अक्टूबर 1947 में जूनागढ़ को भारत में शामिल करने के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाने की घोषणा की थी, जिसका नेतृत्व मुंशी ने किया था.
के.एम. मुंशी एक राजनीतिक विचारक, संविधान के वकील तथा विशेषज्ञ, संस्था निर्माता और भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता के बड़े संरक्षक थे. प्रभास में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में उनके योगदान और इसमें उन्हें मिली चुनौतियों के बारे में कम ही लोग जानते हैं.
मुंशी ने 1922 में लिखा था कि भारतीय लोगों को सोमनाथ मंदिर के विनाश तथा उसके भग्नावशषों को देखकर कितनी पीड़ा होती है- “दूषित किए जाने, जलाए और चकनाचूर किए जाने के बावजूद वह हमारे अपमान, हमारी कृतघ्नता के स्मारक की तरह खड़ा है. उस सुबह जब मैं कभी भव्य रहे उसके सभामंडप के टूटे फर्श पर पड़े खंभों के टुकड़ों और बिखरे पत्थरों के बीच चल रहा था, मेरे अंदर शर्म की आग जल रही थी. छिपकलियां अपने बिलों से आ-जा रही थीं और मुझे अपने कदमों की आवाज ही अजनबी लग रही थी. और उफ! इन सबसे उपजी शर्म! वहां बंधा एक इंस्पेक्टर का घोड़ा मेरी आहट पर मानो किसी पवित्र स्थान को दूषित करने की अशिष्टता करता हुआ हिनहिना उठा था”.
जूनागढ़ के नवाब ने हिंदुओं को इस मंदिर का पुनर्निर्माण करने की इजाजत नहीं दी. लेकिन अक्टूबर 1947 में जब भारत में इसका विलय हो गया तब सरदार पटेल ने एक जनसभा में घोषणा की, “नए साल के इस पहले शुभ दिन पर हमने फैसला किया है कि सोमनाथ मंदिर को फिर से बनाया जाएगा. आप सौराष्ट्र के लोगों को इसके लिए पूरी कोशिश करनी होगी. यह एक पवित्र कार्य है जिसमें सबको भाग लेना चाहिए”.
इसका कुछ विरोध हुआ. तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने, जो नेहरू के अच्छे दोस्त थे, इस विचार का विरोध किया. मंत्रिमंडल की एक बैठक में उन्होंने कहा कि इसके भग्नावशेष को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) को सौंप देना चाहिए ताकि इसे एक ऐतिहासिक स्मारक के रूप में संरक्षित किया जा सके. वैसे, मौलाना आजाद ने उन मुस्लिम मस्जिदों या धर्मस्थलों के लिए मंदिर ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया, जिनकी मरम्मत एएसआइ करवा रहा था.
लेकिन सरदार ने दृढ़ता के साथ एक नोट भेजा- “इस मदिर को लेकर हिंदुओं की भावना काफी मजबूत तथा व्यापक है. मौजूदा हालात में इस बात की संभावना कम ही दिखती है कि यह भावना मंदिर की मरम्मत या उसे मजबूती देने भर से संतुष्ट होगी. प्रतिमा की पुनस्र्थापना के साथ हिंदुओं की प्रतिष्ठा तथा भावनाएं जुड़ी हुई हैं”.
जिस बैठक में मंदिर के पुनर्निर्माण का फैसला किया गया उसकी अध्यक्षता नेहरू कर रहे थे.
लेकिन 15 दिसंबर 1950 को सरदार का निधन हो गया. मंदिर पर सहमति देने वाले महात्मा गांधी पहले ही मारे जा चुके थे. नेहरू न केवल मंदिर की परियोजना बल्कि इससे जुड़े अपने मंत्रियों- खासकर मुंशी और वी.एन गाडगील- के काफी खिलाफ हो गए. शास्त्रों के मुताबिक प्राण प्रतिष्ठा की तैयारियां शुरू हो गईं और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से अनुरोध किया गया कि वे इस समारोह का संचालन करें. इस सबके बीच, नेहरू ने मुंशी को बुलाकर कहा, “मुझे यह पसंद नहीं है कि आप सोमनाथ के पुनर्निर्माण में लग गए हैं. यह हिंदू पुनरुत्थानवाद है”. मुंशी ने खुद को अपमानित महसूस किया, खासकर इसलिए कि नेहरू ने ऐसा आभास दिया कि यह सब उनकी गैरजानकारी में हो रहा है. उन्होंने 24 अप्रैल 1951 को नेहरू को एक लंबा पत्र भेजा. यह पत्र न लिखा गया होता तो सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से जुड़ी कई बातें अनजानी ही रह जातीं. यह पत्र मुंशी की पुस्तक ‘पिलग्रिमेज टु फ्रीडम’ में उद्धृत है.
उन्होंने लिखा- “डब्लूएमपी मंत्रालय की स्थायी समिति ने 13 दिसंबर 1947 को गाडगील के इस प्रस्ताव को मंजूरी दी थी कि भारत सरकार मंदिर को उसके मूल रूप में फिर से बनवाए और उसके इदगिर्द के एक वर्गमील क्षेत्र को विकसित करे. मेरा ख्याल है कि इस फैसले को मंत्रिमंडल के साप्ताहिक नोट में दर्ज किया गया था…
गाडगील से मुझे मालूम हुआ कि इसका जिक्र मंत्रिमंडल में भी किया गया. उस समय सरकार का फैसला था कि डब्लूएमपी मंत्रालय इस प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण करवाए. वह कुछ मुस्लिम धर्मस्थलों तथा मस्जिदों के मामले में ऐसा कर भी रहा था.
इसके बाद भारत सरकार ने सरकारी वास्तुकारों को प्रभास का दौरा करके मंदिर के पुनर्निर्माण के बारे में एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा.
जब सरदार ने इस पूरी योजना पर बापू से बात की तब बापू ने कहा कि सब कुछ ठीक है ल्¨किन मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए पैसा जनता की अ¨र से आना चाहिए. गाडगील भी बापू से मिले और बापू ने उन्हें भी यही सलाह दी. इसके बाद इसके लिए सरकारी पैसे के उपयोग का विचार त्याग दिया गया…
आप गौर करेंगे कि भारत सरकार ने न केवल मंदिर के पुनर्निर्माण का शुरुआती फैसला किया बल्कि इसके लिए योजना तैयार करवाई और उसे आगे बढ़ाया; साथ ही इसे लागू करने के लिए एक एजेंसी भी बनाई. इससे आपको स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भारत सरकार इस योजना से किस हद तक जुड़ी थी…
कल आपने ‘हिंदू पुनरुत्थानवाद’ का जिक्र किया. अपने अतीत में आस्था मुझे वर्तमान में काम करने और भविष्य की अोर देखने की शक्ति देती है. मेरे लिए स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है अगर यह हमें भागवत गीता से वंचित करती है या लाखों लोगों को उस आस्था से डिगाती है जिससे वे हमारे मंदिरों की ओर देखते हैं, और इस तरह यह हमारे जीवन के रंगों को नष्ट करती है. मुझे सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के अपने सपने को साकार करने का अवसर प्रदान किया गया है. यह मुझमें यह भाव जगाता है- मुझे आश्वस्त करता है- कि इस मंदिर को एक बार फिर हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान मिल गया तो इससे हमारी जनता में धर्म की पवित्रतर अवधारणा पैदा होगी और हमारी शक्ति की ज्यादा जीवंत चेतना पैदा होगी, जो कि स्वतंत्रता और उसकी परीक्षा के इन दिनों के लिए काफी महत्व रखती है”.
उस समय शहरी विकास तथा पुनर्वास मंत्री गाडगील ने भी सरदार के निधन के बाद नेहरू के इस रुख का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है- “मैंने मंत्रिमंडल की रिपोर्टों का हवाला देकर नेहरू के इस आरोप को गलत बताने की कोशिश की कि यह सब उन्हें बताए बिना किया जा रहा है. आजाद और जगजीवन राम ने कहा कि मामलों पर चर्चा हुई थी. भारत सरकार इस काम पर करीब एक लाख रुपये खर्च कर चुकी थी’’.
अगर मुंशी ने साहस और प्रतिबद्धता न दिखाई होती तो सोमनाथ मंदिर न बनता. नेहरू के सख्त विरोध के बावजूद राष्ट्रपति ने प्राण प्रतिष्ठा की पूजा की.
प्रो. माखन लाल दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च ऐंड मैनेजमेंट के संस्थापक निदेशक हैं और वर्तमान में विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के सम्मानित फेलो हैं.