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Thursday, 21 November, 2024
होमदेशकौन सी कोर्ट विदेशी अदालत की डिक्री पर अमल करे? भारतीय न्यायपालिका को यह तय करने में 16 साल लग गए

कौन सी कोर्ट विदेशी अदालत की डिक्री पर अमल करे? भारतीय न्यायपालिका को यह तय करने में 16 साल लग गए

अधिकार क्षेत्र को लेकर एक जर्मन और एक भारतीय फर्म से जुड़ा मसला सालों से लंबित था, जिस पर 2006 में इंग्लैंड की हाई कोर्ट ने मेसर ग्राइशेम के पक्ष में फैसला सुनाया था.

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नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही अदालतों को साथ मिलकर यह तय करने में 16 साल लग गए कि किस फोरम यानी हाईकोर्ट या जिला अदालत में से किसको रेसिप्रोकेटिंग टेरिटरी में आने वाली किसी विदेशी अदालत की तरफ से जारी मनी डिक्री पर अमल कराने का अधिकार है. एक जर्मन और एक भारतीय कंपनी से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि यह दिल्ली हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में आता है.

सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के तहत किसी मनी डिक्री का आशय किसी एक पक्ष को राहत के तौर पर अन्य विकल्पों के अलावा पैसे के भुगतान का आदेश दिए जाने से होता है. वहीं, सीपीसी की धारा 44ए के तहत किसी ‘रेसिप्रोकेटिंग टेरिटरी’ को भारत के बाहर किसी देश या क्षेत्र के तौर पर निर्धारित किया गया है, जहां की अदालतों द्वारा पारित आदेश भारत में लागू किए जा सकते हैं.

मौजूदा मामले के फैसले में इतनी ज्यादा देरी हुई कि हाल ही में इस विवाद का निपटारा करने वाली शीर्ष अदालत की पीठ भी इस पर खुद को टिप्पणी करने से रोक नहीं पाई.

सुप्रीम कोर्ट ने 28 जनवरी को सुनाए अपने फैसले—जिसमें कहा गया है कि दिल्ली हाईकोर्ट ही कंपनी की याचिका पर सुनवाई के लिए उपयुक्त फोरम है—में इस बात पर खेद जताया कि याचिकाकर्ता जर्मन कंपनी मेसर ग्राइशेम जीएमबीएच (जिसे अब एयर लिक्विड ड्यूशलैंड जीएमबीएच कहा जाता है) के लिए ‘स्थिति अब भी पूरी तरह साफ नहीं हुई है.’ सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारतीय कंपनी गोयल एमजी गैसेस के खिलाफ मेसर ग्राइशेम के पक्ष में फरवरी 2006 की विदेशी मनी डिक्री पर कोई भी निर्णय दिल्ली हाईकोर्ट की तरफ से लिया जाएगा.

जस्टिस अजय रस्तोगी की अगुवाई वाली पीठ ने अपने फैसले में कहा, ‘यह मामला हमारे सामने एक ताजा उदाहरण है जिसमें डिक्री धारक ने 7 फरवरी 2006 को ही रेसिप्रोकेटिंग टेरिटरी के तौर पर अधिसूचित एक विदेशी अदालत से मनी डिक्री हासिल कर ली थी लेकिन अभी 16 सालों के बाद भी उस पर अमल को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई है, क्योंकि यह तय करने में ही इतना लंबा वक्त लग गया कि इस डिक्री पर अमल के बारे में तय करना किस अदालत के अधिकार क्षेत्र में आता है.’

सुप्रीम कोर्ट ने अपने समक्ष यह मामला आने के करीब सात साल बाद इसी साल जनवरी में तीन सुनवाई के बाद मामले का निपटारा किया.


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‘डिक्री के साथ ही शुरू होती हैं मुश्किलें’

दोनों कंपनियों को अब फिर दिल्ली हाईकोर्ट में जाना होगा और एक खंडपीठ के समक्ष अपनी-अपनी दलीलें देनी होंगी. जर्मन कंपनी की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दिए गए दस्तावेजों के मुताबिक, डिक्रीटल अमाउंट (यानी डिक्री में तय की गई राशि) में ब्याज को जोड़ने के साथ यह राशि करीब 99 करोड़ रुपये हो जाती है.

चूंकि डिक्री अधिकार क्षेत्र का मामला 2006 से लेकर अब तक तकनीकी पेच में उलझे रहने के कारण मुकदमा बहुत लंबा खिंच चुका है, इसलिए शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट को इसे चार महीने के भीतर निपटाने को कहा है.

शीर्ष कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, ‘पुरानी कहावत है कि भारत में किसी वादी की मुश्किलें असल में तब शुरू होती हैं जब उसे डिक्री मिल जाती है. यह बात तो बहुत पहले 1872 में प्रिवी काउंसिल ने भी समझ ली थी कि डिक्री पर अमल करना डिक्री धारकों के लिए कितनी बड़ी चुनौती है.’

कोर्ट ने आगे कहा, एक सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद भी स्थिति जस की तस ही है, क्योंकि डिक्री धारक को आज भी उसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.

इंग्लैंड में चला था मुकदमा

जर्मन कंपनी के इस मुकदमे का सफर जनवरी 2003 में इंग्लैंड में हाईकोर्ट के समक्ष शुरू हुआ था, जहां उसने भारतीय फर्म के उधार चुकाने में चूक जाने के बाद लंदन की एक बैंक को किए गए भुगतान की राशि की वसूली के लिए गोयल एमजी गैसेस प्राइवेट लिमिटेड के खिलाफ अदालत कार्यवाही शुरू की थी.

मेसर ग्राइशेम, जिसकी भारतीय कंपनी में 49 प्रतिशत हिस्सेदारी थी, गोयल एमजी गैसेस और बैंक के बीच लोन एग्रीमेंट में एक गारंटर थी.

गोयल एमजी गैसेस कंपनी इस मामले में कभी पेश ही नहीं हुई, जिसकी वजह से 6 फरवरी, 2003 को उसके खिलाफ एक आदेश जारी किया गया.

लेकिन, जब गोयल एमजी गैसेस को डिमांड नोटिस भेजा गया, तो उसने दलील दी कि यह मान्य नहीं है क्योंकि फैसला उसकी गैरमौजूदगी में सुनाया गया है.

जुलाई 2005 में मेसर ग्राइशेम ने फिर मेरिट के आधार सुनवाई के अनुरोध के साथ इंग्लैंड की हाईकोर्ट का रुख किया. आश्चर्यजनक रूप से इस बार गोयल एमजी गैसेस ने हाईकोर्ट से पहले का आदेश रद्द करने को नहीं कहा, लेकिन यह स्पष्ट कर दिया कि वह इसका पालन करने को तैयार नहीं है.

फिर लंबी सुनवाई के बाद 7 फरवरी, 2006 को हाईकोर्ट ने जर्मन कंपनी के पक्ष में 5,824,564.74 अमेरिकी डॉलर की मूल राशि के लिए एक मनी डिक्री जारी कर दी. फैसले की तारीख से लेकर इस राशि का भुगतान किए जाने तक आठ प्रतिशत की दर से वार्षिक ब्याज देने का आदेश भी दिया गया. इस आदेश के खिलाफ कोई अपील दायर नहीं की गई, जिसका मतलब है कि डिक्री को अंतिम फैसला माना जा रहा है.


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भारत में लंबे समय से चल रहा मुकदमा

इसके बाद, डिक्री पर अमल के लिए मेसर ग्राइशेम ने अप्रैल 2006 में दिल्ली हाईकोर्ट का रुख किया जिस पर 17 जनवरी 2007 को गोयल एमजी गैसेस की तरफ से आपत्ति जताई गई. और, फिर यहां से मुकदमेबाजी में अधिकार क्षेत्र का पहलू भी शामिल हो गया.

इसके लगभग एक साल बाद गोयल एमजी गैसेस ने डिक्री पारित करने के इंग्लैंड हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र को लेकर सवाल उठाया. इस दलील पर ज्यादा ध्यान न देकर मामले की सुनवाई को आगे बढ़ा दिया गया.

लेकिन, एक साल बाद अगस्त 2009 में गोयल एमजी गैसेस ने तकनीकी आधार पर एक नए बिंदु को लेकर आपत्ति उठाई कि दिल्ली हाईकोर्ट को इस मामले की सुनवाई का कोई अधिकार नहीं है.

इसकी दलील थी कि डिक्रीटल राशि 20 लाख रुपये से अधिक है, जो उस समय दीवानी मामलों की सुनवाई के लिए दिल्ली हाईकोर्ट की आर्थिक सीमा थी और इसलिए, जिला कोर्ट इस याचिका पर सुनवाई के लिए उपयुक्त फोरम है.

हाईकोर्ट ने 29 नवंबर, 2013 को गोयल एमजी गैसेस की दलील को खारिज कर दिया और साहिबाबाद स्थित उसकी संपत्ति के टाइटल संबंधी मूल दस्तावेज जमा करने का निर्देश दिया.

हालांकि, भारतीय फर्म ने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट की खंडपीठ के समक्ष याचिका दायर की, जिसने 1 जुलाई, 2014 को एकल पीठ का आदेश रद्द कर दिया. अधिकार क्षेत्र के मुद्दे पर खुद को सीमित मानते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि भारतीय कंपनी कि जिस संपत्ति को कुर्क करने का आदेश दिया गया था, वह जिस जिला जज के अधिकार क्षेत्र में आती है, उसे ही इस याचिका का निपटारा करने का आदेश दिया जाता है.

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा

इसके बाद मेसर ग्राइशेम जीएमबीएच ने इस निष्कर्ष के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने उसकी अपील पर सितंबर 2014 में नोटिस जारी किया. इस प्रकार, एक बार फिर सुनवाई और मामला टलने का लंबा सिलसिला शुरू हो गया.

अगले 9 महीनों में यानी जुलाई 2015 तक तो पक्षकारों को अदालत में अपने दस्तावेज दाखिल करने के लिए समय दिए जाने को लेकर मामला टलता रहा.

21 जुलाई 2015 के आदेश के मुताबिक मामले की सुनवाई चार सप्ताह बाद होनी थी. हालांकि, मामले की कार्यवाही के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के पोर्टल पर अपलोड रिकॉर्ड से पता चलता है कि अगली सुनवाई करीब एक साल बाद 4 जुलाई, 2016 को हुई.

उस दिन और यहां तक कि उसके बाद की तारीखों—28 सितंबर, 18 अक्टूबर और 25 अक्टूबर—पर भी कोई सुनवाई नहीं हुई.

22 नवंबर 2016 को भारतीय कंपनी के वकील ने एक बार फिर समय मांगा क्योंकि वह अस्वस्थ थे.

दिलचस्प बात यह है कि याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत से मामले को 6 दिसंबर 2016 तक स्थगित करने के लिए भी कहा, क्योंकि उनकी तरफ से बहस करने वाले वकील के अनुसार, यह सुनवाई शुरू करने के लिए एक ‘शुभ दिन’ था. लेकिन उस दिन मामला सूचीबद्ध नहीं हुआ.

इसके बाद, 3 मार्च, 2017 से लेकर 23 अक्टूबर 2018 तक यह मामला नौ बार कोर्ट के समक्ष उठा और फिर स्थगित हो गया. फिर 6 मई 2021 को सुनवाई हुई लेकिन इसे 8 जून 2021 तक के लिए टाल दिया गया.

तीन बार और स्थगित होने—29 सितंबर, 15 नवंबर और 25 नवंबर—के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अंततः 11 जनवरी 2022 को सभी पक्षों को सुना और अगली दो तारीखों में मामले का निपटारा कर दिया.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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