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Friday, 22 November, 2024
होमहेल्थतीसरी लहर में कोविड उफान पर होने के बावजूद नहीं आ रहे ब्लैक फंगस के मामले, डॉक्टर्स ने बताई वजह

तीसरी लहर में कोविड उफान पर होने के बावजूद नहीं आ रहे ब्लैक फंगस के मामले, डॉक्टर्स ने बताई वजह

विशेषज्ञों ने कहा कि दूसरी लहर के दौरान स्टेरॉयड के अत्यधिक दुरुपयोग के कारण म्यूकोरमाइकोसिस के मामले चरम पर पहुंच गए थे. कई लोगों में ब्लड शुगर के अनियंत्रित स्तर और स्व-चिकित्सा ने भी इसमें योगदान दिया था.

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नई दिल्ली: म्यूकोरमाइकोसिस या ब्लैक फंगस, जिसके कारण पिछले साल जुलाई तक पूरे भारत में एक छोटी-मोटी लहर (मिनी-वेव) के तहत 4,000 से अधिक मौतें हुईं थी, के बारे में लगता है कि यह अब पूरी तरह से गायब हो गई है क्योंकि सभी राज्यों में इसके मामलों की संख्या में काफी कमी आई है.

हालांकि, चिकित्सा विशेषज्ञ पिछले साल चार से छह महीने की उस संक्षिप्त अवधि में इसके मामलों में उछाल के सटीक कारणों का पता लगाने में सक्षम नहीं रहे हैं – दूसरी लहर के दौरान इसने बड़ी संख्या में कोविड -19 रोगियों को दोहरी मार से प्रभावित किया था – परन्तु उन्होंने म्यूकोरमाइकोसिस के मामलों में आई गिरावट और इस महामारी के नियंत्रण में आने के कई कारणों की पहचान की है

इन कारणों में ‘स्टेरॉयड की नियंत्रित और कम खुराक’, ‘इलाज के दौरान भर्ती मरीजों में रक्त शर्करा (ब्लड शुगर) के स्तर पर सख्त नियंत्रण और जांच’ और ‘ऑक्सीजन ह्यूमिडिफिकेशन (आर्द्रीकरण) प्रोटोकॉल की सख्त गुणवत्ता का पालन करना’ शामिल है.

डॉक्टरों के अनुसार, लोगों द्वारा स्टेरॉयड और एंटीबॉयोटिक दवाओं के लिए स्व-चिकित्सा (खुद से इलाज) पर रोक लगने और ‘घर पर अस्वच्छ ऑक्सीजन सिलेंडर’ के उपयोग – जो पिछले साल कोविड -19 की दूसरी लहर के दौरान बड़े पैमाने पर हो रहा था – को बंद किये जाने, ने भी म्यूकोरमाइकोसिस के मामलों में इस तरह की गिरावट में योगदान दिया है.

केंद्र सरकार के पास उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल 15 जुलाई तक म्यूकोरमाइकोसिस के कुल 45,432 मामले सामने आए थे, जिनकी वजह से 4,252 मौतें हुईं थीं. हालांकि, अब इसके मामले काफी कम हो गए हैं – इतने कम कि केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने अब इस बारे में आंकड़ें इकठ्ठा करना और उनका रख-रखाव करना भी छोड़ दिया है.

अकेले महाराष्ट्र ने जुलाई 2021 तक म्यूकोरमाइकोसिस के 9,654 से अधिक मामले दर्ज किए थे जो देश भर में सबसे अधिक थे. लेकिन दिप्रिंट द्वारा प्राप्त किये गए सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि अब इस राज्य भर में 40 से भी कम मामले हैं. आंध्र प्रदेश में भी सितंबर 2021 तक म्यूकोरमाइकोसिस के 5,045 मामले दर्ज किए गए थे, लेकिन अब पूरे राज्य में इसके केवल पांच मामले हैं. गुजरात, जहां जुलाई 2021 तक 6,486 मामले दर्ज किए थे, में अब केवल कुछ सौ सक्रिय मामले हैं.

तमिलनाडु, जिसने जुलाई 2021 तक 4,075 से अधिक मामले दर्ज किए, में भी अब बहुत कम मामले हैं – हालांकि इस राज्य का स्वास्थ्य विभाग वर्तमान में ऐसे मामलों का डेटा प्रस्तुत नहीं कर सका. पंजाब, जिसने अब तक 691 मामले दर्ज किए हैं, में वर्तमान में – जैसा कि आंकड़ों से पता चलता है- म्यूकोरमाइकोसिस का एक भी मामला नहीं है .

म्यूकोरमाइकोसिस एक दुर्लभ लेकिन गंभीर संक्रमण है जो म्यूकोर्माइसेट्स नामक मोल्ड (फफूंदी) के समूह के कारण होता है. ये मोल्ड पूरे वातावरण में हर वक्त मौजूद रहते हैं. यह एक ऐसा संक्रमण है जो प्रभावित हिस्सों में रक्त की अपर्याप्त आपूर्ति के कारण ऊतकों की मृत्यु से परिलक्षित होता है. यह कम प्रतिरक्षा शक्ति वाले लोगों को जल्द अपनी पकड़ में ले सकता है, और, यदि इसका जल्दी से पता नहीं लगाया गया तो घातक भी हो सकता है.

पिछले साल अप्रैल में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि इस वैश्विक महामारी के दौरान दुनिया भर में ब्लैक फंगस के 71 प्रतिशत मामले भारत से ही सामने आए थे. लेकिन, जैसा कि हैदराबाद के यशोदा अस्पताल में संक्रामक रोगों की सलाहकार, डॉ मोनालिसा साहू ने दिप्रिंट को बताया, ऐसा नहीं है कि भारत में म्यूकोर्मिकोसिस के बारे में पहले नहीं सुना गया हो और पिछले साल इसमें अचानक आई वृद्धि से पहले भी पिछले तीन दशकों से दुनिया भर में इसके मामलों में सबसे अधिक योगदान देने वाले देश भारत ही था.


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स्टेरॉयड के नियंत्रित उपयोग से म्यूकोरमाइकोसिस से बचा जा सकता है

मुंबई के लीलावती और फोर्टिस अस्पतालों में कुछ डॉक्टरों द्वारा किए गए शोध के अनुसार, स्टेरॉयड का अगर सख्त प्रोटोकॉल के तहत और ब्लड शुगर के स्तर के कड़े नियंत्रण के साथ उपयोग किया जाता है, तो म्यूकोरमाइकोसिस के होने की संभावना से पूरी तरह से बचा जा सकता है. ‘डायबिटीज एंड मेटाबोलिक सिंड्रोम – क्लीनिकल रिसर्च एंड रिव्युस’ नाम के जर्नल में प्रकाशित हुए इस अध्ययन में कहा गया है, ‘कोविड-19 के इलाज के लिए राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रोटोकॉल के अनुसार कम खुराक वाले स्टेरॉयड की खुराक दी गयी, एक नर्स (परिचारक) द्वारा संचालित सख्त ग्लाइसेमिक कण्ट्रोल रेजिम (आईसीयू में रखे जाने के माध्यम से ब्लड शुगर के स्तर को बनाए रखा गया था) अपनाया गया और फिर यह निष्कर्ष निकाला गया कि प्रोटोकॉल का कड़ाई से पालन किया जाना, सख्त ग्लाइसेमिक कण्ट्रोल के साथ मिलकर कोविड -19 के लिए आरक्षित अस्पताल में कम खुराक वाले स्टेरॉयड ने साथ किये गए एक तृतीयक स्तर के उपचार के दौरान म्यूकोरमाइकोसिस के जोखिम और इसकी घटनाओं को समाप्त करने में मदद करता है.’

दिप्रिंट से बात करते हुए, मुंबई में वरिष्ठ एंडोक्रिनोलॉजिस्ट, डॉ शशांक जोशी, जो स्वयं इस शोध अध्ययन का हिस्सा थे, ने कहा, ‘म्यूकोरमाइकोसिस के मामलों में इस तरह की वृद्धि एक मिनी-वेव के रूप में सामने आई और फिर उसी तेजी से गायब हो गई. हमने पाया कि इन मामलों के बढ़ने के पीछे सबसे प्रभावशाली कारक स्टेरॉयड का भारी मात्रा में उपयोग था, जो ज्यादातर अनियंत्रित मधुमेह वाले लोगों को प्रभावित करता था.‘

उन्होंने कहा, ‘ये मामले खराब प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया प्रणाली वाले लोगों – जैसे कि कीमोथेरेपी करवाने वाले या अत्यधिक मधुमेह या गुर्दे की बीमारियों वाले लोग – में सबसे प्रमुख रूप से सामने आये थे.’

डॉ जोशी ने आगे कहा कि जब उपचार के दौरान रोगियों के ब्लड शुगर के स्तर की निगरानी की गई तो स्टेरॉयड की कम खुराक के साथ, उनमें म्यूकोरमाइकोसिस के मामलों को नगण्य स्तर तक लाने में मदद मिली.

डॉ साहू ने यह भी कहा कि कोविड के उपचार हेतु स्टेरॉयड की अत्यधिक खुराक और कड़ी एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध उपयोग’ के कारण म्यूकोरमाइकोसिस के मामले बढ़े. उन्होंने इसके संभावित कारकों के रूप में ‘अनियंत्रित मधुमेह’ और ‘डायबिटिक कीटोएसिडोसिस’ जैसी मधुमेह के साथ उत्पन्न होने वाली अन्य जटिलताओं का हवाला दिया.‘

उन्होंने आगे बताया कि ब्लैक फंगस के नए मामले अब कोविड के समय से पहले के दौरान आने वाले मामलों की संख्या के समान ही आ रहें हैं, लेकिन ‘उचित शल्य चिकित्सा और चिकित्सा प्रबंधन को संयुक्त रूप से लागू किये जाने’ के साथ इन्हें प्रबंधित किया जा रहा है.

डॉ साहू ने कहा, ‘दूसरी लहर के दौरान सामने आये मामलों की तुलना में मामलों की संख्या अब बहुत कम है, क्योंकि जोखिम वाले उन कारकों में कमी आई है जिनसे इसके मामलों में भारी वृद्धि हुई थी.’

उन्होंने कहा कि ब्लैक फंगस से बचने के लिए रोगियों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि कोविड -19 के इलाज के लिए स्टेरॉयड का खुद से उपयोग नहीं हो और मधुमेह-रोधी दवाओं द्वारा मधुमेह पर अच्छा नियंत्रण किया जाये.

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि मास्क सम्बन्धी स्वच्छता नियमों का उचित रूप से पालन किया जाना चाहिए, क्योंकि हमारे वातावरण में ब्लैक फंगस के पर्याप्त बीजाणु मौजूद रहते हैं और वे नम परिस्थितियों में अंकुरित होते हैं और फिर श्वसन मार्ग के माध्यम से आक्रमण कर देते हैं.

‘डेल्टा वेरिएंट ने लोगों को ब्लैक फंगस की चपेट में ला दिया’

मुंबई के मुलुंड स्थित फोर्टिस अस्पताल में क्रिटिकल केयर मेडिसिन और आईसीयू के निदेशक डॉ राहुल अनिल पंडित ने दिप्रिंट को बताया कि म्यूकोरमाइकोसिस ‘मधुमेह के साथ हुए डेल्टा संस्करण के संक्रमण’ का परिणाम था.

उन्होंने कहा, ‘यह ब्लड शुगर के खराब स्तर वाले लोगों के साथ-साथ गंभीर डेल्टा संस्करण का संयोजन था जिसने फंगल इंफेक्शन (संक्रमण) के मामलों को पैदा किया. उस समय जो लोग आमतौर पर स्टेरॉयड पर नहीं रहते थे, उन्हें भी स्टेरॉयड पर रखा गया. स्टेरॉयड वैसे भी शुगर के स्तर में वृद्धि का कारण बनते हैं, और जब वे पहले से ही प्रतिरक्षाविहीन शरीर में अनियंत्रित रूप से प्रयक्त हुए तो यह फंगल इंफेक्शन का कारण बना.’

नई दिल्ली के अपोलो अस्पताल में ईएनटी मामलों के विशेषज्ञ डॉ अमीत किशोर ने भी म्यूकोरमाइकोसिस के मामलों में वृद्धि के लिए ‘स्टेरॉयड के अति प्रयोग और इसके दुरुपयोग’ तथा कोरोनावायरस के डेल्टा संस्करण को जिम्मेदार ठहराया.

वे बताते हैं, ‘आखिरी लहर के दौरान डेल्टा संस्करण के कारण कोरोना संक्रमण गंभीर था, और इसमें स्टेरॉयड का बढ़ता उपयोग भी देखा गया. स्टेरॉयड इम्यूनोसप्रेसिव (प्रतिरक्षा शक्ति को दबाने वाला) होते हैं और उनका बढ़ा हुआ उपयोग म्यूकोरमाइकोसिस के रोगियों की संख्या में वृद्धि का एक कारण प्रतीत होता है.’

उन्होंने कहा, ‘समय-समय पर हम ऐसे कुछ रोगियों को देखते हैं जिनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर होती हैं – यानी या तो भारी मधुमेह या गुर्दे की समस्या होती है – और जिनमें यह फंगल इंफेक्शन विकसित हो जाता हैं. लेकिन दूसरी लहर के दौरान, कोविड -19 बीमारी के इतिहास वाले कई लोगों में ऐसा मामला मिला और ज्यादातर मामलों में, स्टेरॉयड के उपयोग का इतिहास था.’

उन्होंने कहा, ‘दूसरी लहर में कोविड -19 के इलाज के लिए स्टेरॉयड की आवश्यकता थी, लेकिन इलाज में उनका अत्यधिक उपयोग किया गया था और यहां तक कि ऐसे कई लोगों द्वारा इसका जमकर दुरुपयोग भी किया गया था, जिन्होंने अस्पताल में भर्ती होने के डर से खुद से दवा लेना शुरू कर दिया था, और वही इस तरह की स्थिति का कारण बना.’

इम्यूनोसप्रेसेन्ट्स ऐसी दवाएं हैं जिनका उपयोग किसी व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रणाली को नियंत्रण में रखने के लिए किया जाता है. हालांकि, कभी-कभी, इस दवा के अति-प्रयोग के साथ, हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली गलती से स्वस्थ कोशिकाओं और ऊतकों पर जो हमला कर देती है, जिससे शरीर बाहरी संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है – जैसा कि इस मामले में, ब्लैक फंगस अथवा म्यूकोरमाइकोसिस के साथ हुआ.

डॉ किशोर ने कहा कि जैसे-जैसे स्टेरॉयड का उपयोग नियंत्रित होता गया, म्यूकोरमाइकोसिस के मामले भी कम होते गए.

पंजाब में कोविड -19 के मुख्य नोडल अधिकारी, डॉ राजेश भास्कर ने भी कहा कि यह कोरोनावायरस का गंभीर डेल्टा संस्करण ही था जिसने लोगों को म्यूकोरमाइकोसिस की चपेट में ला दिया.

उन्होंने कहा, ‘पहले भी म्यूकोरमाइकोसिस के मामले आते थे, लेकिन वे डेल्टा संस्करण के मामलों में वृद्धि के साथ ये और भी बढ़े. यह फंगल इंफेक्शन हवा में मौजूद होता है और कम इम्युनिटी वाले लोगों को अपनी चपेट में लेता है.’

उन्होंने कहा, ‘अभी यह निर्धारित करना मुश्किल है कि क्या यह स्टेरॉयड के अधिक उपयोग या लोगों द्वारा स्वयं दवा लेने के बढ़ते मामलों की वजह से हुआ था. लेकिन हम मानते हैं कि यह डेल्टा संस्करण ही था जिसने लोगों की प्रतिरक्षा को प्रभावित किया और इसके परिणामस्वरूप उन्हें इस फंगल संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील बना दिया.’


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औद्योगिक ऑक्सीजन का उपयोग इसका एक कारक नहीं भी हो सकता है

कोविड -19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान चिकित्सकीय कार्यों में उपयोग होने वाले ऑक्सीजन की आपूर्ति श्रृंखला में आई कमी को दूर करने के लिए औद्योगिक ऑक्सीजन का उपयोग देखा गया. हालांकि, अधिकांश डॉक्टरों के अनुसार, औद्योगिक ऑक्सीजन के उपयोग ने म्यूकोरमाइकोसिस के मामलों में वृद्धि में केवल एक न्यूनतम भूमिका ही निभाई हो सकती है. फिर भी. विशेषज्ञों का कहना है कि ऑक्सीजन ह्यूमिडीफिकेशन प्रोटोकॉल की सख्त गुणवत्ता का पालन करने में विफल रहने या गंदे, बिना स्वच्छता वाले सिलिंडर का उपयोग किये जाने के मामलों की इसमें में एक हद तक भूमिका हो सकती है.’

चिकित्सकीय और औद्योगिक ऑक्सीजन के बीच का अंतर उनकी शुद्धता के स्तर में है, जिसके तहत औद्योगिक ऑक्सीजन की तुलना में चिकित्सकीय ऑक्सीजन अधिक शुद्ध होता है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के एक बयान के अनुसार, औद्योगिक ऑक्सीजन के कंटेनरों से अशुद्धियां आ सकती हैं.

हालांकि इस बयान में कहा गया है कि औद्योगिक ऑक्सीजन, चिकित्सकीय ऑक्सीजन की तरह सांस लेने के उद्देश्य से नहीं तैयार किया गया होता है, मगर डॉक्टरों का मानना है कि औद्योगिक ऑक्सीजन भी पर्याप्त रूप से शुद्ध और सुरक्षित है क्योंकि इसका उपयोग दवा उत्पादों के निर्माण हेतु किया जाता है. परन्तु, उन्होंने यह भी कहा कि इसका भंडारण और परिवहन म्यूकोरमाइकोसिस के मामलों में वृद्धि का एक कारण हो सकता है, बशर्ते सिलेंडरों को ठीक से साफ नहीं किया गया हो.

डॉक्टर पंडित ने कहा, ‘यह कहना सही नहीं है कि औद्योगिक ऑक्सीजन के इस्तेमाल से फंगल इंफेक्शन के मामले हो सकते हैं, क्योंकि यह भी शुद्ध ऑक्सीजन है. लेकिन इसका भंडारण या फिर ऑक्सीजन कैसे मरीजों तक पहुंचाई जाती है? यह एक समस्या हो सकती है.’

एक अन्य डॉक्टर ने अपना नाम न बताने की शर्त पर कहा कि जिन लोगों को घर पर ऑक्सीजन सपोर्ट की जरूरत होती है, उन्हें ऑक्सीजन कंसंट्रेटर्स में साफ डिस्टिल्ड वॉटर का इस्तेमाल किया जाना सुनिश्चित करना चाहिए, नहीं तो इससे फंगल इंफेक्शन हो सकता है और शायद यहीं पर गलती हुई.’

पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ के शोधकर्ताओं द्वारा बीएमजे में प्रकाशित एक पत्र के अनुसार, रिउजेबल (फिर से उपयोग में लाये जा सकने वाले) ऑक्सीजन ह्यूमिडिफ़ायर ने भी एरोसोल पार्टिकल्स (हवा वे मिले हुए कणों) की उत्पत्ति के माध्यम से पैथोजन्स (रोगजनकों) के संचरण में एक प्रमुख भूमिका निभाई हो सकती है, क्योंकि ये श्वांश लेने के तुरंत बाद फेफड़ों में गहराई तक पहुंच जाते हैं.

शोधकर्ताओं ने लिखा है, ‘डिस्पोजेबल ऑक्सीजन ह्यूमिडिफायर, जो नोसोकोमियल (अस्पताल में उत्पन्न) संक्रमणों के न्यूनतम जोखिम की संभावना वाले होते हैं, के आभाव में रियूजेबल ह्यूमिडिफायर के उचित रखरखाव हेतु व्यवस्था का ध्यान रखा जाना चाहिए. इसके अलावा, कोविड -19 रोगियों में ऑक्सीजन थेरेपी के दौरान ह्यूमिडिफायर में स्वच्छ डिस्टिल्ड वाटर का ही उपयोग किया जाना चाहिए.’

शोधकर्ताओं ने आगे कहा है कि ऑक्सीजन गैस सिलेंडरों को उचित तरह से संभालना और इनकी स्वच्छता अति-महत्वपूर्ण है, और इसे सुनिश्चित करने में हुई विफलता ने म्यूकोरमाइकोसिस के मामलों में हुई वृद्धि में भूमिका निभाई हो सकती है. इसके अलावा, अस्पताल का वातावरण – चाहे वह स्वच्छ हो या नहीं – भी एक कारक है.’

व्यक्तिगत स्वच्छता, एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध उपयोग

डॉक्टरों के अनुसार, म्यूकोरमाइकोसिस के कुछ मामलों में, रोगियों ने कोई स्टेरॉयड नहीं लिया, या उनमें कोई सहरुग्णता अथवा कोमोर्बिडीटी (कोई अन्य गंभीर बीमारी) भी नहीं थी, लेकिन उनमें यह संक्रमण ‘व्यक्तिगत स्वच्छता’ की समस्याओं के कारण हुआ था.

सूरत, गुजरात की एक नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ प्रीति कपाड़िया ने दिप्रिंट को बताया, ‘सख़्त रूप से व्यक्तिगत स्वच्छता को अपनाने की आवश्यकता है, अन्यथा यह फंगल इंफेक्शन का कारण बन सकती है. हालांकि इस संक्रमण ने ज्यादातर सह-रुग्णता वाले लोगों को ही प्रभावित किया, फिर भी कई युवा लोग भी थे, जो इससे प्रभावित थे. उन मामलों में, हमने स्वच्छता के मुद्दे को ध्यान में रखा, जो उनमें फंगल इंफेक्शन की वृद्धि होने कारण हो सकता था.’

वे कहतीं हैं, ‘लोग भाप के रूप में सांस लेने के लिए कपूर का उपयोग कर रहे थे, जो नमी का कारण बन सकता था और जिससे फंगल संक्रमण और श्लेष्मा (म्यूकस) के आसानी से शरीर में प्रवेश के लिए आधार मिल जाता था. इसके अलावा, एंटीबायोटिक दवाओं और यहां तक कि जिंक सहित अन्य मल्टीविटामिन का विवेकरहित उपयोग भी एक बड़ी समस्या थी.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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