं जिन्होने आजादी से कई वर्ष पूर्व ही एक मजबूत भारत की नींव तैयार करना आरंभ कर दिया था. जब एक ओर समूचा स्वतंत्रता आंदोलन राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग की ओर झुका हुआ था तो उसी समय भीमराव आंबेडकर का लक्ष्य भारत को ना सिर्फ राजनीतिक रुप से स्वतंत्र करना था बल्कि एक मजबूत राष्ट्र के रूप में सदियों तक खड़े रहने के लिए उसे सामाजिक और आर्थिक रुप से भी समर्थ व सक्षम बनाना भी था. इसी लक्ष्य को लेकर भीमराव आंबेडकर ने अपनी पूरी जीवन यात्रा तय की.
भीमराव आंबेडकर भारतीय समाज के उन बौद्धिक नेताओं में से एक हैं जो स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ही समझ चुके थे कि एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए जातिवाद, सत्तावाद और सांप्रदायिकता से मुक्ति जरूरी है. वह सामाजिक आर्थिक विषमता के उस विषाक्त स्वरूप से अच्छे से अवगत थे जिसने भारतीय समाज को कुछ इस तरह से जकड़ रखा था कि अगर भारत राजनितिक रूप से स्वतंत्र भी हो जाता तो भी जातिवाद, सत्तावाद, साम्प्रदायिकता का दीमक उसे एक दूसरे विभाजन की ओर धकेल देता.
असल में आंबेडकर का राष्ट्रवाद, भौगोलिक सीमाओं से अधिक समानता पर आधारित है. वह वर्तमान की उपलब्धियों पर ध्यान देने के बजाय भविष्य की आशंका को दूर करने के लिए परिश्रम करने वाले नेता थे. उन्होंने भारतीय समाज में गहरे तौर पर फैले भारी असंतोष को बड़ी अच्छी तरह से समझ लिया था. यही कारण है कि उन्होंने राष्ट्र को बनाए रखने के लिए उस असंतोष को खत्म करने के लिए आवाज बुलंद की. इसके लिए जहां एक तरफ वो अपने समय के सर्वमान्य लोकप्रिय नेता गांधी से भी टकरा जाते हैं वही दूसरी तरफ आजादी के बाद संविधान सभा की बैठक में सभा को संबोधित करते हुए अपने आप को बड़े गर्व से अछूतों का नेता घोषित करते हैं.
सकारात्मक और समावेशी राजनीति
यहां यह समझना भी होगा कि आंबेडकर की राजनीति बांटने और राज करने की राजनीति नहीं थी बल्कि वह सकारात्मक और समावेशी राजनीति करने वाले नेता थे. आंबेडकर बड़ी अच्छी तरह समझते थे कि किसी भी प्रकार के असंतोष को लंबे समय तक नहीं दबाया जा सकता. यही कारण है कि आंबेडकर जब संविधान सभा में शामिल होते हैं तो उनका सारा ध्यान अब तक चले आ रहे अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था बदलने पर रहता है.
आंबेडकर एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए समाजवाद को जरूरी मानते थे. आंबेडकर का समाजवाद सिर्फ आर्थिक समाजवाद नहीं था, सिर्फ आर्थिक समानता की बात नहीं करता बल्कि वह सांस्कृतिक समानता की बात भी करता था. सैकड़ों वर्षों से भारतीय समाज में सांस्कृतिक रूप से जो असमानता और भेदभाव की खाई घर कर गई थी जिसने समाज में असंतुलन पैदा कर दिया था, आंबेडकर उस असंतुलन को खत्म करने की बात करते हैं.
वह एक जगह कहते भी है कि यदि स्वतंत्रता आदर्श है, यदि स्वतंत्रता का अर्थ प्रभुत्व का अंत है जो एक व्यक्ति दूसरे पर रखता है तब नि:संदेह केवल आर्थिक सुधारों पर ही जोर नहीं दिया जा सकता. यदि किसी भी दिए समय या समाज में शक्ति और प्रभुत्व का स्रोत सामाजिक और धार्मिक है तो सामाजिक सुधार और धार्मिक सुधारों को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए. (Ramesh Chand, ‘Dr Ambedkar : Life and Mission’ Yojna, May 15 1991, p 28)
धर्म ने राष्ट्र को बांटकर रख दिया
आंबेडकर जानते थे कि धर्म को समाज से और जीवन से अलग नहीं किया जा सकता. वहीं दूसरी तरफ आंबेडकर ने यह भी देखा था कि धर्म ने किस तरीके से एक राष्ट्र को बांट कर रख दिया था. ऐसी स्थिति में आंबेडकर संतुलन का एक नया रास्ता खोज कर निकालते हैं. वह धर्म का इस्तेमाल देश और समाज को विभाजित करने के लिए नहीं बल्कि उसे एक मजबूत राष्ट्र के रूप में निर्मित करने के लिए करते हैं. वह कहते भी हैं कि धर्म मानव समाज की एकजुटता को मजबूत बनाने वाली शक्ति होना चाहिए. बहुसंख्यकों की इच्छाओं के अनुसार अल्पसंख्यकों पर शासन करने का बहुसंख्यकों का ईश्वरीय अधिकार नहीं. इस क्रम में वह धार्मिक राष्ट्रवाद के बजाय राष्ट्रवादी धार्मिकता पर बल देते हैं. ( Ambedka, BR, States and Minorities, What are their rights and how to secure them in the free Constitution of India, p 52)
आंबेडकर धर्म और राष्ट्र के बीच के बारीक संतुलन को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे. उन्हें पता था कि धर्म का उफान असल में एक तरीके के जातीय अस्मिता को बल देता है. जिससे राष्ट्रीय अस्मिता खंडित होगी. इसलिए आंबेडकर धर्म को राष्ट्रीय चेतना से संबद्ध करने की वकालत करते हैं. वह मानते हैं कि राष्ट्रवाद, जातीय अस्मिता की भावना को खंडित करेगा और दरअसल राष्ट्रवाद ही वह सामाजिक युक्ति है जो सब को एक मंच पर खड़ा करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. इसलिए आंबेडकर संविधान तैयार करते समय धर्म की एक अपनी निश्चित भूमिका और राष्ट्र के संदर्भ में उसका अपना स्थान स्पष्ट कर देते हैं.
आंबेडकर का राष्ट्रवाद सामाजिक एकता से जुड़ा
यहां यह भी कहना जरूरी है कि आंबेडकर का राष्ट्रवाद असल में सामाजिक एकता की भावना से नाभिनालबद्ध है. (BS Rao, The farming of Indian Constitution, Vol 4, 1968, p 944) आंबेडकर मानते हैं कि कोई भी राष्ट्र तब तक मजबूत नहीं हो सकता जब तक कि वह सामाजिक रूप से एक ना हो . यहां यह बात और अधिक स्पष्ट होती है कि आंबेडकर राष्ट्रवाद और सामाजिक एकता को एक दूसरे का पूरक मानते हैं. राष्ट्रवाद के लिए सामाजिक एकता जरूरी है और सामाजिक एकता के लिए राष्ट्रवादी विचार भावना एक महत्वपूर्ण जरूरत है. दोनों एक दूसरे के बिना बहुत हद तक कमजोर है और अप्रासंगिक हैं और अस्वीकार्य है.
असल में आंबेडकर का राष्ट्रवाद उन सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक विषमताओं के प्रति सचेत व गंभीर राष्ट्रवाद है जो समय दर समय भारत की आम जनता की राष्ट्रीय चेतना को लील रहा था. यही कारण है की आंबेडकर ने कहा भी है कि हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को एक सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए. राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं चल सकता जब तक कि उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र निहित न हो.
आंबेडकर लोगों से यह अपेक्षा रखते थे कि वे व्यक्ति पूजा की भावना से परे गुणों की पूजा करें. वह नायक के निर्माण से अधिक नायकत्व का निर्माण करने वाले गुणों की पूजा करने को श्रेष्ठ मानते थे. यही कारण है कि जहां एक ओर आंबेडकर गांधी के सामने भी अड़ जाते हैं और दूसरी ओर गांधी का सबसे ज्यादा आदर करते हैं. आंबेडकर का राष्ट्रवाद व्यक्ति पूजा पर आधारित राष्ट्रवाद नहीं है. असल में व्यक्ति पूजा पर आधारित राष्ट्रवाद दरअसल राष्ट्रवाद नहीं व्यक्तिवाद होता है और आंबेडकर इस सूक्ष्म तथ्य को बहुत अच्छी तरह समझते थे.
विचारों की भक्ति
आंबेडकर मानते थे व्यक्ति की भक्ति दरअसल बांधने का काम करती है जबकि विचारों की भक्ति, गुणों की भक्ति हमें यह अवसर देती है कि हम जरुरत पड़ने पर अपने लिए नए नायकों की भी तलाश कर सकें. इससे राष्ट्र के पास विकल्प उपलब्ध होगा, समय के साथ राष्ट्र और अधिक मजबूत होगा, अन्यथा लगातार कमजोर होते हुए एक दिन पुरानी इमारत की तरह जर्जर होकर बिखर जाएगा.
आंबेडकर राष्ट्र के संदर्भ में एक मजबूत संविधान की भूमिका के महत्व को बहुत अच्छी तरह समझते थे. वह जानते थे एक मजबूत संविधान राष्ट्र को किसी भी प्रकार के कट्टरता, भ्रम, अराजकता, सांप्रदायिकता से बचा सकता है. एक मजबूत संविधान ही सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक राजनीतिक समानता को ला सकता है.
यही कारण है कि जब आंबेडकर को संविधान लेखन समिति का प्रधान बनाया गया था, तो उन्होंने इस भूमिका को बड़ी गंभीरता से निभाया. उनके सामने भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप को तय करने का विकल्प था. आंबेडकर ने बहुत ही गहराई से विश्व के सभी छोटे-बड़े देशों के संविधान का अध्ययन किया तथा उन्होने इस क्रम में यह समझा की असल में लोकतांत्रिक भावना किसी पुस्तक में नहीं बल्कि जनता के मस्तिष्क में होती है. लोकतंत्र कोई नियम नहीं है, कोई व्यवस्था नहीं है बल्कि लोकतंत्र सामाजिक संबंधों में गति करने वाली भावना है. (Social Background of Indian Nationalism, p 37)
ऐसी स्थिति में किसी भी देश का सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक रह पाना तभी संभव होगा जब लोकतांत्रिक भावना उस देश की जनता के मन में और पारस्परिक संबंधों में गति कर रही हो. इसी मूल बात को केंद्र में रखकर आंबेडकर ने भारतीय संविधान लेखन आरंभ किया. दूसरे शब्दों में कहें तो आंबेडकर ने भारतीय संविधान में जितने शब्द लिखे, दरअसल वह सारे एक बीज के रूप देश की जनता के मन में बोए गए लोकतंत्र के बीज थे.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के कार्यकारिणी सदस्य और राजधानी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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