कथा-कहानियों, उपन्यासों, यात्रा वृत्तांतों पर लगातार लोग लिखते हैं, उसे दूसरों तक अलग-अलग माध्यमों से पहुंचाते हैं लेकिन कविताओं के मामले में लोग सिर्फ उसे पढ़कर खुद तक सीमित कर रह जाते हैं. कविताओं को अक्सर अपनी निजी अनुभूतियों तक समेट दिया जाता है, उस पर लेख नहीं लिखे जाते.
क्या जिस पृष्ठभूमि के मद्देनज़र कविताओं को गढ़ा और रचा गया, उस पर बात नहीं होनी चाहिए? समाज, पर्यावरण, अतीत, भविष्य को लेकर जो द्वंद और संकट हमारे बीच मौजूद है, उसे कविताओं के माध्यम से जो कोई भी कवि या कवयित्री उकेर रहा/रही है, क्या उसे नज़रअंदाज कर आगे बढ़ जाना चाहिए?
पूरी दुनिया में कविताओं के जरिए प्रतिरोध का स्वर जिस तरह उभरा है, वैसा साहित्य की किसी और विधा में कम ही मिलता है. कविताएं बहुत कम शब्दों में मर्म को छूती हैं, किसी खास विषय को कहने की सहजता बरतती है और सत्ता प्रतिष्ठानों की पैनी नज़रिए से समीक्षा करती है.
कुछ दिन पहले ही हम सबने विश्व कविता दिवस (21 मार्च) मनाया है. प्रेम से लेकर देशभक्ति तक तमाम तरह की रचनाएं हमारे आगे से उस दिन गुजरने लगी. लोगों ने अपनी पसंद की कविताएं साझा कीं, कविताएं पढ़ीं और कविता के भरे-पूरे संसार को जीवंत कर दिया. लेकिन उनमें से कितनी कविताएं दबे-कुचले, असहाय, शोषण-ग्रस्त आबादी पर थी जिसे लोगों ने याद किया? क्या उन कविताओं में दर्द और पीड़ा थी जो आज भी हमारे देश के लोग भुगत रहे हैं, क्या वो कविताएं सत्ता प्रतिष्ठान को चुनौती दे रही थी? इसका उत्तर आपके जिम्मे छोड़ता हूं.
लेकिन बीते दिनों में युवा कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की कविताएं एकदम पाठकों को स्तब्ध करती हैं. उनका रचना संसार एक सीमित वर्ग और समुदाय का होते हुए भी व्यापक है और उनकी पैनी नज़रों से पर्यावरण क्षरण, विकास का दुरुपयोग, शोषण, प्रतिरोध, खेमेबंदी, राष्ट्रवाद, बाज़ार, जनमानस की पीड़ा स्पष्ट शब्दों में बिना लाग-लपेट उभरती है.
हाल ही में राजकमल प्रकाशन द्वारा जसिंता केरकेट्टा का कविता संग्रह ईश्वर और आवाज़ प्रकाशित हुआ है. आदिवासी समाज के सामने मौजूद संकट, उनकी सांस्कृतिक बोध को खत्म करने की कोशिश में लगे बाहरी तत्व, समाज में महिलाओं की स्थिति, राष्ट्रवाद, मॉब लिंचिंग जैसे तमाम सामाजिक-राजनीतिक विषयों से जुड़े सामयिक मुद्दों पर उनकी टिप्पणियां इस कविता संग्रह को मानीखेज और पठनीय बनाती हैं.
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ईश्वर और बाज़ार
जसिंता केरकेट्टा की कविताएं इंसान के भीतर एक असर पैदा करती हैं जो पाठकों को लंबे समय तक समाज के जरूरी विषयों पर सोचने को मजबूर करती हैं. कवयित्री ने आदिवासी जनजीवन पर मंडराते खतरों को जिन रूपकों और हकीकत के सहारे गढ़ा है, वो बताती है कि देश के दूर-सुदूर क्षेत्रों में रहने वाली ये आबादी किन खतरों का सामना कर रही है. कैसे ये लोग देश के अभिन्न हिस्सा होते हुए भी बाकी लोगों से भिन्न हैं. कैसे इनका इस्तेमाल किया जा रहा है, सिर्फ लालच की पूर्ति के लिए.
जसिंता अपनी कविताओं में ईश्वर की अवधारणा पर सवाल उठाती है और इसके जरिए लगातार फैलते उस डर को उकेरती है जिसे ईश्वर के नाम पर धर्म को पोषित करने के लिए किया जा रहा है. वो लिखती हैं:
मजदूर जब अपने अधिकार के लिए उठे
तो कुछ ईश्वर भक्तों ने उनसे
हाथ जोड़कर प्रार्थना करने को कहा
जसिंता केरकेट्टा ने समाज की विडंबना को दिखाने के लिए कविता को माध्यम बनाया है. उनकी कविताओं में सिर्फ आदिवासी लोगों के संकट का ही चित्रण नहीं है बल्कि समूचे देश में जो आसन्न खतरे हैं उस पर भी उनकी नज़रे दिखलाई पड़ती हैं. इन खतरों में राष्ट्रवाद प्रमुख है. वो लिखती हैं:
जब मेरा पड़ोसी
मेरे खून का प्यासा हो गया
मैं समझ गया
राष्ट्रवाद आ गया
जसिंता केरकेट्टा की कविताएं इंसान से मनुष्य बने रहने का आग्रह करती हैं और इंसान के उस कुरुप और विद्रूप चेहरे को भी उजागर करती है जिसे कभी धर्म, कभी राष्ट्रवाद तो कभी मॉब लिंचिंग के सहारे पोषित किया जाता है और मानव सभ्यता को खतरे में डाला जाता है.
विश्वविद्यालयों से कवयित्री अपनी उम्मीदों को इस तरह व्यक्त करती हैं:
विश्वविद्यालय ही पेश कर सकता है
किसी समाज को बेहतर बनाने की नज़ीर
विश्वविद्यालय से ही निकल सकती हैं
इस धरती को सुंदर बनाने वाली
समय की सबसे सुंदर तस्वीर
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प्रतिरोध का स्वर
जसिंता केरकेट्टा की कविताओं से स्पष्ट दिखलाई पड़ता है कि इन कविताओं के पीछे गहरे अनुभव और बहुत हद तक खुद झेली हुई पीड़ा का संसार है. यही चीज़ उनकी कविताओं से बेबाकी के साथ प्रतिरोध का स्वर उभारती हैं. उनकी कविताएं सत्ता से सवाल करने की बिना डरे जहमत उठाती है.
ईश्वर और बाज़ार किताब की भूमिका में वो लिखती हैं, ‘मैंने हमेशा अपने लिखने की जिम्मेदारी कविताओं पर ही छोड़ी है. कविताओं ने मुझे जमीन और प्रकृति से गहरे जोड़ा है.’
वो लिखती हैं, ‘कविताओं ने मुझे भीतर शून्य होना सिखाया है. इसकी वजह से मेरे भीतर कविताओं के एवज में कुछ पाने की लालसा और प्रतिरोध की कविता लिखते हुए मारे जाने का डर, दोनों ही खत्म हो गए हैं.’
सिंहाजन की जाति क्या होती है ? शीर्षक से लिखी एक कविता में वो लिखती हैं:
मैं ऐसे हर उस राजा के खिलाफ बोलूंगी
जो मेरे नाम पर
इंसानों की हत्या कर सकता है
ऐसा राजा, भला इंसान कैसे हो सकता है?
महिलाओं और स्त्रियां पूरी मजबूती के साथ समाज में अपनी भूमिका निभाए और उन्हें किस तरह के संकटों से गुजरना पड़ता है, उसे भी कवयित्री ने अपनी कविताओं के केंद्र में रखा है. वो स्त्रियों के सशक्तिकरण की पुरजोर समर्थन करती हैं और हर उस जगह उनकी भूमिका चाहती हैं जहां उनका हक है.
वो उन लोगों को भी घेरती हैं जो दोनों पक्ष की तरफ से खुद को पेश करते हैं और मध्यम मार्ग चुनते हैं. वो लिखती हैं:
आवारा कुत्तों के बनिस्बत
पालतू कुत्तों के
मारे जाने की संभावनाएं कम हैं
क्योंकि वे पूरी ताकत के साथ
अपनी दुम हिलाते हैं
जसिंता केरकेट्टा की किताब में कई कविताएं गहरी छू जाती हैं. उन्हें पढ़ते हुए केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धूमिल, अमृता प्रीतम लगातार याद आते हैं.
कवयित्री मौजूदा समय की कविताओं को नया आयाम दे रही हैं, कविता की दुनिया में एक सशक्त हस्तक्षेप कर रही हैं, एक नई दुनिया रच रही हैं, वो भी शोषितों के उस आधार पर जो सदियों से हमारे समाज की सच्चाई है और लाखों आदिवासियों का भोगा हुआ यथार्थ.
जसिंता केरकेट्टा की कविताएं मनुष्य को बेहतर बनाने की सारी संभावनाएं रखती हैं. भावशून्यता से भरे समाज में भावों को जगाने वाली रचनाएं हैं उनकी. इसलिए कहानियों, उपन्यासों के बरक्स कविताओं का संसार समृद्ध हो इसकी खासी जरूरत है क्योंकि ये जरूरी मुद्दों पर कम शब्दों में ज्यादा असर पैदा करती है. और मनुष्य जाति से सभ्य बनने की उम्मीद लगाती हैं.
वे हमारे सभ्य होने के इंतज़ार में हैं
और हम उनके मनुष्य होने के
(लेखिका जसिंता केरकेट्टा की किताब ‘ईश्वर और बाज़ार ‘ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है)
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