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Friday, 22 November, 2024
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राहुल से मोदी तक, वामपंथी अर्थनीति का खुमार सब पर

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कब्र में सोये लेनिन की लानत-मलामत भले होती हो और वामपंथ भले मृत्युशैया पर पड़ा हो, भारतीय आर्थिक चिंतन पर उनका प्रभाव अभी भी बाकायदा कायम है.

भारतीय वामपंथ से मेरा पहला साबका जो पड़ा था उसे क्रिकेट की भाषा में कहें तो वह पहली ही गेंद पर बोल्ड हो जाने जैसा मामला था. 1975 में पत्रकारिता के छात्र के तौर पर मैंने एक कामरेड, बल्कि कहें तो एक लगभग नक्सली से इस बात पर शर्त लगा ली थी कि ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद जिंदा हैं या नहीं, और मैं शर्त में दस रुपये हार गया था.

इसके बहुत बाद, केरल (जहां दादा पत्रकार रमेश मेनन मौजूद थे) की वामपंथी सरकार के साक्षरता कार्यक्रम पर एक स्टोरी करने के सिलसिले में मेरी मुलाकात माकपा के तत्कालीन महासचिव ई.एम.एस. से हुई. मैंने उनसे अपनी इस शर्त के बारे में बताया तो वे अपनी कलाई मेरी तरफ बढ़ाते हुए बिलकुल भावहीन लहजे में बोले, ‘‘मेरी नाड़ी देख लो, शायद तुम ठीक ही कह रहे होगे, और हारी बाजी जीत लो.’’ हम दोनों हंस पड़े थे.

पत्रकारिता का छात्र होने के बावजूद वामपंथ के बारे में मेरा अज्ञान शायद इस वजह से रहा होगा कि उन दिनों पंजाब और बाद में हरियाणा के छोटे शहरों के स्कूल-कॉलेजों में राजनीति बहुत नहीं थी. वामपंथी तो क्या कोई भी पंथी छात्र संघ शायद ही था, हालांकि कुछ शिक्षक खुद को कामरेड आदि कहलाना पसंद करते थे.

इसलिए, भारतीय वामपंथी राजनीति के बारे में मुझे पत्रकार बनने के बाद पता चला. और मैं वामपंथ, खासकर उसकी आर्थिक विचारधारा और सामाजिक-राजनीतिक आडंबर का कटु आलोचक बन गया. आखिर, जो विचारधारा अपनी ताकत अधिनायकवाद से हासिल करती है वह ‘लोकतांत्रिक’ के साथ जुड़कर ‘वामपंथी-लोकतांत्रिक’ या इससे भी ज्यादा वामपंथी-उदारवादी विचारधारा कैसे बन सकती है? और जो नेतृत्व ऊंची जातियों के भद्रलोक (विदेश में या आला भारतीय संस्थानों में शिक्षित लोगों) के हाथों में सिमटा हो वह हमेशा समानता और कमजोर तबकों की बात कैसे कर सकता है? इन दशकों में ऐसा कोई मुकाम नहीं आया जब मैंने खुद को वामपंथी राजनीति के साथ सहमत पाया हो.

मुझे उनका बौद्धिक तथा दार्शनिक अहंकार भी नापसंद था- कि अगर आप हमारे साथ नहीं हैं तो आप पूंजीवादियों के पतित चाटुकार हैं. नव-उदारवाद विशेषण तो बाद में आया. या शायद पहले भी रहा हो. वैसे, जब पंजाब में 1989 से 1993 के बीच आतंकवाद का तीसरा और अंतिम सबसे खूनी दौर चल रहा था तब सीमावर्ती जिलों में, जिन्हें आतंकवादियों ने ‘आजाद’ करा लेने का दावा किया था, ये वामपंथी दलों के कार्यकर्ता ही थे जो गांवों में डट कर अपनी जान की बाजी लगाकर मुकाबला कर रहे थे. पुलिस ने उन्हें हथियारों, एलएमजी तक से लैस किया था. हमने पाया था कि एक युवा महिला कामरेड ने, जिसके परिवार के कई सदस्य मारे गए थे, अपने घर की सुरक्षा के लिए छत पर एलएमजी लगा रखी थी.

एक राज्य में उस दौर को छोड़कर मुझे वामपंथ को लेकर खुश होने की कोई बात नजर नहीं आई. 2004 में जब वाजपेयी सरकार अप्रत्याशित रूप से हार गई और भाकपा के ए.बी. वर्द्धन ने यह बयान दिया कि ‘‘भाड़ में जाए डिसइनवेस्टमेंट’’, तब मैं खीझ गया था. और जब अमेरिका के साथ परमाणु संधि पर मनमोहन सिंह ने संसद में विश्वास मत हासिल कर लिया था तब मैं खुश हुआ था, बावजूद इसके कि वाम दलों ने इस मुद्दे पर भाजपा समेत उन ताकतों से हाथ मिला लिया था जिन्हें वे सांप्रदायिक, जातिवादी, प्रतिक्रियावादी कहते नहीं थकते. और इसके बाद जब ममता बनर्जी ने उन्हें पश्चिम बंगाल में मात दे दी तब साफ हो गया कि भारत में वामपंथ की कहानी अब खत्म हो चुकी है और पूर्वी तथा मध्य भारत में जो उग्रवादी वामपंथ है उसका भी यही हश्र होने वाला है.

वैसे, उनके लिए एक अच्छी बात मैं यह कहना चाहूंगा कि भारत में वाम दलों ने खुले और बड़े दिल वाले, व्यक्तिगत तौर पर काफी हमदर्द और सबसे आसानी से उपलब्ध होने वाले नेता दिए- ई.एम.एस. से लेकर हरकिशन सिंह सुरजीत और अब सीताराम येचुरी और प्रकाश करात तक और बंगाल के उनके देवकुल तक. माणिक सरकार इस दौर की सबसे शालीन हस्तियों में हैं. इसके बावजूद उनकी राजनीति के प्रति मेरा नजरिया बदला नहीं है. इसलिए, आप उम्मीद करेंगे कि मैं लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने का विरोध नहीं करूंगा. मैं विरोध करूंगा मगर दूसरी जाहिर वजहों से. भारत में हर किसी को अपना देवता चुनने का अधिकार है और किसी को भी उन देवताओं का अपमान करने का अधिकार नहीं है.

अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में जब सोवियत संघ पतन की ओर बढ़ रहा था, अफगानिस्तान युद्ध में उसकी हार हो गई थी, तब गोर्बाचेव ने पेरेस्त्राइका और ग्लास्नोस्त लागू किया था. उधर चीन में डेंग खुलापन ला रहे थे. मैं भारत में लकीर के फकीर वामपंथ पर विस्तृत रिपोर्ट लिखने के क्रम में कलकत्ता पहुंचा. उस समय राज्य माकपा के सचिव सरोज मुखर्जी अपने पार्टी मुख्यालय में लेनिन, स्टालिन, मार्क्स की विशाल तस्वीरों के नीचे बैठे मिले. उनसे सवाल किया, ‘‘सर, गोर्बाचेव और डेंग तो बदल रहे हैं, आपलोग क्यों नहीं बदल रहे?’’ उन्होंने हाथ उठाते हुए पूरे विश्वास से कहा, ‘‘क्योंकि मेरा साम्यवाद डेंग और गोर्बाचेव के साम्यवाद से कहीं ज्यादा शुद्ध है.’’

इसके दो साल बाद मैं मॉस्को में था और देख रहा था कि सोवियत संघ किस तरह उधड़ रहा है, उसके रिपब्लिक अलग हो रहे थे. बुखारेस्ट की सड़कों पर टैंक खड़े थे मगर उनकी तोपों पर ट्युलिप के फूल लगे थे और क्रुद्ध लोगों की भीड़ उस जगह जमा हो रही थी जहां चिसेस्कू मारा गया था. लोग क्रोध प्रकट कर रहे थे और टूट रहे थे. कुछ हफ्ते पहले भारतीय वामपंथियों का एक प्रतिनिधिमंडल रोमानियाई कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कांग्रेस में भाग लेकर लौटा था और उसके कुछ सदस्यों ने ‘पायनियर’ में लेख लिखा कि चिसेस्कू की बर्बरता और राज के पतन की खबरें किस तरह पश्चिमी प्रचार का हिस्सा हैं. उन्होंने सबूत यह दिया- जब तानाशाह ने अपना भाषण खत्म किया तो तालियां और वाहवाही का शोर घंटों तक गूंजता रहा. किसी ने उनसे यह नहीं पूछा कि क्या किसी ने उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं की?

उस साल इसके ठीक आठ महीने बाद मैं फिर मॉस्को में था और देख रहा था कि कम्युनिस्ट हस्तियों की मूर्तियां किस तरह जेसीबी जैसी मशीनों के इस्तेमाल से ढहाई जा रही थीं. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर के कुछ पुराने लोगों को छोड़कर शायद ही किसी ने अफसोस जाहिर किया. यह अच्छा छुटकारा था. विचारधारा गई, तो उसके साथ उन अत्याचारियों के प्रतीक भी जाएं, जिन्होंने उस विचारधारा के बूते अपनी क्रूर तानाशाही चलाई.

वामपंथी शासन ने 34 साल के अपने राजनीतिक शासन में बंगाल की अर्थव्यवस्था क चौपट करके रख दिया. उसने लोकतंत्र और उदारवाद की दुहाई दी मगर ठगों और जबरन वसूली करने वालों की ऐसी फज तैयार कर दी जिसने किसी विपक्ष को पनपने नहीं दिया. केरल में समाजवादी रंगत वाली दलीय व्यवस्था थी, वामदल और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आते थे और संतुलन बना रहता था हालांकि उद्योग के तौर पर बहुत कुछ बचा नहीं. बाकी पूरे देश में पंजाब से लेकर महाराष्ट्र और बिहार और असम तक वाम दल लुप्त होते गए. 2004 में उन्हें लोकसभा में 59 सीटें मिल गईं तो परोक्ष रूप से ही सही, उन्हें राष्ट्रीय ताकत का अनुभव मिल गया. लेकिन उसे उन्होंने गंवा दिया. उसके बाद से उनका राजनीतिक पतन जारी है.

यहीं पेच है. राष्ट्रीय राजनीतिक ताकत के तौर पर तो वे खत्म हो चुके हैं लेकिन एक क्षेत्र में उनकी वर्चस्व संपूर्ण, अखिल भारतीय और फिलहाल स्थायी नजर आता है. यह क्षेत्र है भारतीय आर्थिक तथा राजनीतिक अर्थव्यवस्था से संबंधित चिंतन का, जिस पर उनकी छाप कायम है. आज की जबरदस्त, कटु ध्रुवीकृत राजनीति में भी अगर किसी एक मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस ही नहीं बल्कि सभी दूसरी पार्टियां भी एकमत हैं, तो वह यह है कि समाजवादी अर्थव्यवस्था और गरीबवादी राजनीति ही त्राण दिला सकती है. वामपंथ मर रहा है, उसके प्रतीक ढहाए जा रहे हैं लेकिन उसकी आर्थिक विचारधारा को चुनौती देने वाला कोई नहीं है. इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी उसके सबसे नए झंडाबरदार हैं, और सबसे ताकतवर भी.

‘‘जैसा कि मेरे टैक्सी ड्राइवर ने कहा’’ लिखने पर रिपोर्टरों का मजाक उड़ाया जाता है. प्राग में, जहां वाक्लाव हैवल की ‘वेल्वेट’ क्रांति के तहत साम्यवाद सिमट गया था, आपका ड्राइवर किसी परमाणु प्रयोगशाला में काम कर चुका बेरोजगार कंप्युटर इंजीनियर हो सकता था. जैसा कि मेरा वाला था. जाहिर है, उसके साथ बातचीत साम्यवाद के अत्याचारों और विफलताओं पर होने लगी थी. उसने कई सवाल किए कि भारत में समाजवाद लोकप्रिय क्यों है और अहम राज्यों में कम्युनिस्ट लोग चुनाव कैसे जीत जाते हैं. फिर उसने इसकी वजह बताई. उसका कहना था कि आपका समाजवाद हमारे वाले से अलग है. हमारे सामजवाद ने हमारी राजनीतिक तथा आर्थिक आजादी छीन ली, जबकि आपके समाजवाद ने राजनीतिक आजादी को बनाए रखा. इमरजेंसी के दौरान जब इसे छीन लिया गया तब आपने उसे वापस पाने के लिए संघर्ष किया. लेकिन चूंकि आपने आर्थिक आजादी का अनुभव नहीं किया इसलिए आप नहीं समझ सकते कि समाजवाद ने आपसे क्या छीन लिया है. और आपने उसे पाने के लिए कभी संघर्ष नहीं किया.

वह एकदम ठीक कह रहा था. हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था नकली समाजवादी है. यह एकमात्र, सच्ची राष्ट्रीय विचारधारा है. एक पार्टी वामपंथ का गढ़ ढहाए जाने का जश्न मना रही है और इस जोशीले मौके पर उसके कार्यकर्ताओं ने लेनिन की मूर्ति ढहा दी. लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि वे जिससे नफरत करते हैं, अंतिम विजेता वही है. लेनिन 1924 में मरे, उनके देश ने 1990 में उनकी विचारधारा को त्याग दिया. भारत में आज भी वह जिंदा है और उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं है.

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