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Thursday, 21 November, 2024
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सबकी पसंद थे सरदार पटेल फिर भी नहीं बन पाए प्रधानमंत्री

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पटेल बनाम नेहरू गाथा में गौर करने वाली बात यह है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री का चुनाव सर्वसम्मति से नहीं हुआ था.

कांग्रेस पार्टी के दस्तावेजों से पता चलता है कि हालांकि गांधीजी ने अपनी पसंद पहले ही जाहिर कर दी थी, इसके बावजूद 15 में से 12 प्रदेश कांग्रेस समितियों ने सरदार वल्लभभाई पटेल को पार्टी अध्यक्ष मनोनीत कर दिया था. प्रायः यह कहा जाता रहा है कि जवाहरलाल नेहरू सर्वसम्मति से देश के पहले प्रधानमंत्री चुने गए थे और वे पूरे देश के चहेते थे. लेकिन दस्तावेज और तथ्य इससे उलटी बात ही बताते हैं.

मौलाना अबुल कलाम आजाद को 1940 में कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष चुना गया गया था. द्वितीय विश्वयुद्ध, भारत छोड़ो आंदोलन, और अधिकतर कांग्रेस नेताओं के जेल में बंद होने जैसी कई वजहों से आजाद अप्रैल 1946 तक अध्यक्ष बने रहे. युद्ध जब खत्म होने को हुआ तो साफ हो गया था कि भारत की आजादी अब बहुत दूर नही है. यह भी स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस अध्यक्ष को केंद्र में अतरिम सरकार बनाने का न्यौता दिया जाएगा, क्योंकि 1946 के चुनावों में कांग्रेस ने केंद्रीय असेबली में जरूरी संख्या में सीटें जीत ली थीं.

जब कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव करवाने की घोषणा हुई, तो आजाद ने दोबारा चुनाव लड़ने की ख्वाहिश जाहिर कर दी. उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘आम तौर पर यह सवाल उठा कि कांग्रेस में नए चुनाव करवाए जाएं और नया अध्यक्ष चुना जाए. जैसे ही इस बात की खबर प्रेस में छपी, सामान्य तौर पर यह मांग उठने लगी कि मुझे दूसरे कार्यकाल के लिए भी अध्यक्ष चुना जाए….’

इस बात ने ‘आजाद के करीबी मित्र और सहयगी जवाहरलाल को परेशान कर दिया. उनकी अपनी भी अपेक्षाएं थीं.’ बहरहाल, 20 अप्रैल 1946 को गांधीजी ने नेहरू के पक्ष में अपनी पसंद जाहिर कर दी. नेहरू को गांधीजी के खुले समर्थन के बावजूद कांग्रेस में भारी बहुमत पटेल को पार्टी अध्यक्ष और प्रथम प्रधानमंत्री बनाना चाहता था, क्योंकि उन्हें ‘एक महान कार्यपालक, संगठनकर्ता और नेता’ माना जाता था, जिनके पांव मजबूती से जमीन पर गड़े थे.

उन दिनों केवल प्रदेश कांग्रेस समितियां ही पार्टी अध्यक्ष को मनोनीत और निर्वाचित कर सकती थीं. अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए पर्चा भरने की अंतिम तारीख 29 अप्रैल 1946 थी. कांग्रेस पार्टी के दस्तावेजों से पता चलता है कि हालाकि गांधीजी ने अपनी पसंद पहले ही जाहिर कर दी थी, इसके बावजूद 15 में से 12 प्रदेश कांग्रेस समितियों ने पटेल को पार्टी अध्यक्ष मनोनीत कर दिया था. बाकी तीन समितियों ने मनोनयन की प्रक्रिया में भाग नहीं लिया. इसका अर्थ यह हुआ कि अध्यक्ष को मनोनीत और निर्वाचित करने वाली किसी वैध संस्था यानी किसी प्रदेश कांग्रेस समिति ने नेहरू को मनोनीत नहीं किया था.

वैसे, पार्टी कार्य समिति के कुछ सदस्यों ने नेहरू का नाम प्रस्तावित किया था, हालांकि उन्हें यह अधिकार नहीं प्राप्त था. इसके बाद नेहरू के पक्ष में अपना नाम वापस लेने के लिए पटेल को राजी करने की कवायद शुरू हो गई. मामले को सुलझाने के लिए गांधीजी ने नेहरू से कहा, ‘‘किसी प्रदेश समिति ने तुम्हें नामजद नहीं किया है… केवल वर्किंग कमेटी (के कुछ सदस्यों) ने किया है.’’

इस पर नेहरू ‘‘पूरी तरह खामोश रहे.’’ जब गांधीजी को बताया गया कि नेहरू नंबर दो नहीं बनना चाहते हैं, तो गांधीजी ने पटेल को अपना नाम वापस लेने को कहा. राजेंद्र प्रसाद ने अफसोस जाहिर किया है कि गाधीजी ‘‘ने एक बार फिर ‘चमकदमक वाले नेहरू’ की खातिर अपने भरोसेमंद सिपाही को त्याग दिया है’’. राजेंद्र बाबू ने यह आशंका भी व्यक्त की है कि ‘‘नेहरू अंग्रेजों के तौरतरीकों पर चलेंगे.’’

राजेंद्र बाबू जब ‘‘एक बार फिर’’ जुमले का इस्तेमाल कर रहे थे तब वास्तव में उनका इशारा इस तथ्य की ओर था कि 1929, 1937, 1946 में भी नेहरू की खातिर पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष पद से वंचित किया गया था, वह भी हमेशा अंतिम मौके पर.

पटेल ने दूसरे नंबर पर रहना दो कारणों से स्वीकार कर लिया. पहला तो यह कि उनके लिए पद या ओहदा कोई मायने नहीं रखता था; दूसरा यह कि नेहरू इस बात पर आमादा थे कि ‘‘या तो वे सरकार में नंबर वन रहेंगेे या अलग हट जाएंगे. वल्लभभाई ने विचार किया कि गद्दी मिली तो नेहरू संतुलित हो जाएंगे वरना वे विपक्ष में चले जा सकते हैं. पटेल ने इस स्थिति को टालने का फैसला किया, जिससे देश में कड़वाहट भरा विभाजन न हो.’’

मौलाना आजाद ने पर्चा भरने की अतिम तारीख से तीन दिन पहले, 26 अप्रैल 1946 को बयान जारी कर दिया कि नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाए. उन्होंने अपनी आत्मकथा में, जो उनके निधन के बाद 1959 में प्रकाशित हुई, लिखा है- ‘सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि मौजूदा हालात में सरदार पटेल को चुनना मुफीद नहीं होगा. तमाम तथ्यों पर विचार करने पर मुझे लगता है कि नेहरू को नया अध्यक्ष बनना चाहिए..
‘मैंने अपने सबसे अच्छे फैसले के अनुसार काम किया लेकिन इसके बाद से जो हालात बने हैं उन्होंने मुझे एहसास करा दिया है कि यह मेरे राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल थी… (बहुत बड़ी गलती थी) कि मैंने सरदार पटेल का समर्थन नहीं किया… उन्होंने वह गलती कभी नहीं की होती, जो जवाहरलाल ने की… मैं यह सोचता हूं कि मैंने ये गलतियां न की होतीं तो पिछले दस वर्षों का इतिहास कुछ और ही होता, और तब मुझे लगता है कि मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर सकूंगा.’

नेहरू के प्रति सबसे ज्यादा सहानुभूति रखने वाले जीवनीकार माइकल ब्रेखर ने लिखा है-

‘अध्यक्ष पद पर बारी-बारी से परिवर्तन करने की परंपरा के मुताबिक, तब पटेल की बारी थी. जब उन्होंने कांग्रेस के कराची अधिवेशन की अध्यक्षता की थी, तब से 15 साल गुजर चुके थे, जबकि इस बीच नेहरू 1936 में लखनऊ और 1937 में फिरोजपुर में अध्यक्षता कर चुके थे. यही नहीं, पटेल को ज्यादा से ज्यादा प्रदेश कांग्रेस समितियों ने पसंद किया था…. नेहरू गांधी के हस्तक्षेप के कारण चुने गए. पटेल को पीछे हटने को कहा गया…
‘अगर गांधी ने हस्तक्षेप न किया होता तो 1946-47 में पटेल भारत के पहले वास्तविक प्रधानमंत्री होते… सरदार से ‘पुरस्कार छीन लिया गया’, और इसने गहरा रोष पैदा किया.’

उन उथलपुथल भरे वर्षों की याद करते हुए सी. राजगोपालाचारी ने (जो पटेल से इसलिए नाराज थे कि उन्होंने उनको देश का पहला राष्ट्रपति नहीं बनने दिया था) पटेल की मृत्यु के 22 साल बाद 1972 में ‘भवन्स जर्नल’ में लिखा- ‘इसमें शक नहीं कि बेहतर तो यही होता कि नेहरू को विदेश मंत्री बनने को कहा जाता और पटेल प्रधानमंत्री बनाए जाते. मैंने भी यह मान लेने की गलती की कि दोनो में जवाहरलाल ज्यादा ज्ञानी हैं… यह गलत धारणा थी मगर उस समय यह पूर्वाग्रह व्याप्त था.’

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