भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के निवास की बैठक में पुरानी पीढ़ी के राजनेताओं के घरों की तरह कम से कम साज सज्जा का सामान है. वे अपने पसंदीदा स्थान, सोफा के मध्य में बैठकर अपनी पीठ दीवार की तरफ रखते हुए आगंतुकों से बात करते हैं. आगंतुक उस दीवार पर दो मढ़ी हुई तस्वीरों पर ध्यान देते हैं. जिसमें उनकी आंख के बाईं ओर चाणक्य या कौटिल्य की तस्वीर और उनके दायीं तरफ सावरकर की तस्वीर लगी है. ये दो महापुरुष उनकी राजनीति का निर्धारण करते हैं- कौटिल्य राजनीतिक कौशल के लिए और सावरकर उनकी हिंदुत्व-राष्ट्रवाद की विचारधारा के लिए.
हालांकि, अमित शाह उस दीवार पर एक तीसरी तस्वीर भी लगा सकते हैं. जो कि कौटिल्य और सावरकर की तस्वीर के बिल्कुल बीच वाली जगह में लग सकती है. यह तस्वीर एक पक्के कांग्रेस के नेता की होती. क्योंकि जिस प्रकार से उनकी राजनीतिक शक्ति और राज्य सत्ता व दार्शनिक प्रेरणा इन दोनों से आती है. जो पहले से ही वहां स्थापित हैं, उसी प्रकार उनकी राजनीतिक शैली और उनकी स्वयं की पार्टी में उनका प्राधिकार कांग्रेस अध्यक्ष (1964-67) स्व. के कामराज के सफलतम समय की प्रतिकृति की भांति प्रतीत होता है.
कामराज के बाद से ऐसा कभी नहीं हुआ कि अपने स्वयं के रिपोर्ट कार्ड पढ़ने के लिए या पार्टी के काम में समय देने हेतु इस्तीफे का प्रस्ताव देने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष के कार्यालय में कैबिनेट के मंत्रियों को हाज़िरी लगानी पड़ती थी. या उनके प्रमोशन के बाद सुबह उन्हें रिपोर्ट करना होता था, जैसा कि पीयूष गोयल ने मंगलवार को अरुण जेटली के स्वस्थ होने की अवधि के दौरान वित्त मंत्रालय का प्रभार संभालने के बाद किया था.
कामराज के बाद अपने पहले शासनकाल में पूर्णकालिक सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष के रूप में इस तरह की शक्ति का उपयोग किसी और ने नहीं किया है. मैं पूर्णतः आश्वस्त नहीं हूँ कि कामराज ने भी इतने चुनाव प्रचार किये होंगे जितने अमित शाह ने किये हैं. लेकिन शायद उनको इतने चुनाव प्रचारों की आवश्यकता थी भी नहीं. उनकी सफलता के समय में चुनाव उनके लिए एकलौते घोड़े की रेस की तरह था. स्पष्टता के लिए हम केवल पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्षों की बात कर रहे हैं. जैसे कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों से अलग, जो पार्टी अध्यक्ष भी थे या वो पार्टी अध्यक्ष, जिनके पास सीमित शक्तियों के साथ ‘नियुक्त किए हुए’ प्रधानमंत्री थे.
देव कान्त बरूआ चंद्रशेखर (जनता) जैसे अन्य पूर्णकालिक सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष और वे लोग जो वाजपेयी के शासन काल के दौरान बीजेपी में समान पद रखते थे. इन सब के पास सीमित शक्तियां थीं और इसीलिए ये वो मुकाम हासिल नहीं कर सके जो शाह और कामराज ने किया. बेशक कई लोग कामराज और शाह के बीच के अंतर को सही तरीके से इंगित करेंगे. ये भूतपूर्व व्यक्ति एक मुख्यमंत्री और एक जमीनी नेता थे जिन्होंने कई सामाजिक कार्यक्रमों पर अपनी छाप छोड़ी थी और जो अभी भी कायम है. लेकिन, कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं होते हैं और हमारी तुलना पार्टी के भीतर की पूर्व-प्रतिष्ठा पर केंद्रित है.
शाह की शक्ति अधिक अद्वितीय है. क्योंकि नरेन्द्र मोदी अपने उदय के लिए शाह के आभारी नहीं है. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद शाह पार्टी अध्यक्ष के रूप में मोदी की व्यक्तिगत पसंद थे. आप चिकित्सकीय रोग विशेषज्ञों के रूप में संदेह के उच्चतम स्तर के साथ कड़ी मेहनत करते हुए ख़ोज कर सकते हैं. लेकिन आपको ऐसा कोई मुद्दा मिलना असंभव है जहां उन्होंने प्रधान मंत्री के साथ आपस में किसी विरोधी-उद्देश्य के साथ काम किया हो. इसके साथ ही इस बात का भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है कि मोदी ने उनके किसी फैसले को ख़ारिज कर दिया हो.
मैंने जुलाई 2013 में नेशनल इंटरेस्ट में पूछा था कि जब बीजेपी ने उन्हें आम चुनाव के लिए अपने यूपी अभियान का प्रभारी बनाया था. तब ऐसा करते समय क्या वे धूम्रपान कर रहे थे, शराब पी रहे थे, भोजन कर रहे थे या सोच रहे थे?’. निश्चित रूप से मैं गलत साबित हुआ, क्योंकि उन्होंने यूपी की 80 सीटों में से 73 सीटें (दो सीटें सहयोगियों की मिलाकर) अर्जित की थीं. पूर्वावलोकन की मेरी एक धारणा थी जो कि मेरी एक गलती साबित हुई कि बीजेपी एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी की छवि की सहायता से एनडीए की सरकार बनाना चाहती थी. उस समय पार्टी का दृष्टिकोण सर्व सहमति पर आधारित, सॉफ्ट हिंदुत्व व पार्टी की वर्तमान राष्ट्रीय छवि को नुकसान ना पहुचाना था. उत्तर प्रदेश के लिए एक ख़राब विकल्प के रूप में शाह के बारे में निष्कर्ष तभी सही हो सकता था यदि वह धारणा सही साबित होती है.
जैसे-जैसे राजनीति की परतें खुलीं मैं अपनी उस धारणा को लेकर अज्ञानी साबित हुआ. आगे की राजनीति ने मुझे एहसास दिलाया कि यह मेरे द्वारा कितना गलत अनुमान था. वाजपेयी की छवि वाली एक और सरकार बनाने से काफी दूर, मोदी-शाह का विचार ‘असली’ और पश्चातापहीन भाजपा-आरएसएस सरकार बनाना था और यह भी माना जाता था कि वाजपेयी की सरकार बमुश्किल भाजपा की सरकार थी. क्योंकि एक बड़ी संख्या में प्रमुख मंत्रालय गैर-आरएसएस लोगों के पास थे. यह सिर्फ जॉर्ज फर्नांडीस (रक्षा मंत्रालय) जैसे सहयोगियों को दिए गए मंत्रालयों पर ही लागू नहीं होता बल्कि जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, रंगराजन कुमारमंगलम, अरुण शौरी और इन जैसे अन्य लोगों पर भी लागू होता है जो आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा की उपज नहीं थे.
अब वाजपेयी सरकार न तो विचारधारा और न ही पार्टी के लिए सही साबित होती हुई दिखाई दी है. वर्तमान वितरण व्यवस्था दूसरे छोर से संबंधित है. जहां पार्टी के पास आवश्यक वैचारिक शुद्धता के साथ कार्य करने की प्रतिभा नहीं है. वहीं अब यह बाहर से इसकी खोज के लिए भी इच्छुक नहीं है. पार्टी केवल उन्हीं को सत्ता देगी जो पूर्ण रूप से शुद्ध हैं या जिन्होंने दशकों से प्रतिष्ठा और सम्मान कमाया है. यह निर्ममतापूर्वक शाह द्वारा संचालित होता है.
इस अर्थ में यह बीजेपी या एनडीए सरकार पहले की सरकार से पूरी तरह अलग है. बीजेपी के पास अब अपना बहुमत है और हमारे अधिकांश राज्यों में इसकी सत्ता है. लेकिन आप यह भी पक्का मान सकते हैं कि यदि लालकृष्ण आडवाणी या अन्य पुराने भाजपा नेताओं को बहुमत दिया गया होता. जिनसे दिल्ली भली भांति परिचित है तो उन्होंने इस तरह की अव्यवस्थित विचारधारा वाली प्रतिबद्धता के साथ सरकार नहीं बनाई होती.
मोदी ने हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों के रूप में आरएसएस प्रचारक और निष्ठावान युवा की अपनी इस पसंद को रेखांकित किया. हालांकि वे राजनीति की कम समझ रखते थे. तब शाह ने अपने पसंदीदा विकल्पों के साथ कदम रखा और गुजरात में विजय रुपानी, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ और भारत के राष्ट्रपति के रूप में राम नाथ कोविंद को चुना. इन विकल्पों का चुनाव प्रधान मंत्री की अवज्ञा नहीं था. सिर्फ इतना था कि पहली पसंद शाह द्वारा चुनी गयी थी, जिन्होंने पार्टी से हर एक रहस्य छुपाया था.
1963 में गांधी जयंती के अवसर पर पार्टी के कार्यों में खुद को पुनः समर्पित करने के लिए कामराज ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर राजनीतिक क्रान्ति को जन्म दिया. उनके इस कदम के बाद छह कैबिनेट मंत्रियों और पांच अन्य मुख्यमंत्रियों ने भी इस्तीफा दे दिया. इस प्रकरण ने मोरारजी देसाई और जगजीवन राम जैसे लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया. यह उनके द्वारा की गयी एक कठोर आंतरिक सफाई थी और इसे कामराज योजना कहा गया, हालांकि वह तब पार्टी प्रमुख भी नहीं थे. अब इसे भुला दिया गया है, लेकिन स्टालिनवादियों के आयामों का यह शुद्धिकरण लंबे समय के लिए इतिहास में दर्ज हो गया. हालांकि यह शुद्धिकरण रक्तपात रहित और ‘स्वैच्छिक’ था. इसने राजनीतिक कार्टूनिस्टों और व्यंग्यकारों को लंबे समय तक व्यस्त रखा. तब कमजोर हो चुके नेहरू इतने प्रभावित (और संभवतः असुरक्षित) हुए कि उन्होंने कामराज से पार्टी अध्यक्ष बनने को कहा. नेहरू की मौत के बाद लाल बहादुर शास्त्री और फिर इंदिरा गांधी के शपथ ग्रहण को सुनिश्चित करते हुए और पूरी तरह से जम चुके मोरारजी देसाई की महत्वाकांक्षाओं को नष्ट करते हुए वह अपने वास्तविक अवतार में आ गए. इन वर्षों के दौरान 1964 से 1967 तक सबसे शक्तिशाली कांग्रेसी व्यक्तियों ने उनसे तरफदारी के लिए उनका अनुसरण किया और तमिल में उनके सशक्त जवाब ‘पार्कलम’ (चलो देखते हैं) ने भारत के राजनीतिक शब्दकोश में जगह बना ली.
हमें अभी तक पता नहीं है कि शाह की ऐसी कोई पसंदीदा पंक्ति है या नहीं. लेकिन कामराज की प्लेबुक से बाकी सब कुछ है. प्रधानमंत्री, जिन्होंने उन्हें यह शक्ति दी है. उसके अलावा सभी मंत्री उनके सामने कतार में खड़े होते हैं. पार्टी के कार्य में खुद को फिर से समर्पित करने के लिए वह उन्हें ‘स्वैच्छिक’ इस्तीफा देने के लिए राजी करते हैं. वे सभी कोई अन्य उम्मीद न रखते हुए वफादार पार्टी कार्यकर्ता होने का दावा करते हुए मुस्कुराते हुए आते हैं. भले ही उनके ह्रदय ज़ख्मी हों. वे अब इस अनुमान पर काम करते हैं कि मोदी-शाह नेतृत्व 2024 तक जारी रहेगा और समय बीतने के साथ साथ और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा. वे उम्मीद करते रहेंगे कि शाह पार्टी के काम में उनके योगदान पर ध्यान देंगे और कभी न कभी किसी मुकाम पर वापस लेकर आयेंगे.
दिल्ली ने आधी शताब्दी से वास्तविक शक्तिशाली सत्तारूढ़ पार्टी अध्यक्ष नहीं देखा था. यह समायोजन करने में अपना समय ले रहा है. शाह ने अन्य महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं. भाजपा की संसदीय पार्टी की बैठक अब पार्टी कार्यालय में होती है, और प्रधानमंत्री वहां उपस्थित होते हैं. यह उनकी सुविधा के लिए प्रधानमंत्री आवास में इन बैठकों को आयोजित करने की लम्बे समय से स्थापित प्रथा को बदलता है. मंत्रिमंडल, मुख्यमंत्री, यहां तक कि सबसे शक्तिशाली सरकारी विभागों और एजेंसियों के प्रमुख अब भी स्वीकार करते हैं कि प्रधान मंत्री कार्यालय के अलावा सत्ता कहाँ है. वे इसी के अनुसार तरीके बदल रहे हैं. कर्नाटक का फैसला शाह के प्रभुत्व को और भी मजबूत बना देगा और अपने ही अधिकार क्षेत्र में एक जननेता से ज्यादा एक पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनकी पुष्टि करेगा.
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