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Friday, 22 November, 2024
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हमारे सैन्य इतिहास का राजनीतिकरण हुआ है, कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी के फैक्ट्स भी गड़बड़ा गए

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दशकों से सैन्य इतिहास का एक बहुत ही उग्रतापूर्ण और राष्ट्रवादी संस्करण तैयार किया गया है – लेकिन राजनेताओं ने तो जनरलों को भी गलत तरीके से उजागर किया है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी के भी तथ्य गड़बड़ा गए

प्रधानमंत्री स्वयं और अपने सहयोगियों के मध्य इस सैन्य इतिहास को मिला रहे हैं। अगर उन्होंने केवल विकीपीडिया पर एक नजर डाली थी तो उनको पता होगा कि 15 जनवरी 1949 को जनरल के.एम. करियप्पा (ना कि थिमय्या) भारत के पहले सेना प्रमुख बने थे और यही कारण है कि इस दिन को सेना दिवस के रूप में मनाया जाता है। 1899 में जन्मे करियप्पा जब सेना प्रमुख बने तब वह केवल 50 साल के थे। उस समय यह बहुत ही कम आयु के सेना प्रमुख थे।

तेजी से होता विकास, जो अतिव्यापी और उलझा हुआ था, आपको इतिहास के एक आंशिक मोड़ पर पहुँचाता है। स्पष्टता के लिए बताते चलें –1947-48 में भारत और पाकिस्तान के मध्य होने वाली सैन्य कार्यवाही में दोनों की सेनाओं का ब्रिटिश कमांडरों द्वारा नेतृत्व किया गया था। युद्ध के दौरान वे अक्सर एक दूसरे से अपने नोट्स का आदान-प्रदान किया करते थे। जैसा कि यह कोई खास कठिन बात नहीं थी दोनों पक्षों की सैन्य कार्यवाई से संबंधित दस्तावेजों को उनके मूल कमांडरों को सौंप दिया गया था, जो सीधे राजनीतिक नेतृत्व से संबंधित थे। कश्मीर में सैन्य कार्यवाई का नेतृत्व करने के लिए भी भारत की तरफ से करियप्पा को चुना गया था। उस समय यह एक लेफ्टिनेंट जनरल थे, इनको दिल्ली और पूर्वी पंजाब की कमांड सौंपी गई थी। इन्होंने तुरंत इस कमांड का नाम बदलकर पश्चिमी कमांड रख दिया।

A picture of Shekhar Gupta, editor-in-chief of ThePrintइसमें एक भ्रम उत्पन्न होता है क्योंकि के.एम. करियप्पा के साथ में एक और कुर्गी सेना प्रमुख के.एस. थिमय्या थे, दोनों के नाम की शुरूआत “के” से होती है। दोनों के नामों में लगे “के” शब्द का अर्थ कोडंडेरा होता है और दोनों एक ही वंश (कबीले) से संबंधित हैं। 19 वीं सदी के अंत में करियप्पा ने थिमय्या को कश्मीन विभाजन को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी, थिमय्या ने प्रारंभिक महीनों में एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी थी। कुर्गी या कोडवास एक छोटा और अत्यधिक सफल जातीय समूह हैं। 1950 में दोनों नाम अपरिचित थे और सुनने में एक जैसे लगते थे। दोनों ने एक साथ काम किया और कश्मीर सैन्य कार्यवाई में बहुत ही वीरता पूर्वक भाग लिया फिर प्रमुख बन गए। करियप्पा के विपरीत थिमय्या ने अपने रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन के साथ कार्य किया था, (करियप्पा के रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह थे, जिसका नाम संता-बंता के साफ़ सुथरे मजाक के लिए जोक उद्योग द्वारा उपयोग किया गया था)। मेनन एक कट्टर साम्यवादी था जिसको सेना के तारांकित अंग्रेजी निर्लज्जता से नफरत थी। थिमय्या को यह बात बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं था कि उसका मंत्री लगातार उसके कामों में हस्तक्षेप करे। उस समय के प्रसिद्ध इतिहासकारों में से एक स्वर्गीय इंदर मल्होत्रा इसका उल्लेख किया है कि कैसे एक बार थिमय्या मेनन के साथ एक और ऐसे ही व्यक्ति से बचने के लिए छुट्टी लेना चाहते थे और उसके साथियों ने उससे पूछा कि इसके लिए उसको क्या कारण बताना चाहिए। थिमय्या ने कहा, “बस कह दो कि मुझे दिमागी बुखार है।” नाराज होकर 1959 में थिमय्या ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया, बाद में 1961 में नेहरू ने उसको अपना कार्यभार फिर से संभालने और कार्यकाल को पूरा करने के लिए मनाया था।

यह सभी बातें और विचित्र कुर्गी संयोग आम लोगों को तो भ्रमित कर सकते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री और उनका प्रधानमंत्री कार्यालय इससे कैसे भ्रमित हो सकता है? हम लोग के लिये यह एक स्वीकार्य परिकल्पना हो सकती है।

स्वतंत्रता के 25 साल बाद हमारे इतिहास ने कई युद्धों को देखा है, इसमें बड़े युद्धों में पाकिस्तान से (1947-48 और 65 तथा 70), चीन (1962) से होने वाले युद्ध तथा छोटे युद्धों में हैदराबाद (1948), गोवा (1960) और सिक्किम की नथूला में चीन से फिर से (1967) में होने वाला युद्ध शामिल है। 1971 को छोड़कर इसमें से किसी में भी भारत की प्रमुख विजय नहीं थी। 1962 एक स्पष्ट हार थी, 65 एक थका हुआ विराम था तथा 47-48 एक अधूरा व्यापार था। दशकों से राजनीतिक वर्ग के द्वारा एक विश्वास कायम किया गया है यदि उस समय सेना को राजनीतिक नेताओं द्वारा न छेडा गया होता तो यह और भी बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी।

यह कहने के लिए राजनेताओं ने इस जहर को निगल लिया था कि सशस्त्र बलों के लिए यह एक अधिक सरलीकरण हैं लेकिन ऐसा केवल इसलिए क्योंकि उनके पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं था। यह औपनिवेशक दुनिया के सबसे भयावह दशक थे। लोकतांत्रिक कानूनों का अभी भी निर्माण किया जा रहा था और सेना को अगले दरवाजे की ओर स्थापित किया जा रहा था। नेहरू के नेतृत्व में राजनीतिक वर्ग में कई चिंताएं थीं जब नागरिक-सैन्य समीकरण अभी भी विकसित हो रहे थे।चुनौती नागरिक/राजनीतिक पूर्व-श्रेष्ठता स्थापित कर रही थी। उसी समय नागरिक-सैन्य तनाव को उपेछित कियागया । एक छोटा तथ्य – जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) अयूब खान, जिन्होंने 1958 में पाकिस्तान में सत्ता संभाली थी, ने सीमा पर अपनी वाहिनी के साथ कर्नल के रूप में करियप्पा के नीचे कार्य किया था।

इसलिए इन वर्षों में राजनीतिक और सैन्य कहानियों का एक ऐसा सामरिक सिद्धान्त बनाया गया था किः सशस्त्र बल और उनके कमांडर गलत नहीं हो सकते थे। असफलता या हार के सभी दोष राजनेताओं पर लगाये जाने थे और यदि सफलता मिलती तो सभी के साथ बाटी जाती । 1971 के बाद इंदिरा गाँधी ने जो किया उसके बाद जीत की उम्मीद की गई। लेकिन इसमें तब कोई बदलाव नहीं हुआ। 1999 में होने वाला कारगिल युद्ध वाजपेई सरकार की तुलना में सैन्य नेतृत्व की विफलता थी। इतनी बड़ी सीमा को पार करके पाकिस्तान देश के इतने भीतर कैसे घुस आया था, यह समझ में नहीं आता? इसके बाद फिर कुछ सुविधाजनक गाथओं की रचना की गई थी। सैन्य नेतृत्व की बात न करते हुए सारा दोष सिविलियन इंटेलीजेंस पर डाल दिया गया था और आज हम कारगिल की वीरता और विजय की कहानियों को याद करते हैं। क्योंकि किसी भी आलोचना से सशस्त्र बलों को अलग करने का मत महत्वपूर्ण था, और महत्वपूर्ण है। सशस्त्र बलों के पास संवैधानिक निरंतरता है, इसलिए व्यक्तिगत नेताओं को दोषी ठहराते हुए पूरे संविधान को दोषी ठहरा दिया जाएगा। राजनेता आते जाते रहेंगे, प्रतिद्वंद्वियों द्वारा इनका विस्थापन होता रहेगा और इनकी आलोचना भी होती रहेगी।

शायद इन दशकों की जीवंत जानकारी हाल ही में येले के एक प्रोफेसर स्टीवेन विल्किन्सन द्वारा जारी प्रकाशन “आर्मी एंड नेशनः दि मिलिट्री एंड इण्डियन डेमोक्रेसी सिन्स इंडिपेंडेंस” में देखी जा सकती है। उन्होंने कुछ इस प्रकार इन तनावों का वर्णन किया है, जिसको लिखने में कोई भारतीय सहित अत्यधिक ईमानदार भारतीय लेखक भी डर जाएगा। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो, सेना में पंजाबियों की अधिक भर्ती को लेकर राजनेताओं की चिंता और इसके आधार को बढ़ाने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास पर लिखा है किः अंततः बाबू जगजीवल लाल राम का ऐतिहासिक निर्णय राज्य की जनसंख्या आधारित भर्ती कोटा लाने की और अग्रसर। सभी राज्य अपनी साझा की गई भर्तियों को नहीं भरते हैं और यह दूसरों के लिए समर्पित होते हैं। लेकिन नकली औपनिवेशक “मार्शल रेस” का सिद्धान्त एक व्यवस्थित रूप से अवनति की ओर अग्रसर है। खैर,सैनिक भर्ती और विरासतों में अपने कोटे से अधिक हिस्सा लेने के लिए यह राज्य कोई ब्रिटिश नहीं है जिसको बहुत खास या लड़ाकू समझा जाता है। यह केरल है।

विल्किन्सन और अन्य इतिहासकारों का कहना है कि एक कारण है जिससे भारत कृष्ण मेनन की खामियों और 1962 की आपदा की बाद यहाँ तक कि 1962-71 के दशक के दो बुद्धिमान रक्षा मंत्रियों बाई. बी. चौहान और जगजीवन राम के बाद भी अपनी सेना का पुनर्निर्माण करने में सक्षम था। आपने उनको किसी भी सेना प्रमुख को दोष देते कभी नहीं सुना है। सेना प्रमुख थापर और बी.एम कौल ने 1962 पर नजर डाली और फिर अधिकतर लोगों ने राजनेता कृष्ण मेनन को दोषी ठहराया था। चौहान ने ही हेंडरसन ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट को वर्गीकृत करने और संसद में इसे बनाए रखने के लिए प्रयास किया था।

ऐसा इसलिए नहीं कि यह किसी चीनी के रहस्य का खुलासा करता था बल्कि इसलिए कि यह सेना के प्रदर्शन और नेतृत्व की आलोचना करता था और हकीकत से विपरीत चला गया (जैसा कि चेतन आनंद की फिल्म में दिखाया गया) लता मंगेशकर के गाये गीत ए मेरे वतन के लोगों…….. के अट्ठावन साल बाद भी यह वर्गीकृत है।

दशकों बाद इतिहास का एक उग्र और अति राष्ट्रवादी संस्करण तैयार किय गया थाः वह यह था कि जनरल हमेशा सही थे जिसके चलते राजनेता रास्ते पर आ गए थे। ऐसा लगता है कि अगर करियप्पा/थिमय्या/चौधरी/मॉनेक्शां को उनकी मर्जी से काम करने दिया गया होता, तो वहाँ कोई पीओके नहीं होता, चीन को सबक सिखा दिया गया होता, आज तिब्बत आजाद होता, 1965 में पाकिस्तान को कुचल दिया गया होता और और ’71 में, बांग्लादेश और पश्चिम पाकिस्तान के बाद एक और पखवाड़े की लड़ाई में व्यस्त होना होगा । किसी भी तरफ से कोई भी आधिकारिक जानकारी दूरस्थ रूप से इस बारे में सुझावित नहीं थी । एक नए लोकतंत्र में “मेरी सेना सबसे मजबूत” की भावना की आवश्यकता थी, लेकिन ऐसा न करके सैनिकों को कमजोर कर दिया गया।

आरएसएस की सलाह से इसको और अधिक संवार दिया गया था। इससे यह सहायता मिली की बहुत से कायर नेता गाँधी-नेहरू के वंश के ही थे। आरएसएस की सलाह के बाद यह कुछ इस प्रकार का हो गया किः करियप्पा, थिमय्या और चौधरी ने उस समय के प्रधानमंत्री से थोड़ी और मोहलत देने का अनुरोध किया। लेकिन गाँधी-नेहरू की हिम्मत टूट गई, हालत बदतर हो गई और वे विदेशी शक्तियों को अपना लिया। 1965 में केवल शास्त्री ही समस्या थे जो आरएसएस के एक अनुयायी थे। लेकिन बयानबाजी के दिनों में इसको बहुत ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। आप आरएसएस के किसी भी अनुयायी से पूछ लो वह आपको यही बात बताएगा। इस प्रक्रिया में समय, नाम यहाँ तक कि अवधि को जोड़ दिया जाता है, लेकिन किसी को भी इससे कोई असर नहीं पड़ता कि एक मजबूत सेना को कांग्रेस द्वारा कमजोर कर दिया गया। और नरेन्द्र मोदी इसी बात को मुद्दा बना रहे हैं। इसलिये मोदी और उनके साथियों ने इसमें इतनी मिलावट कर दी है।

Read in English: Our military history is politicised to suit Generals, that’s why Modi’s facts are mixed up

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