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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतमोदी भावनाओं के सफल सौदागर हैं, फैक्ट चेक के जरिए उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे राहुल गांधी

मोदी भावनाओं के सफल सौदागर हैं, फैक्ट चेक के जरिए उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे राहुल गांधी

राहुल गांधी के तरकश में अभी सिर्फ तथ्य हैं, भावनात्मक मुद्दे नहीं. हो सकता है कि वे यही चाहते हों कि तथ्यों से भावनाओं का मुकाबला किया जाए.

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राहुल गांधी के लोकसभा में दिए गए भाषण की सेक्युलर, लिबरल धड़ों में चौतरफा तारीफ हो रही है. उन्होंने अपने भाषण में विकास, असमानता, बेरोजगारी, संघीय ढांचे, राष्ट्रवाद जैसे कई जरूरी मुद्दे उठाए. साथ में उन्होंने राष्ट्रीय एकता की भी बात की और इस संदर्भ में अपनी चार पीढ़ियों द्वारा किए गए संघर्षों और बलिदान की भी चर्चा की. कांग्रेस समर्थकों में इस भाषण को लेकर भारी उत्साह है, मानो राहुल गांधी ने कम-से-कम भाषण के मोर्चे पर तो नरेंद्र मोदी से बढ़त बना ली है.

ये सही है कि राहुल गांधी बिना टेलीप्रॉम्पटर के धाराप्रवाह जोरदार बोले. उनके बोलने में ऊर्जा और ऊष्मा दोनों थी. उनके भाषण में उनका साहस भी नजर आया.

लेकिन राजनीति कोई डिबेट क्लब तो है नहीं. शानदार और जोरदार बोलने की अहमियत राजनीति में निर्विवाद है. लेकिन सिर्फ ये एक बात किसी को विजेता नहीं बना सकती. सच और तथ्य आधारित बातें बेशक किसी को अच्छी लग सकती हैं, लेकिन भावनात्मक बातों के मुकाबले तथ्य अक्सर पराजित हो जाता है. यह राजनीति का नया व्याकरण है. ट्रंप से लेकर एर्दोगान और पुतिन से लेकर नरेंद्र मोदी तक तथ्यों के नहीं, भावनाओं के धनी हैं और इन सबने बड़ी कामयाबियां हासिल की हैं.


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भावनाओं के सौदागर नरेंद्र मोदी

राहुल के सामने नरेंद्र मोदी हैं, जो भावनाओं के सफल सौदागर हैं. उनकी ख्याति ये नहीं है कि वे सच बोलते हैं या फैक्ट बताते हैं. उनकी उपलब्धि ये है कि वे अपने श्रोताओं की भावनाओं के साथ कदमताल करते हैं और उनकी भावनाओं को करीने से सहलाते हैं.

नरेंद्र मोदी दो तरह की बातें और वादे ऑफर करते हैं. उनके वादों का पहला सेट वह है, जो सबके लिए है. ये वादे और बातें उन लोगों के लिए हैं, जो बीजेपी के कोर वोटर यानी पक्के समर्थक नहीं हैं. जबकि दूसरी तरह की बातें कट्टर समर्थक जनाधार के लिए हैं.

नरेंद्र मोदी सबके लिए क्या बातें करते हैं, इसे जानने के लिए आप मोदी के दौर के बीजेपी के घोषणापत्रों को देख सकते हैं. मिसाल के तौर पर, 2014 में पहली बार सत्ता में आने से पहले मोदी ने जो घोषणापत्र लाया था, उसे देखें. इसमें विकास ही विकास नजर आएगा.

1. महंगाई नियंत्रण: सरकार बनने पर बीजेपी जमाखोरी और कालाबाजारी पर रोक लगाएगी. कीमतों को नियंत्रित करने के लिए अलग से फंड होगा.

2. बेरोजगारी: हर साल दो करोड़ युवाओं को रोजगार दिया जाएगा.

3. स्वास्थ्य: हर घर में पीने का पानी होगा. भारत डायरिया मुक्त बनेगा. हर राज्य में एम्स जैसे संस्थान बनाए जाएंगे.

4. स्मार्ट सिटी: सरकार 100 नए स्मार्ट सिटी बनाएगी. उनमें फ्री वाईफाई होगा और विश्वस्तरीय सुविधाएं होंगी.

5. घर: 2022 से पहले हर किसी का पक्का मकान होगा.

6. बुनियादी ढांचा: बुलेट ट्रेन भारत में चलेगी. माल ढुलाई के लिए अलग कोरिडोर होगा. सागर माला प्रोजेक्ट के जरिए सामान की आवाजाही आसान बनाई जाएगी. पूर्वोत्तर भारत और जम्मू-कश्मीर को बाकी देश से बेहतर तरीके से जोड़ा जाएगा.

7. शिक्षा: कुल जीडीपी का 6% शिक्षा पर खर्च किया जाएगा. नेशनल ई-लाइब्रेरी बनाई जाएगी.

8. ग्रामीण विकास: देश के सबसे पिछड़े 100 जिलों की पहचान कर उन्हें विकसित जिलों के बराबर लाया जाएगा.

9. ई-गवर्नेंस: हर गांव में ब्रॉडबेंड होगा और सारे सरकारी रिकॉर्ड डिजिटल किए जाएंगे.

10. महिला विकास: संविधान संशोधन के जरिए 33% महिला आरक्षण लागू किया जाएगा.

11. चुनाव सुधार: अपराधियों के चुने जाने पर रोक लगाएंगे. देश में लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव साथ कराए जाएंगे.

याद करके देखिए कि इन वादों पर पिछले सात साल में आखिरी बार चर्चा कब हुई है. बीजेपी ने इनमें से कुछ क्षेत्रों में बेशक काम किया है, लेकिन क्या ये मुद्दे उसके नेताओं के भाषणों में आते हैं? क्या नरेंद्र मोदी इस बारे में चुनावी सभाओं में बोलते हैं? क्या वे इन मुद्दों पर वोट मांग रहे हैं?

सच तो ये है कि बीजेपी और नरेंद्र मोदी इन मुद्दों पर वोट नहीं मांगते. न ही बीजेपी का मतदाता उन्हें इन मुद्दों पर वोट देता है. ये मुद्दे दरअसल किसी पैकेजिंग मटेरियल की तरह हैं, जिनमें लपेटकर कुछ असली मुद्दे लोगों तक पहुंचा दिए जाते हैं.

राहुल गांधी जब विकास, जीडीपी, शिक्षा, स्वास्थ्य, असमानता की बात करते हैं तो दरअसल इसी पैकेजिंग मटेरियल पर उनका निशाना होता है. इसलिए बीजेपी को उनके भाषण से फर्क नहीं पड़ता. ये बीजेपी के वास्तविक मुद्दे हैं ही नहीं.


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बीजेपी के वास्तविक मुद्दे क्या हैं?

बीजेपी के ज्यादातर वास्तविक मुद्दे घोषणापत्रों में नहीं मिलेंगे. बेशक उसका थोड़ा सा हिस्सा घोषणापत्र के सांस्कृतिक मुद्दे वाले चैप्टर में तीन-चार लाइनों में नजर आएगा, जो घोषणापत्र के अंत में कहीं छिपा सा होता है.

बीजेपी के वास्तविक मुद्दों को देखें तो आपको मिलेगा राम मंदिर, काशी और मथुरा, यूनिफॉर्म सिविल कोड, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति, गाय का संरक्षण, संस्कृत, योग और आयुर्वेद को बढ़ावा देना, लव जिहाद के बहाने अंतर्धार्मिक विवाहों पर सख्ती, बांग्लादेश से आए मुसलमान शरणार्थियों को काबू में रखना, एससी-एसटी एक्ट को हटाना, आरक्षण को कमजोर करना आदि. इनमें से कई मुद्दे घोषणापत्र में नहीं हैं, लेकिन बीजेपी अपने वोटर को बता देती है कि हम आएंगे तो ये करेंगे. ये बीजेपी का अपने कोर वोटरों से किया गया वादा है, जिसे पूरा करने के लिए बीजेपी सरकार किसी भी हद तक जाती है.

अयोध्या में राम मंदिर बीजेपी बना रही है. काशी का विकास कुछ इस तरह से कर दिया गया है कि ज्ञानवापी मस्जिद अब नजरों से लगभग ओझल हो गई है. तीन तलाक पर कानून बना कर समान नागरिक संहिता को आधा लागू कर दिया गया है. कश्मीर से पंडितों के पलायन का बदला ले लिया गया है. 370 वहां खत्म हो चुका है. जम्मू-कश्मीर से राज्य और उनकी विधानसभा छीन ली गई है. गाय को लेकर काम सरकार नहीं, सरकार की शह पर गो-रक्षक कर ही रहे हैं. लव जिहाद के नाम पर ऐसे हर संभावित प्रेम और विवाह पर अघोषित पाबंदी है. एससी-एसटी एक्ट को खत्म करने की कोशिश की जा चुकी है, बेशक सरकार इसे कर नहीं पाई. आरक्षण को कमजोर करने का काम तमाम तरीके से चल ही रहा है.

यानी बीजेपी ने अपने कोर वोटर से किया वादा निभाया है या निभाने की कोशिश की है. उसे ये संतोष भी दिया है कि पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक हुई है. राष्ट्र गौरव की बीजेपी की परिभाषा के केंद्र में पाकिस्तान है और पाकिस्तान पर सर्जिकल हमला करके राष्ट्रवादी भावनाएं तुष्ट की जा चुकी हैं.

ऐसा नहीं है कि इस वोटर को शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी और ब्रॉडबैंड नहीं चाहिए. लेकिन इससे भी ज्यादा उसे अपनी भावनाओं की तुष्टि चाहिए. बीजेपी उसे ये दे रही है. अगर बीजेपी के कोर वोटर के मुद्दे पूरे हो रहे हैं तो वह नोटबंदी और बेरोजगारी का दर्द भी झेल लेता है. बीजेपी का ये कोर वोटर समाज में प्रभावशाली होने के कारण बाकी वोटर जुटाने में उसकी मदद करता है.

इसके मुकाबले में राहुल गांधी के तरकश में अभी सिर्फ तथ्य हैं, भावनात्मक मुद्दे नहीं. हो सकता है कि वे यही चाहते हों कि तथ्यों से भावनाओं का मुकाबला किया जाए. लेकिन ये लड़ाई बराबरी की नहीं है.

ब्रिटिश राजनीति विज्ञानी विलियम डेविस अपनी किताब नर्वस स्टेट में ये कहते हैं कि तथ्यों और विशेषज्ञों का जो दौर पुनर्जागरण दौर में यानी 17वीं सदी में शुरू हुआ था, उसका दौर अब खत्म हो रहा है. विवादों को सुलझाने में तथ्यों और तर्कों की पहले जैसी भूमिका नहीं रही. तथ्य और तर्क पहले जिन संस्थाओं से आते थे, वे संस्थाएं अब असरदार नहीं रहीं. मीडिया या यूनिवर्सिटी या शोध संस्थाओं को अब राजनीति और भावनाओं से परे नहीं माना जाता. इसलिए जब वे कुछ बताती भी हैं, तो उसे संदेह की नजर से देखा जाता है.

फैक्ट चेक का काम बेशक महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन फेक न्यूज को रोकने में वे कुछ सीमा तक ही असरदार साबित हुए हैं. जब लोगों के एक वर्ग की भावनाओं की पुष्टि करने वाला कोई फेक न्यूज सोशल मीडिया पर चलता है तो उसकी रफ्तार और उसकी पहुंच बहुत ज्यादा होती है. फैक्ट चेकर उन लाखों और करोड़ों लोगों के एक छोटे हिस्से तक ही पहुंच पाते हैं. फैक्ट चेक में तथ्य होता है, भावनाएं नहीं और भावनाओं के बिना कोई संवाद आखिर कितनी ही दूर तक जा पाएगा.

राहुल गांधी को बेशक अपने भाषण के लिए तालियां मिली हैं. लेकिन ये उनके समर्थकों की तालियां हैं. राजनीति में भावनाओं के महत्व को नकार कर अब राजनीति में सफल हो पाना आसान नहीं है. डर, ईर्ष्या, क्रोध, तनाव ये सब भावनाएं वोट में तब्दील हो सकती हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने इस खेल में महारत हासिल कर ली है.

राहुल गांधी का रास्ता आसान नहीं है.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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