उत्तर प्रदेश के एग्जिट पोल के नतीजों पर मुझे जरा भी अचरज नहीं. हां, कुछ एग्जिट पोल में बीजेपी को बड़े अन्तर के साथ (300 से ज्यादा सीटें और वोट शेयर में 10 प्रतिशत या उससे ज्यादा की बढ़त) जीतता बताया गया है, जिसपर आश्चर्य का होना लाजिमी है. लेकिन, जहां तक चुनाव के नतीजों का प्रश्न है- उसकी दिशा क्या रहने वाली है और तमाम एग्जिट पोल जिस नतीजे पर पहुंचे हैं (यानी सूबे की सत्ता पर बीजेपी का फिर से कब्जा), इसे लेकर मेरे मन में जरा भी अचरज नहीं है.
हां, इस बात पर मेरे ज्यादातर हित-मीत, सफर के साथी और सहकर्मियों को जरुर ही आश्चर्य होगा जिन्होंने उम्मीद यह बांध रखी थी कि उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में तो बीजेपी का सूपड़ा साफ हो जाना है. मैं समझ सकता हूं कि एग्जिट पोल के नतीजों से ऐसे साथियों को झटका लगा होगा. जिस सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था की खस्ताहाली को उजागर हुए अभी कायदे से साल भर भी ना बीते हों और जहां सरकार के विरोध में एक जबर्दस्त आंदोलन चल चुका हो वहां दिखावटी और सजावटी नेताओं से भरी हुई एक निहायत औसत दर्जे की सरकार अगर जनादेश हासिल करने में कामयाब हो जाये तो किसी को भी आश्चर्य होगा.
लेकिन, बीते छह हफ्ते यूपी के अलग-अलग इलाकों में बिताने के कारण मैं ऐसे आश्चर्य के भाव से उबर चुका हूं. मैंने सुन रखा था कि जनता-जनार्दन योगी सरकार से नाराज है. मुझे उम्मीद थी कि विकास, जन-कल्याण और कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर योगी सरकार का रिकार्ड खराब रहा है तो लोगों में गुस्सा होगा ही. मैं मानकर चल रहा था कि कोरोना के दौरान आप्रवासी मजदूरों ने जो कठिनाइयां झेलीं या फिर कोविड की दूसरी लहर के समय सरकार ने जैसी रुखाई का इजहार किया उसे लोग नहीं भूले होंगे. हमने दर्ज किया था कि कैसे बीजेपी घोषणापत्र में किसानों से किये गये अपने सारे वादों से मुकर गई. मैंने पश्चिमी उत्तरप्रदेश में किसान आंदोलन की ताकत भी देखी थी.
इन सबके बावजूद, मुझे जमीनी तौर पर कहीं कोई सत्ता-विरोधी लहर नहीं दिखी. ऐसा भी नहीं कि उत्तरप्रदेश के विभिन्न इलाकों के दौरे में मुझे हर कोई सरकार से खुश नजर आया. मुझे लोगों में निराशाओं के कई रंग नजर आये, बहुत से लोग अधिकारियों और नेताओं की शिकायत कर रहे थे, उनके मन में अपने जीवन और जीविका को लेकर गहरी चिन्ता थी. लेकिन ये बातें सरकार के खिलाफ गुस्से की शक्ल नहीं ले सकीं. अपने दौरे में मैंने देखा कि तमाम वर्ग, जाति और इलाकों के लोगों में एक सामान्य सोच घर चुकी है.
यूपी के ग्रामीण इलाकों में लोगों से उनका कुशल-क्षेम पूछने पर इस सामान्य सोच की झलक मिलती थी. चलते-चिट्ठे किसी से भी उसका हाल-चाल पूछिए और वह अपने जवाब में आपके सामने शिकायतों के अंबार लगा देगा (जिसे हमारे भोले पत्रकारों ने गलती से सत्ता-विरोधी लहर का संकेत समझ लिया) कि हालत तो बड़ी खराब है. हमारे परिवार की आमदनी बीते दो सालों से कम हो गई है. पढ़े-लिखे नौजवानों को नौकरी नहीं मिल रही. बहुत से लोगों की नौकरी छूट गई है. महामारी में बच्चों की पढ़ाई छूट गई. हमारे गांव के बहुत से बुजुर्ग महामारी के दौरान उपचार के अभाव में मर गये. हम लोग सरकारी मूल्य (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर अपनी फसल नहीं बेच पा रहे. छुट्टा घूमते पशुओं का जिक्र कीजिए तो लोग एकदम से फूट पड़ते थे कि नाक में दम कर दिया है. और महंगाई? खबरदार, इसका जिक्र तो भूले से भी मत कीजिए!
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यह सब सुनने के बाद आप उम्मीद करेंगे कि लोग इन बातों का दोष सरकार को देंगे. लेकिन योगी सरकार के कामकाज के बारे में सवाल पूछकर देखिए, लोगों का उत्तर आश्चर्यजनक तौर पर सकारात्मक मिलेगा ‘अच्छी सरकार है, ठीक काम किया है’. आप आगे कोई सवाल पूछें इसके पहले लोग खुद ही से दो कारण गिना देते थे कि हर किसी को उसके लिए निर्धारित राशन से ज्यादा अनाज सरकार ने मुहैया कराया, साथ ही में लोगों को चना और रसोई बनाने का तेल भी मिला और, लगभग हर कोई (जिसमें समाजवादी पार्टी मतदाता भी शामिल हैं) कहता हुआ मिलता था कि योगी राज में कानून-व्यवस्था की स्थिति बेहतर हुई है. किसी से भी पूछिए और जवाब मिलेगा कि ‘हमारी बहन-बेटियां सुरक्षित हैं. लेकिन, जो मुश्किलें उन्होंने अभी-अभी गिनायीं उनका क्या, उसके लिए कौन जिम्मेवार है? जैसे ही ये सवाल आप लोगों से पूछते हैं, वे बातों को गोल-गोल घुमाकर उसे किसी ना किसी तरह से बीजेपी के पक्ष में मोड़ने लगते हैं. लोगों का जवाब होता थाः सरकार इन सब बातों में क्या कर सकती है भला? कोरोना सिर्फ भारत में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में फैला था, महंगाई भी सिर्फ भारत की बात नहीं, वह तो हर जगह है. वो तो खैर कहो कि मोदी जी थे वर्ना हालत और भी बुरी होती. गायों को बूढ़ी हो जाने पर लोग चारा और दाना नहीं देते तो इसमें क्या मोदी का दोष है? बीजेपी की हर छोटी से छोटी उपलब्धि से, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, प्रत्येक मतदाता परिचित था लेकिन समाजवादी पार्टी लोगों के बड़े से बड़े दुख-दर्द को भी चुनावी मुद्दा ना बना सकी. मुझे शायद ही कोई मतदाता मिला जो बता सके कि समाजवादी पार्टी किन मुख्य सवालों को लेकर चुनाव में उतरी है.
अगर लोगों के मन में यह सामान्य समझ घर कर गई है तो इसे सत्ता-विरोधी या सत्ता-समर्थक लहर के खांचे में डालकर देखना ठीक नहीं. इन बातों को ऐसे नहीं देखा जा सकता मानो यह सरकार के कामों का किया जाने वाला दैनंदिन का मूल्यांकन हो. यूपी के विभिन्न इलाकों के दौरे में लोगों से बातचीत करके मुझे लगा कि वे अपना मन पहले से बना चुके हैं और तर्क बहुत बाद को गढ़ रहे हैं. वे किसी जज की तरह नहीं बल्कि वकील की तरह अपनी बात रखते थे. उन्हें पता था कि वे तर्क के किस छोर पर खड़े हैं और उनके साथ कौन-कौन खड़ा है. बीजेपी ने मतदाताओं के एक बड़े से हिस्से के साथ भावनात्मक जुड़ाव कायम करने कामयाबी पायी है. ऐसे मतदाता सरकार की किसी बात पर शक नहीं करते, वे शासन-प्रशासन की खामियों को भूल जाने को तैयार बैठे हैं, वे भौतिक-दुख संताप भले सह लें लेकिन रहेंगे उसी तरफ जो पक्ष उन्होंने पहले से चुन लिया है. वे अयोध्या-काशी का जिक्र अपने से नहीं करते थे लेकिन हिन्दू-मुस्लिम का सवाल उनके सामान्य बोध में एक अन्तर्धारा की तरह हर समय मौजूद दिखा मुझे.
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लेकिन जाति का क्या ? कहने की जरुरत नहीं कि अपने `हाल-चाल` को लेकर यूपी के मतदाताओं में जो यह समझ बनी है, वह सभी जातियों और समुदायों के बीच सर्व-सामान्य रुप से घर कर गई हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता. फिर भी, जातिगत समीकरण साधने की कवायद से समाजवादी पार्टी को खास फायदा नहीं हुआ. इसमें कोई शक नहीं कि यादव जाति के लोग समाजवादी पार्टी के पीछे पूरी तरह गोलबंद थे- एकदम 110 प्रतिशत, जैसा कि हिन्दी में मुहावरा चलता है. असद्दुदीन ओवैसी की लुभाऊ बोली-बानियों का विकल्प मौजूद था फिर भी मुसलमानों के पास समाजवादी पार्टी की तरफ जाने के सिवा कोई और चारा ना था. समाजवादी पार्टी ने चतुराई बरती, यादव और मुस्लिम समुदाय के लोगों को अपेक्षाकृत कम संख्या में टिकट दिया. मुस्लिम मतदाता ने भी समझदारी दिखायी और अपने आक्रोश को बड़े हद तक मन में दबाये रखा, इसे ज्यादा मुखर नहीं किया. हालांकि यादव समुदाय बड़े प्रकट और आक्रामक रुप से समाजवादी पार्टी के पीछे लामबंद था. यादव और मुस्लिम समुदाय के लोगों ने सत्ता-समर्थक किसी भी सामान्य समझ से दूरी बनाये रखी. सरकार की तरफदारी में कोई भी तर्क दीजिए- इन दो समुदाय के लोग ऐसे तर्कों की कोई ना कोई काट खोज लाते थे. इन दो समुदायों की लामबंदी से निश्चित ही समाजवादी पार्टी को मदद मिली लेकिन इतनी भर मदद को काफी नहीं माना जा सकता.
मुझे लगा कि मेरे हित-मीत, गैर-यादव जातियों और गैर-मुस्लिम मतदाताओं के बीच समाजवादी पार्टी के समर्थन को कुछ ज्यादा ही आंक रहे हैं. एक बात यह कही जा रही थी कि सूबे के ब्राह्मण मतदाता मुख्यमंत्री योगी के ठाकुरवाद से नाराज चल रहे हैं.
लेकिन, जमीनी तौर पर इस सोच से कुछ भी बनता-बिगड़ता नजर नहीं आ रहा था. अगड़ी जातियों के मतदाता बीजेपी की तरफ खम ठोंककर खड़े हैं. जाट, कुर्मी और मौर्या जैसे खेतिहर समुदाय के लोगों के बीच बीजेपी को लेकर समर्थन में जरुर कमी आयी है लेकिन उतनी भी ज्यादा नहीं जितना कि मेरे दोस्त मान बैठे थे. कुछेक अपवाद (जैसे कई जगहों पर निषाद समुदाय के मतदाता) को छोड़ दें तो नजर यही आया कि ओबीसी समुदाय के भीतर की अति पिछड़ी श्रेणी में मानी जा सकने वाली जातियों के लोग बीजेपी के समर्थन में थे. हर समाजवादी समर्थक यह मानकर चल रहा था कि बसपा का समर्थक रहा और उससे असंतुष्ट हो चला मतदाता समाजवादी खेमे को ही अपनी पसंद बनायेगा. लेकिन, मुझे इसका कोई प्रमाण नहीं मिला. मुझे तो ये नजर आया कि बसपा का पूर्व समर्थक मतदाता और एक जमाने में कांग्रेस का समर्थक रह चुका मतदाता, यूपी में आज की तारीख में, समाजवादी पार्टी से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी की तरफ झुका हुआ है.
तो क्या समाजवादी पार्टी के पक्ष में हवा चलने की बात एकदम झूठी थी? ना, ऐसी बात नहीं. इसमें कोई शक नहीं कि समाजवादी पार्टी की तरफदारी में हर जगह उभार देखने को मिला. अखिलेश की रैलियों में जो भारी भीड़ जुटती थी, वह वास्तविक थी. एग्जिट पोल बता रहे हैं कि समाजवादी पार्टी 29 प्रतिशत वोट शेयर के अपने अब तक के सर्वोच्च प्रदर्शन को इस बार लांघ जायेगी. बेशक हर किसी को दिखा, और सही ही दिखा, कि समाजवादी पार्टी उभार पर है लेकिन ज्यादातर ने ये जरुरी सवाल नहीं पूछा कि समाजवादी का यह उभार कितनी गहराई और फैलाव लिए है? अगर चुनाव दो-ध्रुवीय हो तो जीत का अन्तर अक्सर बड़ा होता है. समाजवादी पार्टी भले अभी तक का अपना सर्वोच्च वोट शेयर हासिल करे लेकिन इतने भर वोट उसे इस बार जीत दिलाने के लिए काफी नहीं. याद रखने की एक बात यह भी है कि समाजवादी पार्टी के पाले में इस बार अगर पहले की तुलना में ज्यादा मतदाता आये हैं, तो इसका कत्तई मतलब नहीं कि वे बीजेपी के खेमे से टूटकर आये हैं. एग्जिट पोल से निकलता एक संदेश यह है कि मुकाबले का बहुकोणीय मैदान इस बार दो-ध्रुवीय हुआ. नतीजतन, समाजवादी पार्टी को वोटों का फायदा तो हुआ लेकिन बीजेपी अपना वोट शेयर बनाये रखने या फिर उसमें और ज्यादा इजाफा करने में कामयाब हुई. जो मतदाता बीजेपी से दूर छिटके, उन्होंने दिखाया-जताया कि हम बीजेपी के पाले से दूर जा रहे हैं लेकिन जो बीजेपी के साथ रहे या जो किसी अन्य पाले से बीजेपी की तरफ आये, उन्होंने चुप्पी साधे रखी. इंडिया टुडे और माय-एक्सिस के एग्जिट पोल में बताया गया है कि बीजेपी को महिला मतदाताओं के बीच अच्छी खासी बढ़त हासिल हुई है. चुनाव के ज्यादातर पर्यवेक्षक(जिसमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है) इस मार्के की बात को पहचान पाने में चूक गये.
बेशक मैं मानकर चल रहा हूं कि एग्जिट पोल में जितना बताया गया है उसकी तुलना में मुकाबला कहीं ज्यादा कांटे का साबित होगा. फिर भी, बीजेपी के आलोचकों (जिसमें मैं भी शामिल हूं) को एक सलाह देना जरूरी समझता हूं. अगर बीजेपी यूपी के चुनाव जीत जाती है तो मेहरबानी करके ये तर्क मत दीजिए कि ऐसा चुनाव में धांधली करके हुआ. वजह ये नहीं कि बीजेपी ऐसी हेराफेरी नहीं कर सकती या फिर चुनाव आयोग ऐसी चीजों को बर्दाश्त नहीं कर सकता. लेकिन जहां तक इस बार के यूपी के चुनावों का सवाल है, मामला ईवीएम में गड़बड़ी का नहीं बल्कि हमारे टीवी स्क्रीन और स्मार्टफोन में हुई गड़बड़ी का है. अगर बीजेपी जीत जाती है तो निश्चित समझिएगा कि उसने ऐसा बूथ-कैप्चरिंग (मतदान केंद्रों पर कब्जा) के जरिए नहीं बल्कि लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा करके किया है- लोगों की सहज समझ में दाखिल होकर उसने जीत हासिल की है.
बीते कुछ हफ्तों के दौरान मैंने अपने कई दोस्तों को कहा कि फिलिप ओल्डनबर्ग का वह लेख पढ़िए जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे ज्यादातर पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता 1984 के चुनावों में कांग्रेस की लहर देखने में चूक गये. ओल्डनबर्ग का तर्क बड़ा सीधा-सादा सा हैः राजनेताओं, पत्रकारों और स्थानीय सूचना दाताओं की तिकड़ी चुनाव के रुझानों को लेकर आपस में ही बोलते-बतियाते रह गई और इस तिकड़ी ने चुनावी नतीजों के बारे में एक आपसी सहमति गढ़ ली. ऐसे में समस्या ये थी कि किसी ने भी आम मतदाता से पूछने की जहमत नहीं उठायी. यह काम तो सर्वे के सहारे होता है.
बीते कुछ हफ्तों के दौरान मैं यूपी के अलग-अलग इलाकों में गया तो इस सबक से मेरा बारंबार सामना हुआ. काश! कि मेरे दोस्तों आपस में बोलते-बतियाते रहने और मीडिया के बोले-बताये पर कान देने की आदत छोड़कर आम जन से संवाद कायम करते. इस सबक को याद करने में अब भी देरी नहीं हुई. साल 2024 के चुनाव अब भी दो बरस दूर हैं.
(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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