सोज़ ने शेखर गुप्ता को बताया कि, श्रीनगर में भारतीय सैनिकों के पहुँचने के दिन माउंटबेटन ने पटेल का प्रस्ताव लाहौर पहुँचाया। लियाक़त अली, ‘जो न तो इतिहास समझते थे न भूगोल’, ने इससे इंकार कर दिया।
नई दिल्ली: पूर्व कांग्रेस मंत्री और एक प्रमुख कश्मीरी राजनेता सैफुद्दीन सोज़ ने एक चौंकाने वाला दावा किया है कि सरदार वल्लभभाई पटेल पाकिस्तान को हैदराबाद के बदले कश्मीर देने के प्रस्ताव पर खुश थे लेकिन नेहरू की दृढ़ता ने इसे भारत के साथ बनाये रखा।
सोज़ ने एनडीटीवी के वाक द टॉक शो पर दिप्रिंट के मुख्य संपादक शेखर गुप्ता को बताया था कि भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पाकिस्तान को पटेल का प्रस्ताव ठीक उसी दिन पहुँचाया जिस दिन अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान के घुसपैठियों को वापस खदेड़ने के लिए भारतीय सेना श्रीनगर में उतरी थी।
सोज़ ने कहा, “पहले दिन से ही सरदार पटेल जोर दे रहे थे कि कश्मीर पाकिस्तान में जाना चाहिए। विभाजन परिषद में, उन्होंने कश्मीर लेने और हैदराबाद-डेक्कन छोड़ने के लिए लियाक़त अली को मनाने की अपने स्तर पर पूरी कोशिश की।”
“वहां एक लड़ाई थी, सरदार पटेल, मोहम्मद अली और हमारे रेड्डी वहां थे। सरदार पटेल ने लियाकत अली से कहा, हैदराबाद-डेक्कन के बारे में बात भी मत करो। यह पाकिस्तान से जुड़ा हुआ भी नहीं है। आप हैदराबाद हमारे लिए छोड़ दो और कश्मीर लेलो।
सोज़ ने कहा, “मैं आपको एक बहुत ही दिलचस्प कहानी बताऊंगा। जिस दिन हमारी सेना श्रीनगर में उतरी, उसी दिन दोपहर में माउंटबेटन लाहौर चले गए। पाकिस्तान के गवर्नर, लियाकत अली खान और चार पाकिस्तानी मंत्रियों के साथ उनका रात्रिभोज था। माउंटबेटन ने कहा, मैं भारत के लौह पुरुष सरदार पटेल की तरफ से एक संदेश लाया हूँ। कश्मीर ले लो और हैदराबाद-डेक्कन को भूल जाओ, यह आपके साथ जुड़ा हुआ भी नहीं है।”
सोज़ ने कहा, “लेकिन जैसा कि सरदार शौकत हयात खान अपनी पुस्तक में लिखते हैं, “लियाकत अली न तो इतिहास समझते थे और न ही भूगोल।” इसलिए, उन्होंने प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।
सोज़ ने कहा, कि पटेल हावी नहीं हो सके, क्योंकि नेहरू की स्थिति बहुत मजबूत थी। कश्मीर के साथ उनका संबंध बहुत मजबूत था। उनका मानना था कि कश्मीर धर्मनिरपेक्ष भारत में आना चाहिए, यह यहां सुरक्षित रहेगा। वह नेशनल कांफ्रेंस के बहुत करीबी व्यक्ति थे। उन्होंने 1945 में नेशनल कांफ्रेंस के सोपोर अधिवेशन को भी संबोधित किया था। वह कश्मीर के इतिहास को पूरी तरह से जानते थे।
शेख अब्दुल्ला ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को खारिज कर दिया था। उन्होंने अपनी संविधान सभा को बताया कि कश्मीर 15 अगस्त से 22 अक्टूबर, 1947 तक स्वतंत्र था। लेकिन एक बार पाकिस्तानी हमलावर आए तो यह स्पष्ट हो गया कि आजादी संभव नहीं थी।
सोज़ कहते हैं कि उन्होंने कहा कि हमारे चारों ओर के पांच देश भारत, पाकिस्तान, रूस, चीन और अफगानिस्तान कभी कश्मीर की आजादी स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए यह संभव नहीं है। शेख अब्दुल्ला ने अपनी पुस्तक में यह लिखा था।
सोज़ ने कहा कि शेख अब्दुल्ला का भारत से दूर जाने का कोई इरादा नहीं था। वह यहीं रहना चाहते थे “जब तक भारत धर्मनिरपेक्ष, बहुलवादी और कश्मीर से सहानुभूतिपूर्ण था। इस तरह दिल्ली समझौता आया।”
उन्होंने कहा, बाद में दुर्भाग्यवश नेहरू को अपने ही मंत्रिमंडल में समर्थन नहीं मिला। उन्हें शेख अब्दुल्ला की सरकार को खारिज करने और उन्हें हिरासत में लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। “उन्हें इसका पछतावा हुआ और वह बहुत अकेले हो गए। शेख अब्दुल्ला ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि तत्कालीन सदर-ए-रियासत डॉ करण सिंह, 1953 में षड्यंत्रकारियों (उनके खिलाफ) में से एक थे। कश्मीर की संविधान सभा को जारी रखने की अनुमति दी जानी चाहिए थी। आप राम जेठमलानी से पूछिए। यहां तक कि वह भी इस पर यकीन करते हैं।”
सोज़ ने कहा कि कश्मीर की हालत खराब हो गई थी “मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि कम दिमाग (जैसे) रफी अहमद किदवई और अजीत प्रसाद जैन ने नेहरू के आस-पास के पर्यावरण को जहरीला कर दिया था। फिर, खुफिया एजेंसियों में और भी कम दिमाग वालों को राजनीतिक कार्य सौंपा गया। यह अब भी जारी है।”
सोज़ ने कहा कि अब भी भविष्य में एकमात्र संभावित समाधान हुर्रियत नेताओं से बात करना ही है। उन्होंने कहा, युवा कश्मीरी क्रोधित हैं आप उनसे बात नहीं कर सकते। उन्होंने कहा, बल काम नहीं करेगा, “स्वाभिक रूप से तब जब परिवार के दो बेटे पहले ही मर चुके हों और तीसरा आतंकवाद में शामिल होने के लिए जा चुका हो।”