नई दिल्ली: केंद्रीय सूचना आयुक्त (सीआईसी) ने उस याचिका को ख़ारिज कर दिया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट (एससी) की एक अंदरूनी जांच रिपोर्ट को दिखाने की गुज़ारिश की गई थी, जिसमें भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई के खिलाफ, कोर्ट की एक पूर्व स्टाफ सदस्य ने यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई थी.
इस मामले में आवेदक रमेश चिदंबरम ने सीआईसी में याचिका दायर की थी, जब सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआई) के तहत, रिपोर्ट हासिल करने के उनके आवेदन को सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ऑफिस ने ख़ारिज कर दिया था. मई 2020 में इस रिपोर्ट में पूर्व सीजेआई को यौन उत्पीड़न आरोपों से बरी कर दिया गया था.
लेकिन, रिपोर्ट की विषय-वस्तु को सार्वजनिक नहीं किया गया है और जांच पैनल ने 2003 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था, कि फैसले में इस तरह की जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने पर न्यायिक प्रतिबंध लगाया गया था. चिदंबरम को दिए जवाब में रजिस्ट्री ने उसी फैसले का हवाला दिया था.
30 नवंबर के सीआईसी आदेश में, जिसे दिप्रिंट ने देखा है, 2003 के एससी फैसले के आधार पर ये भी कहा गया है, कि चिदंबरम को आंतरिक समिति की रिपोर्ट देखने का अधिकार नहीं है. निजता अधिकार का हवाला देते हुए, मुख्य सूचना आयुक्त वाईके सिन्हा ने कहा कि एससी का फैसला मौजूदा केस पर लागू होता है, और उन्होंने एससी रजिस्ट्री के विचार का अनुमोदन किया, कि मांगी गई जानकारी ‘गोपनीय’ और ‘विचाराधीन’ थी.
पिछले फैसले लागू नहीं होते: अपीलकर्ता
सीआईसी के समक्ष अपनी अपील में, चिदंबरम ने दलील दी थी कि 2003 के फैसले (इंदिरा जय सिंह बनाम रजिस्ट्रार जनरल सुप्रीम कोर्ट) को उनके आवेदन पर निर्णय करने के लिए लागू नहीं किया जा सकता, चूंकि वो फैसला 2005 में आरटीआई एक्ट बनने से पहले आया था, और दोनों मामलों में जानकारी की ‘प्रकृति’ अलग-अलग थी.
जयसिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट का वास्ता, इसी तरह की एक जांच रिपोर्ट से पड़ा था, जो कर्नाटक हाईकोर्ट के सिटिंग जजों के खिलाफ आरोपों से जुड़ी थी. शीर्ष आदालत ने कहा था कि प्रारंभिक और गोपनीय नेचर की होने के कारण,ऐसी जानकारी ‘असाधारण श्रेणी’ की थी, जिसका ख़ुलासा नहीं किया जा सकता था.
चिदंबरम ने सीआईसी का दरवाज़ा तब खटखटाया था, जब एससी के जन सूचना अधिकारी से उनका अनुरोध, और फिर कमेटी की रिपोर्ट देखने की उनकी अपील, दोनों ख़ारिज कर दी गईं थीं.
कोई अधिकार नहीं, गोपनीय और संरक्षित: सुप्रीम कोर्ट PIO
सुप्रीम कोर्ट के जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) ने अपीलकर्ता की याचिका का विरोध किया, और कहा कि उन्हें ऐसी जानकारी हासिल करने का कोई अधिकार नहीं था, चूंकि उनके पास जानकारी को मांगने की याचिका सुने जाने का अधिकार नहीं है.
पीआईओ के अधिवक्ता स्वरूपमा चतुर्वेदी ने भी निवेदन किया कि इस मामले में नियोक्ता को जानकारी मुहैया कराने से छूट मिली हुई है, चूंकि ये जानकारी उसके पास एक विश्वासपात्र की हैसियत से है.
ये भी दावा किया गया कि ऐसी निजी जानकारी को निजता पर अकारण हमले से संरक्षण हासिल है और इसमें ऐसा कोई ‘बड़ा जनहित’ शामिल नहीं है, जिससे मांगी गई जानकारी दिए जाने को न्यायोचित ठहराया जा सके.
अंत में, ये तर्क दिया गया कि जयसिंह मामले में फैसला, प्रासंगिक और लागू किए जाने योग्य था, चूंकि मौजूदा केस में वो समविषयक था.
क़ानून ‘अच्छे से तय है’, ‘निजता का अधिकार’
2003 के फैसले से संदर्भ लेने के अलावा अपने आदेश में मुख्य सूचना आयुक्त ने 2011 के एक शीर्ष अदालत के एक फैसले का भी उल्लेख किया, जहां ये कहा गया था कि ‘विश्वास के रिश्तों’ में किसी तीसरे पक्ष को न बताने का कर्त्तव्य भी शामिल होता है.
कमीशन ने कहा कि चिदंबरम को रिपोर्ट देने से इनकार करने में एससी पीआईओ ने ‘जानने के अधिकार’ को ‘निजता के अधिकार’ के साथ संतुलित किया था.
कमीशन ने अपने आदेश में कहा, ‘कोर्ट के विवरण में ‘जानने के अधिकार’ का आरटीआई एक्ट की धारा 8(1) के खंड (जे) के तहत ‘निजता के अधिकार’ के साथ सामंजस्य स्थापित किया गया है. स्पष्ट रूप से, इस मामले में अपीलकर्ता (श्री रमेश चिदंबरम) वो लाभार्थी नहीं हैं, जिनके फायदे के लिए प्रतिवादी (भारत के उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री) ने इस जानकारी को रखा हुआ है’.
ऐसी रिपोर्ट्स को साझा करने से जुड़ा क़ानून ‘अच्छे से तय’ है, ये कहते हुए आयोग ने अपील को ख़ारिज कर दिया.
आयोग का ये निर्णय लागू और बाध्यकारी रहेगा, जब तक इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट या किसी हाईकोर्ट में अपील नहीं हो जाती.
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